कुलदीप नैयर: बौनी हो रही पत्रकारिता में एक क़द का उठ जाना

कुलदीप नैयर का जाना पत्रकारिता में सन्नाटे की ख़बर है. छापे की दुनिया में वे सदा मुखर आवाज़ रहे.

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**FILE** New Delhi: File photo of eminent journalist and author Kuldip Nayar, who passed at a private hospital in New Delhi early Thursday, Aug 23, 2018. He was 95. (PTI Photo/Kamal Kishore)(PTI8_23_2018_000014B)
**FILE** New Delhi: File photo of eminent journalist and author Kuldip Nayar, who passed at a private hospital in New Delhi early Thursday, Aug 23, 2018. He was 95. (PTI Photo/Kamal Kishore)(PTI8_23_2018_000014B)

कुलदीप नैयर का जाना पत्रकारिता में सन्नाटे की ख़बर है. छापे की दुनिया में वे सदा मुखर आवाज़ रहे.

**FILE** New Delhi: File photo of eminent journalist and author Kuldip Nayar, who passed at a private hospital in New Delhi early Thursday, Aug 23, 2018. He was 95. (PTI Photo/Kamal Kishore)(PTI8_23_2018_000014B)
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर. (फोटो: पीटीआई)

कुलदीप नैयर का जाना पत्रकारिता में सन्नाटे की ख़बर है. छापे की दुनिया में वे सदा मुखर आवाज़ रहे. इमरजेंसी में उन्हें इंदिरा गांधी ने बिना मुक़दमे के ही धर लिया था. इंदिरा गांधी के कार्यालय में अधिकारी रहे बिशन टंडन ने अपनी डायरी में लिखा है उन दिनों किसी के लिए यह साहस जुटा पाना मुश्किल था कि वह कुलदीप नैयर के साथ बैठकर चाय पी आए!

कहना न होगा कि वे सरकार की नींद उड़ाने वाले पत्रकार थे. आज ऐसे पत्रकार उंगलियों पर गिने जा सकते हैं, जिनसे सत्ताधारी इस क़दर छड़क खाते हों. इसलिए उनका जाना सन्नाटे के और पसरने की ख़बर है.

कुलदीप नैयर का जन्म उसी सियालकोट में हुआ था, जहां के फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ थे. बंटवारे के बाद कुलदीप नैयर पहले अमृतसर, फिर सदा के लिए दिल्ली आ बसे.

मिर्ज़ा ग़ालिब के मोहल्ले बल्लीमारान में उन्होंने शाम को निकलने वाले उर्दू अख़बार ‘अंजाम’ (अंत) से अपनी पत्रकारिता शुरू की. वे कहते थे, ‘मेरा आग़ाज़ (आरम्भ) ही अंजाम (अंत) से हुआ है!’

बाद में महान शायर हसरत मोहानी की सलाह पर- कि उर्दू का भारत में कोई भविष्य नहीं – वे अंग्रेज़ी पत्रकारिता की ओर मुड़ गए. पढ़ने अमेरिका गए. फ़ीस जोड़ने के लिए वहां घास भी काटी, भोजन परोसने का काम किया.

पत्रकारिता की डिग्री लेकर लौटे तो पहले पीआईबी में काम मिला. गृहमंत्री गोविंदवल्लभ पंत और फिर प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के सूचना अधिकारी हुए. आगे यूएनआई, स्टेट्समैन, इंडियन एक्सप्रेस आदि में अपने काम से नामवर होते चले गए.

इंडियन एक्सप्रेस में उनका स्तंभ ‘बिटवीन द लाइंस’ सबसे ज़्यादा पढ़ा जाने वाला स्तंभ था. बाद में उन्होंने स्वतंत्र पत्रकारिता की, जो आख़िरी घड़ी तक चली. वे शायद अकेले पत्रकार थे, जिनका सिंडिकेटेड स्तंभ देश-विदेश के अस्सी अख़बारों में छपता था.

