अपने अवसान के दिन तक संभावनाओं से भरे हुए थे राजीव गांधी

जयंती विशेष: पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने देश के सातवें और अब तक के सबसे युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ अपने आत्मीय रिश्ते को याद करते हुए एक बार बताया था कि कैसे राजीव ने उनकी जान बचाई थी.

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जयंती विशेष: पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने देश के सातवें और अब तक के सबसे युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ अपने आत्मीय रिश्ते को याद करते हुए एक बार बताया था कि कैसे राजीव ने उनकी जान बचाई थी.

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

 

यकीनन, देश के सातवें (और अब तक के सबसे युवा) प्रधानमंत्री राजीव गांधी की इस जयंती पर उनकी यादें ताजा करने का सबसे अच्छा उपक्रम गत 16 अगस्त को हमें छोड़ गए तीन बार प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा 1991 में वरिष्ठ पत्रकार करण थापर के टीवी शो ‘आईविटनेस’ के श्रद्धांजलि कार्यक्रम में ‘विपक्ष के नेता नहीं, मनुष्य के तौर पर’ राजीव को दिया गया धन्यवाद है.

यह धन्यवाद कुछ इस तरह दिया गया था:

‘जैसे ही राजीव को पता चला कि मुझको कुछ किडनी संबंधी समस्या है और इलाज की जरूरत है, उन्होंने मुझको बुलाया और भारतीय प्रतिनिधिमंडल के साथ न्यूयॉर्क में होने जा रहे संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन में जाने का अनुरोध किया. यह भी कहा कि मुझे उम्मीद है कि आप मेरा अनुरोध मान लेंगे और वहां अपना इलाज भी करवायेंगे. मैंने वैसा ही किया, जैसा राजीव ने कहा था और संभवतः उसी से मेरी जिंदगी बची. राजीव गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के बाद मैं यह बात सार्वजनिक रूप से कहना चाहता हूं, क्योंकि मेरे निकट उनको धन्यवाद देने का यही एक तरीका है.’

करण थापर ने अपनी हाल ही में आई पुस्तक ‘डेविल्स एडवोकेट’ के ‘फोर मेमोरेबल प्राइम मिनिस्टर्स’ अध्याय में दो अलग-अलग राजनीतिक धाराओं से आने वाले इन दोनों भारत रत्न प्रधानमंत्रियों की पारस्परिक सदाशयता जताने वाले इस अनुभव का तफसील से जिक्र किया है.

बहरहाल, अपनी बात करूं तो राजीव से जुड़े प्रसंग में कंप्यूटर पर कुछ लिखने चलूं तो बरबस थोड़ा ‘इमोशनल’ हो जाता हूं. उनकी आज की कांग्रेस की रीति-नीति से तमाम असहमतियों के बावजूद.

यह याद करके कि देश में फैला कंप्यूटरीकरण अब हमें खासा सुविधाजनक लगने लगा है, अपने प्रधानमंत्रीकाल में राजीव ने उसका आह्वान किया तो सारे विपक्षी दलों के निशाने पर आ गए थे. उस वक्त वे विपक्ष द्वारा अपनी नाक में किया जा रहा दम बर्दाश्त न कर कंप्यूटरीकरण की नीति से पीछे हट जाते तो?

… इस लिहाज से देखें तो बहुत संभव है कि आने वाला समय हमें उनके दूसरे कदमों की बाबत भी नए सोचों तक ले जाये. वैसे भी शायर ने गलत नहीं कहा है- हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसको भी देखना तो कई बार देखना.

खैर, 1944 में 20 अगस्त को मुंबई में इंदिरा नेहरू व फिरोज जहांगीर की पहली संतान का जन्म हुआ तो नाना पंडित जवाहरलाल नेहरू के खास अनुरोध पर उसका नामकरण खुद को मार्क्सवादी कहने वाले उन मनीषी आचार्य नरेंद्रदेव ने किया था, जो बाद में भारतीय समाजवाद के पितामह के रूप में प्रसिद्ध हुए.

अलबत्ता, उन्होंने उसका जो ‘राजीवरत्न’ नाम रखा था, वह बाद में सिर्फ ‘राजीव’ रह गया. पिता फिरोज, जिन्हें उन्होंने 1960 में अपने वयस्क होने से पहले ही खो दिया, प्रतिष्ठित राजनेता व पत्रकार थे, तो माता इंदिरा गांधी भी ऐसे राजनीतिक व्यक्तित्व की स्वामिनी, जो बाद में देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं.

