रोजगार नहीं है. उत्पादन घट गया है. किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नसीब नहीं हो रहा है. हेल्थ सर्विस चौपट हो चली है. शिक्षा-व्यवस्था डांवाडोल है. मुस्लिम ख़ामोश हो गया है. दलित चुपचाप है लेकिन आवाज़ नहीं उठनी चाहिए क्योंकि देश में क़ानून अपना काम कर रहा है.
क्या जयप्रकाश नारायण आज होते तो माफी मांगते. क्या राम मनोहर लोहिया आज होते तो माफी मांगते. क्या वीपी सिंह आज होते तो माफी मांगते. क्या प्रणव मुखर्जी सोच रहे होंगे कि गलती हो गई. शायद ये सारे सवाल बेमानी है.
क्योंकि वक्त बदल चुका है और बदले हुए वक्त तले ये सवाल लगातार बड़ा होता जा रहा है कि आजादी के वक्त क्या चर्चिल का टिप्पणी सही थी कि ‘भारत को आजादी मिल जाएगी लेकिन ये शासन चलाना नहीं जानते.’
तब का संदर्भ कांग्रेस और मुस्लिम लीग को लेकर रहा होगा. हो सकता है तब चर्चिल के जेहन में हिंदू महासभा भी रही हो लेकिन 71 बरस बाद कैसे आजादी, संविधान, लोकतंत्र और शायद आपातकाल की भी परिभाषा बदल गई ये किसी ने सोचा ना होगा. दोष सिर्फ तत्काल का नहीं है लेकिन सफर जब किसी मुकाम पर पहुंचता है तो कटघरे में वही वक्त होता है.
हालात को परखने से पहले एक बार पन्नों को पलटकर 43 बरस पहले 1975 में लौटना होगा क्योंकि तब पहली बार इस देश ने संविधान का महत्व समझा था. यानी संविधान अगर सत्ता तले गिरवी हो जाये तो आम नागरिक कैसे बिलबिलाते हैं और संवैधानिक संस्थान कैसे सत्ता की ताकत बन जाते हैं.
सिस्टम कैसे वर्दीधारियों के बूटों तले सत्ता के इशारे पर रौदा जाता है. सब कुछ तो याद होगा उस पीढ़ी को जिसने आपातकाल के खिलाफ संघर्ष किया और काल कोठरी में 18 महीने बिताए. कतार लंबी है स्वयसेवकों की भी. पर तब हुआ क्या था?
सुनिएगा तो हंसिएगा. जो सवाल न्यायापालिका के सामने 1975 में उठे और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को कठघरे में खड़ा कर दिया, वही सवाल अब सत्ता- व्यवस्था का हिस्सा बन चुके हैं. तो देश भी अभ्यस्त हो चुका है.
यानी 1975 के सवाल बीतते वक्त के साथ कैसे महत्व खो चुके हैं या फिर सिस्टम का हिस्सा बना दिए गए, इसे देश में कोई महसूस कर ही नहीं पाता है क्योंकि संविधान की जगह पार्टियों के चुनावी मैनिफेस्टो ने ले ली है.
वक्त के साथ अंधेरा इतना घना हो गया कि किसी ने आकर कोई भी सपना दिखा दिया नागरिक उसे सच मान बैठे. क्योंकि सिस्टम और संविधान कहा मायने रखता है.
इस एहसास को इसलिए समझे क्योंकि 1975 के बाद जन्म लेने वाले भारतीय नागरिकों की तादाद मौजूदा वक्त में दो तिहाई है. यानी 80 करोड़ लोगों को पता ही नहीं कि इमरजेंसी होती क्या है.
याद कीजिये 26 जून की सुबह 8 बजे आकाशवाणी से इंदिरा गांधी का संदेश, ‘राष्ट्रपति ने आपातकाल की घोषणा की है. इसमें घबराने की जरूरत नहीं है…’ तो हर सत्ता हर हालात को लेकर कुछ इसी तरह कहती है. घबराने की जरूरत नहीं है.
आपके जेहन में नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्राइक आये या फिर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी को लेकर उठते सवाल आएं और आप सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से राहत महसूस कर रहे हैं कि सत्ता से विरोध के स्वर को लोकतंत्र में सेफ्टी वाल्ब का काम करते हैं, उससे पहले याद कीजिए 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद से लेकर 25 जून 1975 तक देश में हो क्या रहा था और वह कौन से सवाल थे, जिसे अदालत सही नहीं मानता था और इंदिरा गांधी ने सत्ता छोड़ने की जगह देश पर इमरजेंसी थोप दी.
12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सिन्हा ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (7) के तहत दो मुद्दों पर इंदिरा गांधी को दोषी माना. पहला, रायबरेली में चुनावी सभाओं के लिए मंच बनाने और लाउडस्पीकर के लिए बिजली लेने में सरकारी अधिकारियों का सहयोग लेना.
