कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा सबक यह है कि उसका पुनर्जीवन राहुल के करिश्मे की प्रतीक्षा में नहीं, नीतियों के पुनर्निर्धारण व अमल में है, जबकि भाजपा के लिए यह कि नीतिविहीनता के उसके वर्तमान हालात में नरेंद्र मोदी का खत्म होने को आ रहा करिश्मा कभी भी उसके सपनों के महल की सारी ईंटें भरभराकर गिरा देगा.
देश की उन सभी राजनीतिक पार्टियों को, जो अनूकूल राजनीतिक प्रवाहों या लहरों पर निर्भर करती हैं, नीतिगत सफलताओं के इंतजार में ‘वक्त गंवाने’ या ‘बूढ़ी होने’ के बजाय शीघ्रातिशीघ्र उन्नयन के लिए ‘अपने’ नेता के व्यक्तिगत करिश्मे में अंधविश्वास की ‘शीघ्रफलदायी व सुभीतोंभरी’ छोटी राह पकड़ लेतीं हैं और निहित स्वार्थों के चक्कर में गैरराजनीतिक या कि अराजक होती भी नहीं लजातीं, आम आदमी पार्टी के इन दिनों के हालात से सबक लेने चाहिए.
देश की सबसे पुरानी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और तेजी से उसकी जगह लेने की आतुरता में उसका ही रूप धारण करती जा रही भारतीय जनता पार्टी को खासतौर से.
कांग्रेस को इसलिए कि नेताओं के करिश्मे पर निर्भरता की उसकी महात्मा गांधी के दौर से चली आ रही आदत ने नीतियों के लिहाज से उसे ऐसा अपाहिज बना डाला है कि अपने भीषण दुर्दिन में भी वह उससे परे जाकर पुनर्जीवन की तलाश नहीं कर पा रही.
इसी के चलते पिछले चार से ज्यादा सालों के नरेंद्र मोदी के सत्ताकाल में उससे राहुल गांधी की छापामार टिप्पणियों की मार्फत उन्हें घेरने की कुछ कोशिशों को छोड़ नीति आधारित विपक्ष की भूमिका में उतरना संभव नहीं हुआ है. उलटे वह कई बार उनकी सरकार पर ‘नीतियों की चोरी’ के इलजाम चस्पां करने में भी नहीं हिचकती.
भाजपा को इसलिए कि अटल बिहारी वाजपेयी के काल में पहली बार मुंह लगे देश की सत्ता के स्वाद ने अब उसे ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहां सत्तालोभ में उसने नरेंद्र मोदी के रूप में नेताओं के करिश्मे पर निर्भरता का कांग्रेसी रास्ता ही चुन लिया है.
अब तो वह इसके लिए अपने उस कैडर की बलि चढ़ाने में भी नहीं हिचक रही, जो विगत में उस पर नीतियों की, वे कितनी भी ओछी क्यों न रही हों, अनुगत होने का दबाव बनाये रखता था. यह और बात है कि उसे अभी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जकड़बंदी से आजादी नहीं मिल पाई है और आगे मिल जायेगी, ऐसी उम्मीद भी नहीं ही दिख रही.
देश के राजनीतिक इतिहास में बहुत पीछे अन्नादुराई और एमजी रामचंद्रन के दौर तक न भी जायें, तो दक्षिण में एम. करुणानिधि के द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम, जयललिता के अन्नाद्रमुक, एच डी देवगौड़ा के जनतादल सेकुलर, एनटी रामाराव के तेलगूदेशम व के. चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति से लेकर उत्तर-पूर्वी भारत में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, कांशीराम व मायावती की बहुजन समाज पार्टी, लालू का राष्ट्रीय जनता दल, नीतीश का जनता दल यूनाइटेड और नवीन पटनायक का बीजू जनता दल आदि नेताओं के व्यक्तिगत करिश्मों पर आधारित ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां नजीर हैं कि वे शुरू में वैकल्पिक राजनीति या सामाजिक आर्थिक परिवर्तनों की थोड़ी-बहुत उम्मीदें भले ही जगाती हैं, इनकी राह पर बहुत दूर नहीं जा पातीं.
कुछ ही दूर की यात्रा के बाद उनके विचलन आरंभ होते हैं तो बिना देरी किए वहां तक जा पहुंचते हैं, जहां उन्हें आसमान से गिरने के बाद अटकने के लिए खजूर का पेड़ भी नहीं मिलता. क्योंकि इस बीच ये पार्टियां अपने जातीय या सामाजिक आधार के मौकापरस्त उच्च-मध्यवर्गों की महत्वाकांक्षाओं व स्वार्थों की, जिनमें से ज्यादातर निहित होते हैं, कठपुतली तो बन ही चुकी होती हैं, वंशवाद को अपना अंतिम शरण्य सिद्ध करने को अभिशप्त भी हो चुकती हैं.