ऐसी राजनीतिक विरासत के बावजूद कहते हैं कि राजीव की राजनीति में कतई रुचि नहीं थी. 1954 में उन्हें दून स्कूल में भर्ती कराया गया, तो भी वे राजनीति शास्त्र के बजाय ड्राइंग-पेंटिंग व अन्य रचनात्मक सक्रियताओं में रुचि लेते देखे जाते थे. 1961 में बेहतर शिक्षा के लिए लंदन गए और कैंब्रिज के ट्रिनिटी कालेज में दाखिला लिया तो उन्हें नियमित खर्च भेजने की जिम्मेदारी उनके नाना पंडित जवाहरलाल नेहरू निभाते थे, जो तब देश के प्रधानमंत्री थे.

एक बार राजीव को कुछ ज्यादा पैसों की जरूरत पड़ी और उन्होंने इस बाबत नाना को बताया तो जवाब मिला, ‘मेरा विश्वास करो, मैं जो कुछ तुम्हें भेज पा रहा हूं, वही मैं अपने वेतन से अफोर्ड कर सकता हूं. मेरी पुस्तकों की रायल्टी भी अब बहुत कम मिलती है. लगता है, अब कम लोग मुझे पढ़ते हैं. मगर तुम वहां खाली समय में कोई काम क्यों नहीं करते? मुझे मालूम है कि दूसरे देशों से जाने वाले ज्यादातर विद्यार्थी वहां काम करते हैं.’

नाना की इस सीख के बाद राजीव ने कई मामूली समझे जाने वाले काम करके अपना खर्च चलाया. 1966 में स्वदेश लौटे तो विमान उड़ाने का प्रशिक्षण लिया और इंडियन एयर लाइंस में प्रोफेशनल पायलट बन गये. इसी बीच एक दिन बिना किसी तामझाम के अपनी मित्र सोनिया से शादी भी रचा ली और सामान्य जीवन जीने लगे. उन्हें क्या मालूम था कि उनकी सारी घृणा के बावजूद नियति ने राजनीति से उनका ऐसा विकट नाता जोड़ रखा है, जिससे वे कतई पीछा नहीं छुड़ा पायेंगे.

देशवासी जानते हैं कि इंदिरा गांधी राजनीति के प्रति राजीव की वितृष्णा के मद्देनजर ही अपनी राजनीतिक विरासत छोटे बेटे संजय को सौंपने वाली थीं. जनता पार्टी के ‘दूसरी आजादी’ के असफल प्रयोग के बाद 1980 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी के साथ ही संजय शक्ति के नए केंद्र बन गए थे.

लेकिन 23 जून, 1980 को विमान दुर्घटना में उनके देहांत के बाद इंदिरा गांधी ने जैसे-तैसे राजीव को उनका स्थानापन्न बनने के लिए राजी कर लिया. लेकिन अभी वे संजय के देहांत से खाली हुई अमेठी सीट का उपचुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे और राजनीतिक भविष्य के लिए खुद को तैयार कर ही रहे थे कि 31 अक्टूबर, 1984 का काला दिन आ पहुंचा, जब ‘आॅपरेशन ब्लूस्टार’ से खफा सिख सुरक्षाकर्मियों ने इंदिरा गांधी को गोलियों से भून डाला.

फिर तो राजीव ने अत्यंत असामान्य परिस्थितियों में देश के सातवें और सबसे युवा प्रधानमंत्री का कांटों भरा ताज अपने सिर पर रखा. हां, इसके पीछे इतना जनसमर्थन था कि 1984 के लोकसभा चुनाव में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को कुल 542 में से 411 सीटों पर अभूतपूर्व व ऐतिहासिक यानी रिकॉर्ड जीत हासिल हुई.

फिर तो राजीव ने अपनी ‘अनुभवहीनता’ को धता बताते हुए नए वैकल्पिक नजरिये के साथ देश को इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के लिए तैयार करना शुरू कर दिया. पंजाब व श्रीलंका में आतंकवाद के दो अलग-अलग रूपों के खात्मे के लिए उन्होंने दो अलग-अलग समझौते किए.