दूसरा, भारत सरकार के अधिकारी जो पीएमओ में थे, यशपाल कपूर की मदद चुनाव प्रचार में लेना. तो अब चुनाव में क्या-क्या होता है और बिना सरकारी सहयोग के क्या सत्ता कोई
भी चुनाव लड़ती है. ये कम से कम वाजपेयी-मनमोहन-मोदी के दौर को याद करते हुए कोई भी सवाल तो कर ही सकता है.
इस दौर ने तो पीवी नरसिम्हा राव का सत्ता बचाने के लिए झामुमो घूस कांड भी देख लिए. मनमोहन के दौर में भाजपा का संसद में करोड़ों के नोट उड़ाने को भी परख लिया. यानी आप ठहाका लगाएंगें कि क्या वाकई देश में एक ऐसा वक्त था जब पीएमओ के किसी अधिकारी से चुनाव के वक्त पीएम मदद लें और चुनावी प्रचार के वक्त सरकारी सहयोग से मंच और लाउडस्पीकर के लिए बिजली ली जाये तो अपराध हो गया.
इतना ही नहीं आज के दौर में जब चुनाव धन-बल के आधार पर ही लड़ा जाता है तो 1971 के चुनाव को लेकर अदालत 1975 में ये भी सुन रही थी कि क्या इंदिरा गांधी ने तय रकम से ज्यादा प्रचार में खर्च तो नहीं किए.
वोटरों को रिश्वत तो नहीं दी. वायुसेना के जहाज-हेलीकॉप्टर पर सफर कर चुनावी प्रचार तो नहीं किया. चुनाव चिह्न गाय-बछड़े के आसरे धार्मिक भावनाओं से खेल कर लाभ तो नहीं उठाया.
43 बरस में भारत कितना बदल गया ये सत्ता के चुनावी मिजाज से ही समझ जा सकता है. जहां धर्म के नाम पर सियासत खुल कर होती है. हिंदुत्व चुनावी जुमला है. सरकारी लाभ उठाना सामान्य सी बात है.
जब समूची सरकार ही चुनाव जीतने में लग जाती हो और सत्ताधारी पार्टी गर्व करती हो कि उसके पास मोदी सरीखा प्रचारक है तो फिर अधिकारियों की कौन पूछे. फिर अब के वक्त तो खर्च की कोई सीमा ही नहीं है.
हर चुनाव के बाद चुनाव आयोग के आंकड़े सबूत हैं लेकिन नया सवाल तो उसके आगे का है. संविधान देश में लागू है. संवैधानिक संस्थाएं काम कर रही हैं. पुलिस-प्रशासन सक्रिय है. सिस्टम बना हुआ है. स्कूल कॉलेज चल रहे हैं. यूनिवर्सिटी में पढ़ाई जारी है लेकिन जो जैसे चल रहा है उससे आप नाराज नहीं हो सकते.
अगर संवैधानिक संस्थान सत्ता के हक को लेकर सक्रिय हैं तो आप सवाल नहीं कर सकते हैं कि आखिर सीबीआई, ईडी, सीवीसी, सीआईसी, कैग, यूजीसी, चुनाव आयोग यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के भीतर से भी आवाज आए कि लोकतंत्र को खतरा है लेकिन आवाज उठनी नहीं चाहिए.
रोजगार नहीं है. उत्पादन कम हो गया है. किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नसीब नहीं हो रहा है. हेल्थ सर्विस चौपट हो चली है. शिक्षा व्यवस्था डांवाडोल है लेकिन आवाज उठनी नहीं चाहिए.
मुस्लिम खामोश हो गया है. दलित चुपचाप है. गरीब की बोलती तो पहले से बंद थी. अब सभी के हक की लड़ाई सत्ता और सरकार लड़ रही है. योजनाएं बना रही है. सत्ता कल्याणकारी सोच के साथ है. उसे गरीबी का मतलब पता है.
घर-घर रोशनी की जा रही है. एक दो नहीं सेंचुरी पार कर योजनाओं का ऐलान हुआ है. पर कुछ हो क्यों नहीं पा रहा. हालात बदतर क्यों हो रहे हैं. आवाज होनी नहीं चाहिए. क्योंकि देश में संविधान अपना काम कर रहा है.
तो क्या 43 बरस में चुनावी लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल गई है. या कहे इमरजेंसी के दौर में जो सवाल संविधान के खिलाफ लगते या फिर गैर कानूनी माने जाते थे, वही सवाल सियासी तिकड़मों तले 43 बरस में ऐसे बदलते चले गये कि भारत के नागरिक ही हालातों से समझौता करने लगे.
क्योंकि 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द किया था. छह बरस तक प्रतिबंध लगाया था. तब इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट से फैसला अपने हक में कराया और सत्ता में बने रहने के लिए इमरजेंसी थोप दी.
फिर 1975 में 12 से 25 जून तक जो दिल्ली की सड़क से लेकर जिस सियासत की व्यूह रचना तब 01, सफदरजंग रोड पर होती रही. उसे इतिहास में काले अक्षरों में लिखा जाता है. लेकिन वैसी ही तिकड़में उसके बाद सियासत का कैसे हिस्सा बनते-बनते लोगों को अभ्यस्त कराते चली गई. इस पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया.
