क्या विकास का वर्तमान मॉडल हमारे सामाजिक मूल्यों का विनाश कर रहा है?

वर्तमान समय में संस्थाएं गोल हासिल करने वाली वाली कंपनी और व्यक्ति, टारगेट हासिल करने वाला एजेंट बनकर रह गया है.

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वर्तमान समय में संस्थाएं गोल हासिल करने वाली वाली कंपनी और व्यक्ति, टारगेट हासिल करने वाला एजेंट बनकर रह गया है.

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(प्रतीकात्मक तस्वीर: रॉयटर्स)

पिछले तीन दशकों में दुनिया भर में गुड गवर्नेंस और सरकार के बेहतर परफॉरमेंस को लेकर आम राय सी बन गई है. प्रत्येक व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधि को इन्हीं पैमानों पर मापा जाने लगा है: उसकी उपयोगिता क्या है और उसका समाज के लिए उत्पादकता में क्या योगदान है.

अर्थशास्त्र के सकल घरेलू उत्पाद से शुरू हुई ये बहस अब आगे बढ़कर व्यक्तिगत स्तर पर तथा संस्थाओं के स्तर पहुंच चुकी है. प्रत्येक व्यक्ति का तथा प्रत्येक संस्थान का एक समय विशेष में क्या योगदान रहा, अब ये एक सरकारी नीति तथा हमारी आसपास के सामाजिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है.

इतना ही नहीं, कोई व्यक्ति समाज में सहयोग (विशेष तौर पर आर्थिक सहयोग) का कितना अधिकारी है इसका पैमाना भी अब ये दो मूल्य- उपयोगिता और उत्पादकता हो चुके हैं. भारतीय नीतिगत समझ में भी क्रमश: इसी मॉडल को पिछले तीन दशकों से लागू किया जा रहा है.

वास्तव में ये प्रक्रिया सामाजिक परिवर्तन की ठीक वैसी ही प्रक्रिया है जैसी अठाहरवीं सदी और उन्नीसवीं सदी के यूरोप में आधुनिकरण के नाम पर और अच्छे प्रशासन के नाम पर हो रहा था. इन पूरे परिवर्तनों के पीछे इसी प्रकार की उपयोगितावादी सोच की भूमिका थी.

वास्तव में उस समय के यूरोप में ऐसा दो कारणों से हो रहा था- एक, ऐसे समाज का निर्माण जो औद्योगिक आवश्यकताओं के अनुसार हो और दूसरा एक ऐसा व्यक्तिपरक समाज जो राज्य के अनुसार और उसके निर्देशों के अनुसार चले.

जेरेमी बेन्थम का नाम ऐसे विचारकों की श्रेणी में सबसे ऊपर आता है. इस प्रकार की व्यवस्था ने एक ऐसे समाज और ऐसी राजनैतिक व्यवस्था को पैदा किया जिसमें उत्पादकता पहला नैतिक मूल्य थी. उपनिवेशवाद और औद्योगिक शोषण भी इसी विचारधारा के परिणाम थे. और अंतत इसने एक अत्यंत असमान समाज व्यवस्था को मजबूत किया जिसमें मानवीय नैतिक मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं था.

और आज भी इसी व्यवस्था को आंकड़ों और वेबसाइट से प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है. इसी प्रचार प्रसार का परिणाम है कि इसके नकारात्मक रूप देखने के बावजूद भी भारत जैसे देश में ऐसी ही व्यवस्था लागू करने का प्रयास हो रहा है. खतरनाक ये है कि ऐसे संरचनात्मक बदलाव के पीछे नैतिकता सहारा लिया जाता है.

सरसरी तौर पर तो लगता है कि इसमें बुरा क्या है? आखिर प्रत्येक व्यक्ति समाज से ही तो अपना अस्तित्व जानता है, तो ऐसे में उस व्यक्ति को भी उस समाज के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए. पर ये मुद्दा यहीं समाप्त नहीं हो जाता.

अगर सवाल केवल समाज के प्रति उत्तरदायित्व और कर्तव्यों के रूप में कुछ मूल्यों को लेकर हो तो इस पर बात होनी भी चाहिए पर अगर इन्हें प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के आधारभूत मूल्यों तथा उसके सामाजिक अस्तित्व का आधार मान लिया जाये तो ये अत्यंत विध्वंसक हो सकता है.

खतरा ये है कि उत्पादकता और उपयोगिता दोनों ही आर्थिक आधार पर परिभाषित किए जाते हैं. उपयोगिता और उत्पादकता दोनों ही मूल्य किसी व्यक्ति के महत्व को आर्थिक तत्वों तक सीमित कर देते हैं. अर्थात, ये बहस कर्तव्यों तक सीमित नहीं बल्कि मानवीय अस्तित्व को ही पुनर्भाषित करने का प्रयास है.