असम में जो एनआरसी इन दिनों चर्चा का विषय है, उसके समझौते पर भी राजीव के ही हस्ताक्षर हैं. हां, उन्होंने लालफीताशाही वाली पारंपरिक समाजवादी नीतियों की जगह देश को नई अर्थनीति व विदेशनीति दी, जो देश में उदारीकरण की प्रस्थान बिंदु सिद्ध हुई. 1986 में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के रास्ते युवा पीढ़ी को आधुनिक व वैज्ञानिक नजरिये से सम्पन्न करने की शुरुआत की तो नवोदय विद्यालयों की परिकल्पना भी साकार की.

अलबत्ता, इस दौरान उनसे कई ऐसी बड़ी चूकें हुईं, हत्यारों ने उनसे जिनके सुधार का मौका छीन लिया. 1984 के सिखविरोधी दंगों, भोपाल गैस त्रासदी, बोफोर्स और शाहबानो जैसे अप्रत्याशित राजनीतिक व गैर राजनीतिक घटनाक्रमों में वे चूके तो 1989 के आमचुनाव में इसकी कीमत भी चुकाई.

21 मई, 1991 को लिट्टे के मानव बम द्वारा उन्हें शहीद नहीं कर दिया जाता और वे जनादेश पाकर दोबारा प्रधानमंत्री बनते तो यह मानने के कारण हैं कि शायद ही नौकरशाहों व ‘मित्रों’ पर पहले कार्यकाल जितने निर्भर रहते.

धार्मिक कट्टरपंथियों के प्रति उनका पुराना नजरिया भी निश्चित ही बदला हुआ होता. जैसे कई युवा कांग्रेस नेताओं को राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका निभाने के लिए तैयार कर आगे लाये थे, राज्यों में भी युवा नेताओं का वैकल्पिक नेतृत्व उभारते.

तब जो होता सो होता, मगर नहीं हुआ तो भी कौन इनकार कर सकता है कि वे अपने अवसान के दिन तक संभावनाओं से भरे हुए थे. उनका प्राणांत करने वाले मानव बम तक की मजाल नहीं हुई कि वह उनकी संभावनाओं का अंत कर सके.

यकीनन, वे कांग्रेस और गांधी परिवार के वंशवाद की उपज थे, लेकिन इसकी परंपरा में उनका खुद का अविश्वास बहुत गहरा था. 1991 के लोकसभा चुनाव में जब वे कांग्रेस की सत्ता में वापसी के लिए संघर्ष कर रहे थे और अपने चुनाव क्षेत्र अमेठी में महात्मा गांधी के वंशज राजमोहन गांधी के साथ कांटे के मुकाबले में उलझे थे, तो अपने युवा पुत्र राहुल गांधी को विदेश से बुलाकर प्रचार में लगाने का कुछ शुभचिंतकों का सुझाव उन्होंने नहीं माना था.

उन्होंने प्रधानमंत्री पद संभाला तो बेदाग अतीत के कारण उन्हें ‘मिस्टर क्लीन’ कहा जाता था. प्रधानमंत्री बनने के बाद 30 अप्रैल, 1986 को वे पहली बार अपने निर्वाचन क्षेत्र की यात्रा पर अमेठी आये तो प्रधानमंत्री कार्यालय ने परिपत्र जारी किया था कि वहां केंद्र का कोई भी मंत्री या अधिकारी उनके साथ नहीं होगा.

बाद में किस तरह वे बोफोर्स मामले में उलझे और उसका क्या हश्र हुआ, उसकी सर्वथा अलग ही कथा है.

कहते हैं कि 29 जनवरी, 1948 को राजीव ने खेल-खेल में बापू के पांवों पर कुछ फूल रख दिए तो बापू ने हंसकर कहा था, ‘मनुष्य पर फूल तो उसकी अंतिम सांस के बाद चढ़ाए जाते हैं.’ दुर्योग कि उसके अगले ही दिन बापू शहीद हो गए.

बाद में संजय की मौत के बाद अकेली पड़ गई इंदिरा गांधी राजीव को बरबस राजनीति में खींच लायी, तो उनके साथ घटे दारुण अघटनीय ने ही राजीव को प्रधानमंत्री पद पर पहुंचाया. प्रधानमंत्री नहीं रहे तो खुद राजीव का अंत भी एक त्रासदी में ही हुआ!

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)