क्योंकि याद कीजिए 20 जून 1975. कटघरे में खड़ी इंदिरा गांधी के लिए कांग्रेस का शक्ति प्रदर्शन. सत्ता के इशारे पर बस ट्रेन सब कुछ झोक दिया गया. चारों दिशाओं से इंदिरा स्पेशल ट्रेन-बस दिल्ली पहुंचने लगी.
लोगों को ट्रैक्टर-कार-बस-ट्रक में भरभरकर बोट क्लब पहुंचाया गया. पूरी सरकारी अमला जुटा था. संजय गांधी खुद समूची व्यवस्था देख रहे थे. इंदिरा की तमाम तस्वीरों से सजे 12 फुट ऊंचे मंच पर जैसे ही इंदिरा पहुंचती हैं गगनभेदी नारे गूंजने लगते हैं.
माइक संभालते ही इंदिरा कहती हैं, ‘…देश के भीतर-बाहर कुछ शक्तिशाली तत्व उनकी सत्ता पलटने का षडयंत्र रच रहे हैं. इन विरोधी दलों को समाचारपत्रों का समर्थन प्राप्त है और तथ्यों को बिगाड़ने और सफेद झूठ फैलाने की इन्हें अनोखी आजादी प्राप्त है. सवाल ये नहीं है कि मै जीवित रहूं या मर जाती हूं. सवाल राष्ट्र के हित का है.’
25 मिनट के भाषण को दिल्ली दूरदर्शन लाइव करता है. आकाशवाणी से सीधा प्रसारण होता है. यानी अब का दौर और तब का दौर. क्या तब था अब क्या है, ये बताने की जरूरत
नहीं है.
कैसे सैकड़ों चैनलों से लेकर डिजिटल मीडिया तक सत्तानुकुल हैं. कैसे किसी भी चुनाव रैली को सफल दिखाने के लिए ट्रेन-बस-ट्रकों में भरभरकर लोगों को लाया जाता है. चुनावी बरस में सरकारी खर्च पर प्रचार-प्रसार किसी से छुपा नहीं है.
अब याद कीजिए रामलीला मैदान की 25 जून 1975 की तस्वीर जब जेपी की रैली हुई. लाखों की संख्या में लोग सिर्फ जेपी के एक ऐलान पर चले आये.
जेपी ने अपने भाषण में कहा, ‘छात्र स्कूल-कॉलेजो से निकल आएं और जेलों को भर दें. पुलिस और सेना गैरकानूनी आदेशों का पालन ना करें.’
तब जेपी को देशद्रोही करार देने में सत्ता तनिक भी देर नहीं लगाती. बकायदा दुनियाभर में भारत के दूतावासों तक में ये जानकारी भेजी जाती है कि जेपी सेना को उकसा रहे हैं. उनके खिलाफ देशद्रोह का मामला है. पर अब कौन कितना किस रूप में देशद्रोही है ये बताने दिखाने में कहा और किसे हिचक है.
संविधान लागू है. कानून अपना काम कर रहा है. इस बेहतरीन लाइन से बेहतर और क्या हो सकता है. ये अलग बात है तब जेपी के भाषण की रौ में कोई बह ना जाये तो दूरदर्शन पर फिल्म बॉबी दिखायी गई थी.
और अब घर-घर लगे टीवी चैनलों में बॉबी से ज्यादा बेहतरीन फिल्में तो मुनाफे के लिए हमेशा चलती रहती हैं. लेकिन संविधान देश में लागू है और कानून अपना काम कर रहा है. ये बताने के लिए जी-तोड़ मशक्त न्यूज चैनलों में चलती है. जो फिल्म बॉबी से ज्यादा घांसू होती है.
विपक्ष को अब भी तमीज नहीं आयी है कि वह इन बहस में शामिल होकर क्या बताने जाता है. यानी सत्ता के डायनिंग टेबल पर जायके का मजा लेते हुए कोई कहे जायका ठीक नहीं तो फिर देश के भूखे-नंगे या गरीबों के लिए वह विपक्ष भी खलनायक नहीं होगा तो क्या होगा?
इमरजेंसी लगने से एक दिन पहले 24 जून की रात में 400 वारंट पर हस्ताक्षर हुए. इसके बाद विरोधी नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश 25 की सुबह 10 बजे तक भेजे भी जा चुके थे.
यानी कैसे देश इमरजेंसी की तरफ बढ़ रहा था और कैसे इंदिरा की सत्ता एडवांस में ही हर निर्णय ले रही थी और इसमें समूची सरकारी मशानरी कैसे लग जाती है. यह हो सकता है आज कोई अजूबा ना लगे. क्योंकि हर सत्ता ने हर बार कहा कि जनता ने उसे चुना है तो उसे गद्दी से कोई कानून उतार नहीं सकता. ये बात इंदिरा गांधी ने भी तब कही थी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)