अनेक राजनेताओं और सरकार के बड़े बाबुओं से उनके निजी संबंध रहे. वही उनकी ‘स्कूप’ ख़बरों के प्रामाणिक स्रोत थे. वीपी सिंह ने उन्हें ब्रिटेन में भारत का राजदूत (उच्चायुक्त) नियुक्त किया था. इंदरकुमार गुजराल ने राज्यसभा में भेजा.

नैयर साहब से मेरा काफ़ी मिलना-जुलना रहा. जब उन्होंने कुलदीप नैयर पुरस्कार की स्थापना की, मुझे उसके निर्णायक मंडल में रखा.

हालांकि पुरस्कार अपने नाम से रखना मुझे सुहाया न था. पहले योग्य पत्रकार हमें (और उन्हें भी) रवीश कुमार लगे. पुरस्कार समारोह में नैयर साहब उत्साह से शामिल हुए, अंत तक बैठे रहे.

उनसे मेरी पहली मुलाक़ात राजस्थान पत्रिका के संस्थापक-सम्पादक कर्पूरचंद कुलिश ने केसरगढ़ में करवाई थी. सम्भवतः 1985 में, जब मुझे संपादकीय पृष्ठ की रूपरेखा बदलने का ज़िम्मा सौंपा गया था.

कुलदीपजी का स्तंभ अनुवाद होकर पत्रिका में छपता था. मैंने जब उन्हें कहा कि उनका बड़ा लोकप्रिय स्तंभ है, उन्होंने बालसुलभ भाव से कुलिशजी की ओर देखकर कहा था- सुन रहे हैं न?

मैंने उनसे पूछा कि आपको नायर लिखा जाय या नैयर? हम नायर लिखते थे. उन्होंने कहा कोई हर्ज नहीं. बाद में मुझे लगा कि नायर लिखने से दक्षिण का बोध होता है, पंजाब में नैयर (ओपी नैयर) उपनाम तो पहले से चलन में था!

जब मैं एडिटर्स गिल्ड का महासचिव हुआ, तब उनसे मेलजोल और बढ़ गया. घर आना-जाना हुआ. गिल्ड की गतिविधियों में, ख़ासकर चुनाव के वक़्त, वे बहुत दिलचस्पी लेते थे. एमजे अकबर उन्हीं के प्रयासों से गिल्ड के अध्यक्ष हुए.

जब गिल्ड द्वारा आयोजित जनरल मुशर्रफ़ की बातचीत के बुलावों में अकबर ने मनमानी की, मैंने (आयोजन के बाद) इस्तीफ़ा दे दिया था.

तब पहली बार गिल्ड की आपातकालीन बैठक (ईजीएम) बुलाई गई. संपादकों की व्यापक बिरादरी ने- विशेष रूप से बीजी वर्गीज़, अजीत भट्टाचार्जी, हिरणमय कार्लेकर, विनोद मेहता आदि- ने मेरा ही समर्थन किया.

पर नैयर साहब चाहते थे मैं इस्तीफ़ा वापस ले लूं. हालांकि बाद में अकबर ने ईजीएम में खेद प्रकट किया और बात ख़त्म हुई.

भारत-पाक दोस्ती के नैयर साहब अलमबरदार थे. उन्होंने ही सरहद पर मोमबत्तियों की रोशनी में भाईचारे के पैग़ाम की पहल की. इस दफ़ा वे अटारी-वाघा नहीं जा सके. पर उन्होंने अमृतसर के लिए गांधी शांति प्रतिष्ठान से चली बस को रवाना किया.

अमृतसर और सरहद के आयोजन में मुझे भी शामिल होने का मौक़ा मिला. मुझे दिली ख़ुशी हुई जब लोगों को हर कहीं नैयर साहब के जज़्बे और कोशिशों की याद जगाते देखा.

कुलदीप नैयर क़द्दावर शख़्स थे और क़द्दावर पत्रकार भी. बौनी हो रही पत्रकारिता में उनका न रहना और सालता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख मूलरूप से उनके फेसबुक अकाउंट पर प्रकाशित हुआ है)