अभी लोगों को ‘आप’ के स्थापनाकाल या उससे थोड़ा पूर्व की वे स्थितियां भूली नहीं होंगी, जब उसके नेता अरविंद केजरीवाल लोकपाल की नियुक्ति की मांग को लेकर आंदोलनों के क्रम में भ्रष्टाचार के खिलाफ अराजनीतिक लड़ाई का स्वांग करते हुए महायोद्धा बने घूम रहे थे.
अन्ना हजारे की असहमति के बावजूद वे अराजनीतिक से राजनीतिक हुए तो उनके करिश्मे ने, और तो और, खुद को समाजवादी और वामपंथी कहने वाले कई दलों के नेताओं कैडरों में भी खलबली मचा दी थी. भाजपा भी इससे कुछ कम विचलित नहीं ही थी.
समाजवादी व साम्यवादी कैडरों का एक हिस्सा तो यह भी सोचने लगा था कि लंबे वक्त के प्राणप्रण से किए गए संघर्ष में भी जो जनविश्वास वे हासिल नहीं कर पाये, उसे आम आदमी पार्टी ने एक झटके में पा लिया.
वाकई, ‘कुछ अलग’ राजनीति का ‘आप’ का झांसा था ही ऐसा आकर्षक कि सामान्य लोगों के लिए उसके प्रति खिंचाव की उपेक्षा करना मुमकिन नहीं हो रहा था. लेकिन इस जनविश्वास की आड़ में कई तरह के मतलबी, महत्वाकांक्षी व स्वार्थी तत्वों का प्रवाह आप की ओर मुड़ा तो वह उसे ठीक से पहचान नहीं सकी और स्वाभाविक ही आगे चलकर उनके ट्रैप में फंसने से नहीं बच नहीं सकी.
चूंकि उसका कोई तर्कसंगत नीतिगत या लोकतांत्रिक ढांचा था ही नहीं और था भी, तो उसकी आड़ में सब कुछ अरविंद केजरीवाल के आभामंडल के इर्द-गिर्द ही घूमता था, इसलिए जल्दी ही उसके वे सारे विचलन आम होने लगे, जो मध्यवर्ग की पार्टियों में प्रायः दिखते हैं.
जो ‘योद्धा’ परिवर्तन का अलम लिए उसके पास आये थे, वे जल्दी ही संसद की सीटों व दूसरे लाभ के पदों के लिए लड़ने-झगड़ने या उनके बंदरबांट में उलझे दिखने लगे. इस चक्कर में खरीद व बिक्री की तोहमतें भी दूर नहीं ही रखी जा सकीं.
फिर तो दिल्ली में थोड़े जनकल्याण के दिखावे के बाद शान व शौकत, बड़े बंगले और गाड़ियों आदि को लेकर अन्यों जैसे ‘तर्कों’ के बीच पार्टी के आंतरिक लोकपाल योगेंद्र यादव और ओम्बुड्समैन जैसी हैसियत रखने वाले प्रशांत भूषण भी ‘असह्य’ हो गये.
समय के साथ पार्टी की पंजाब इकाई में बगावत के बीच इन ‘असहनीयों’ की सूची में शाजिया इल्मी, प्रो. आनंद कुमार, विनोद बिन्नी, कपिल मिश्रा, अंजली दमानिया, मयंक गांधी व एमएस धीर के नाम भी जुड़े.
गत अप्रैल में ही दिल्ली संवाद आयोग के उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दे चुके आशीष खेतान ये पंक्तियां लिखने तक ‘पूरी तरह वकालत करने के लिए’ ‘अगस्त क्रांति’ करते हुए पार्टी से बाहर जा चुके हैं तो पत्रकार से नेता बने आशुतोष निजी कारणों से इस्तीफे के बाद बाट जोह रहे हैं कि कब अरविंद केजरीवाल का उन्हें प्यार करना बंद हो और कब वे कुमार विश्वास की दी आजादी की वह मुबारकबाद स्वीकार कर सकें, जिसमें उन्होंने कहा है कि अब इतिहास शिशुपाल की गालियां गिन रहा है.