इन्हें पुनर्भाषित करने का एक महत्वपूर्ण प्रयास जो पिछले तीन दशक में हुआ है वो है उपयोगिता और उत्पादकता की वैज्ञानिक और ऑब्जेक्टिव व्याख्या. अर्थात कुछ ऐसे संगणिकीय और गणितीय मॉडल का विकास जिससे इनको नापा जा सके. किसी भी प्रकार की गणना के लिए मूल्यों को संख्याओं में बदलना आवश्यक है.

अन्य शब्दों में, उपयोगिता और उत्पादकता की भी गणितीय व्याख्या. गणितीय और आर्थिक व्याख्याओं के साथ दो चीजें और जुडी होती हैं: पहला इनमें मानवीय सरोकारों के लिए कोई स्थान नहीं होता और दूसरा इनसे जुड़ी हुई गतिविधियां एक मशीनी रूप ले लेती हैं जिसमें नियमों के अक्षरसः अनुपालन पर बल दिया जाता है.

ऐसे में समाज और समुदाय जैसे शब्द महत्वहीन होने लगते हैं. साथ ही संस्थाओं का मशीनीकरण और नौकरशाहीकरण हो जाता है. संस्थाएं ऐसे में व्यक्तियों के विकास और समाज के विकास का स्वरूप नहीं रह जातीं अपितु केवल साल भर में दिए गए कुछ टारगेट को पूरा करने वाली कंपनी बन जाती हैं उसमें काम करने वाले लोग केवल उन टारगेट को पूरा करने रहने वाले एजेंट मात्र रह जाते हैं.

एक मनुष्य होने के नाते उनका कोई अस्तित्व नहीं रह जाता क्योंकि उनकी रोजमर्रा की गतिविधियों को उपयोगिता और उत्पादकता से मापा जाता है. और इसे भी अंतत संख्याओं में बदल दिया जाता है. अर्थात आपके प्रत्येक काम में आपको कितने स्टार मिले वो महत्वपूर्ण है. पर उन कामों का क्या जो लीक से हटकर हों और या फिर जिनके बारे में समाज में जानकारी न हो, या फिर या फिर वो किसी नए अनुसंधान या विचार से जुड़ा हो.

प्रेम विवाह को जो कि सामाजिक नियमों के खिलाफ किया गया हो, में कैसे हम स्टार देकर उसकी उपयोगिता और उत्पादकता को माप सकते हैं? इसी प्रकार समाज में वृद्ध माता पिता या फिर किसी बीमार सदस्य को इन मूल्यों से कैसे देखेंगे?

किसी अन्य समाज के लिए की गई कोई भी सहायता या फिर किसी अन्य शक्ति में विश्वास के साथ की गयी प्रार्थना को समझने के लिए उपयोगिता और उत्पादकता के मॉडल में कोई स्थान नहीं रह जाता. ये कुछ सवाल हैं जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को झकझोर देंगे.

सवाल केवल ये नहीं है कि क्या इन सब के लिए भी उत्पादकता और उपयोगिता के यही नियम लागू होंगे जो अन्य लोगों के लिए होंगे.

सवाल ये है कि जब अन्य लोग एक ऐसी व्यवस्था में उलझे होंगे जहां प्रत्येक क्षण उन्हें अपनी उत्पादकता, अपने काम की उत्पादकता और वो कैसे समाज या किसी संस्थान में उत्पादकता बढ़ाने में योगदान दे सकता है, तो ऐसे में बुजुर्गों, बीमार व्यक्तियों या बच्चों और प्रेम के लिए समय ही कहां बचेगा, क्योंकि ये सब तो किसी उत्पादकता के नियम के अनुसार समाज में संख्याओं में कुछ जोड़ते नहीं.

हां, भावनाओं के तौर पर, मानसिक संतोष के तौर पर अवश्य योगदान करते हैं. पर आप जब एक ऐसी व्यवस्था में हैं जहां संस्थान का प्रमुख (पुरुष या महिला) कहती है कि वो आपकी समस्या समझते हैं पर मजबूर हैं क्योंकि संख्याओं में आपने कुछ भी नहीं किया, तो आप क्या करेंगे.

वास्तव में जिस प्रकार के संस्थागत परिवर्तन आज हो रहे हैं और जिस प्रकार का नीतिगत ढांचा सरकार बनाने का प्रयास कर रही है, विशेष तौर पर शिक्षण संस्थानों में, उसके इसी प्रकार के विध्वंसक परिणाम होंगे.

उपयोगिता एक ऐसी राजनीतिक संकल्पना है जो आधुनिक मशीनी युग की देन है. इसमें व्यक्ति को केवल उसकी शारीरिक, मानसिक योग्यताओं के आधार पर देखा जाता है. प्रत्येक व्यक्ति के साथ कुछ ऐसे गुण जोड़ दिए जाते हैं जिस पर खरा उतरने पर ही उसका समाज में अहमियत को, या किसी संस्था में आवश्यकता को सही माना जाता है.

इन गुणों को निर्धारित कौन करता है, ये एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है. इन्हें निर्धारित करने का काम शासक वर्ग करता है. संस्थाओं में ये काम संस्था प्रमुख करते हैं.

संरचनात्मक परिवर्तन के बाद इस तरह की उपयोगितामूलक निर्धारण की प्रक्रिया छोटे से लेकर बड़े स्तर तक होती है. अर्थात संस्थाओं की कड़ी में प्रत्येक व्यक्ति उपयोगिता के तर्क से संचालित होता है और वो दूसरों को भी इसी तर्क से देखे ये उसकी मजबूरी भी होती है.

अन्य शब्दों में इस पूरी प्रक्रिया में आर्थिक आधार, संख्याएं और शासकीय व्याख्याएं महत्वपूर्ण हो जाती हैं और मानवीय मूल्य धीरे-धीरे ऐसे अवधारणा में तब्दील हो जाते हैं जिनके बारे में प्रत्येक व्यक्ति को सहानुभुति तो होती है पर उस पर कोई गौर नहीं करना चाहता.

प्रत्येक व्यक्ति की नागरिकता की परिभाषा अब उसकी सामाजिक और व्यक्तिगत उपयोगिता से ही निर्धारित होगी. उनके कार्यों और सेवाओं को इस आधार पर नापा जायेगा की वो अगर किसी भी मायने में कुछ ऐसा योगदान करते हैं जिसे संख्याओं में बदलकर किसी कम्प्यूटर प्रोग्राम पर ग्राफ बनाकर देखा जा सके.

अगर ग्राफ की लाइन ऊपर जा रही है तो उसका अर्थ होगा आप उपयोगी हैं और उत्पादकता बढ़ने में योगदान दे रहे हैं. किन्हीं कारणों से अगर आप ऐसा नहीं कर पाए या फिर इन सब टेक्निकल चीजों में माहिर नहीं है तो इस उत्पादकता, उपयोगिता फ्रेमवर्क में उनके लिए कोई जगह नहीं.

अधिकतर कलाकार इन श्रेणियों में नहीं समा पाते और न ही वैज्ञानिक और विचारक. और विशेष तौर पर किसान और मजदूर का योगदान तो संख्याओं में मापा ही नहीं जा सकता. पर क्या किसानों, मजदूरों, कलाकारों, वैज्ञानिकों और विचारकों के बिना कोई समाज तरक्की कर सकता है?

अधिकांश संस्थाओं में लागू की जा रही नीतियां: जैसे की बैंकिंग सेक्टर में या नौकरशाही में और या फिर शिक्षा संस्थानों में ऐसे ही संरचनात्मक परिवर्तनों को लागू किए दिशा में कदम बढ़ाये जा रहे हैं या कुछ हद तो तो ऐसा किया ही जा चुका है.

बैंकिंग सेक्टर तो पूरी तरह कंपनी और कॉर्पोरेट मॉडल पर बदल दिया गया है. अब एक बैंक और साहूकार में तुलना करें तो शायद साहूकार कहीं मानवीय गुणों के बारे में संवेदनशील सकता है, बैंक मैनेजर चाहकर भी ऐसा नहीं कर पायेगा. इसी प्रकार स्कूल शिक्षा में भी ऐसा ही मॉडल लागू किया जा चुका है. अब धीरे-धीरे इसे उच्च शिक्षा में भी लागू करने की तैयारी है.

अगर ये संस्थागत परिवर्तन समाज के लिए नहीं हैं तो आखिरकार ये सब पैमाने किसके लिए हैं? वास्तव में ये सरकारों की सहूलियत के लिए हैं जिन्हें उत्तरदायित्व के नाम पर लागू किया जाता है.

विचारणीय ये है कि उत्तरदायित्व की मांग सरकारों के लिए होती है जिसे नागरिकों का उत्तरदायित्व निर्धारित करके सरकार ये दिखाती है कि उसने उत्तरदायी व्यवस्था बना दी.

ये उत्तरदायित्व संख्याओं, आंकड़ों, ग्राफ के द्वारा वेबसाइट और फेसबुक द्वारा बार-बार दिखाया जाता है बताया जाता है, पर रोजमर्रा के जीवन में वास्तव में सरकार में निर्णय निर्माण करने वाले जनप्रतिनिधि अपने उत्तरदायित्व के लिए पांच साल (अन्य देशों में अलग अलग) बाद के चुनावों का इंतजार करते हैं.

इसके अलावा जन-प्रतिनिधि संस्थानों की कार्य प्रणाली में नैतिक पैमानों की बात की जाती है. अर्थात उत्तरदायित्व नागरिकों का और नैतिकता और उससे जुड़े अधिकार सरकार के. जरा गौर कीजिये क्या हम लोकतंत्र के युग में हैं?

(सुधीर कुमार सुथार जेएनयू शिक्षक संघ के सेक्रेटरी हैं.)

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