यहां गौर करने की सबसे बड़ी बात यह है कि पार्टी छोड़ने वाली ये सभी शख्सियतें अरविन्द केजरीवाल की करीबी रही हैं और एक वक्त उन्हें केजरीवाल में कोई खोट नहीं दिखाई देता था.
पार्टी के गठन के वक्त से ही वे उनके करिश्मे पर तकिया रखने की गलती नहीं करतीं, उनकी महत्वाकांक्षाओं को बेलगाम होकर उच्चतम बिन्दु तक नहीं जाने देतीं और पार्टी में नीतियों व लोकतांत्रिक ढांचे के निर्माण पर देतीं तो आज केजरीवाल की अलोकतांत्रिक या कि तानाशाही प्रवृत्तियों से यों ‘ठगी’ हुई महसूस नहीं करतीं.
जाहिर है कि आज आप और अरविंद केजरीवाल बेहिस टकरावों, अराजकता और माफीनामे की राजनीति के पर्याय बन गये हैं तो इसकी कुछ जिम्मेदारी उनके ‘संघर्ष’ के इन साथियों को भी लेनी ही चाहिए. लेकिन केजरीवाल की सबसे कवित्वमय आलोचना करने वाले कुमार विश्वास अभी भी जानें किस चालाकी में न खुद ‘आजाद’ हो रहे हैं और न केजरीवाल ही उन्हें आजादी दे रहे हैं, जबकि केजरीवाल का खेमा उन पर भाजपा से साठगांठ तक के आरोप लगाता रहा है.
आज कुमार विश्वास केजरीवाल से पूछ रहे हैं कि जो शिलालेख बनता उसको अखबार बनाकर क्या पाया, तो भूल जा रहे हैं कि ‘आप’ के शिलालेख को अखबार बनाने में उन जैसों का भी कम से कम इतना योगदान तो है ही कि उन्होंने खुद को ऐसे लोगों में शामिल कर लिया, जिनकी बाबत कहा जाता है कि चलते हैं थोड़ी दूर हर इक तेज रौ के साथ, पहचानते नहीं हैं अभी राहवर को ये. क्या यह स्वयं उनके रहवरी के दावे पर सवाल नहीं है?
दूसरे पहलू पर जायें तो केजरीवाल ने भले ही आम आदमी पार्टी के राष्ट्रव्यापी विस्तार की अपने सहयोगियों की सलाहों की अनसुनी कर दी है (कई प्रेक्षक पार्टी में बिखराव का एक कारण उनकी इस अनसुनी को भी बताते हैं), लेकिन उनकी महत्वाकांक्षाएं अभी भी गुल खिलाने को बेकरार हैं.
दिल्ली में अपनी अगुआई में भाजपा का रथ रोकने का मंसूबा पूरा करने के लिए वे उन राहुल गांधी से भी बात करने को बेकरार हैं, राज्यसभा के उपसभापति के चुनाव में जिनकी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार को सिर्फ इसलिए अपने वोट नहीं दिलवाये कि राहुल ने उनकी ऐंठ को खास तरजीह नहीं दी थी.
उनकी मुश्किल यह कि अब, जब वे चाहते हैं कि किसी भी तरह कांग्रेस दिल्ली में ‘आप’ के साथ मिलकर चुनाव लड़ने को तैयार हो जाए, राहुल उन्हें भाव देने को तैयार नहीं और दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष अजय माकन से बात करने को कह रहे हैं. कहते तो यहां तक हैं कि राहुल उनसे फोन पर बात करने को भी राजी नहीं हैं, जबकि एक समय वे कहते थे कि आम आदमी पार्टी से बहुत कुछ सीखा जा सकता है.
हां, जहां तक ‘आप’ से सीखने की बात है, जैसा कि इस टिप्पणी के शुरू में कह आये हैं, उसका आगाज और अंजाम दोनों न सिर्फ कांग्रेस बल्कि भाजपा के लिए भी सबकों से भरे हैं.
कांग्रेस के लिए उनका सबसे बड़ा सबक यह है कि उसका पुनर्जीवन राहुल के करिश्मे की प्रतीक्षा में नहीं, नीतियों के पुनर्निर्धारण व अमल में है, जबकि भाजपा के लिए यह कि नीतिविहीनता के उसके वर्तमान हालात में नरेंद्र मोदी का खत्म होने को आ रहा करिश्मा कभी भी उसके सपनों के महल की सारी ईंटें भरभराकर गिरा देगा.
ये दोनों पार्टियां ये सबक लेने में जितनी ईमानदारी बरतेंगी, देश की राजनीति उतनी ही ज्यादा उजली होगी.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)