कोलकाता में किराए के घर के लिए मुस्लिम होना मना है!

बरसों से कोलकाता में मुस्लिमों के लिए किराए का घर तलाशना एक मुश्किल चुनौती रहा है. बीते कुछ समय में राजनीतिक दलों द्वारा सांप्रदायिक खाई गहरी कर देने से ये समस्या और गंभीर हो चली है.

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बरसों से कोलकाता में मुस्लिमों के लिए किराए का घर तलाशना एक मुश्किल चुनौती रहा है. बीते कुछ समय में राजनीतिक दलों द्वारा सांप्रदायिक खाई गहरी कर देने से ये समस्या और गंभीर हो चली है.

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(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

रोटी, कपड़ा और मकान को दुनियाभर में जिंदगी की अनिवार्य जरूरतों के तौर पर स्वीकार किया जाता है. ऐसे में जबकि देश अपनी आजादी के 73वें साल का स्वागत कर रहा है, यह उम्मीद की जा सकती है कि देश के हर नागरिक की पहुंच इन बुनियादी जरूरतों तक होगी.

लेकिन, अगर आप मुस्लिम हैं और कोलकाता शहर में रहने के लिए एक घर की तलाश कर रहे हैं, तो आपके लिए मामला बिल्कुल अलग होगा.

जाधवपुर विश्वविद्यालय में सामाजिक विज्ञान के शोधार्थी लबनी जंगी कहती हैं, ‘मुझे नए घर की तलाश करनी है और मैं इसके लिए कमर कस रही हूं. मैं क्या करने जा रही हूं? एक मानसिक जख्म फिर से मेरे दिमाग में ताजा हो रहा है.’

जंगी पहली बार 2011 में अपनी विश्वविद्यालय की पढ़ाई के लिए कोलकाता आईं थीं. वे नोडिया जिले में स्थित अपने गांव से जाधवपुर आने-जाने के लिए रोज आठ घंटे का सफर तय करती थीं. तीन महीने तक रोज-रोज की कोशिशों के बावजूद शहर में कोई घर किराए पर लेने में नाकाम रहने पर जंगी को आखिरकार एक मेस में पनाह मिली, मगर इसके लिए उन्हें अपने नाम का बाद वाला हिस्सा छिपाना पड़ा.

उन्हें माकपा के प्रति झुकाव रखने वाले लोगों के साथ सुरक्षा का एहसास हुआ, जिनमें से कई उनके ही विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे.

वहां पहली रात को ही सारे लोग बातचीत के लिए जमा हुए और यहीं उनके सह-निवासियों को उनके मजहब के बारे में पता चला. जंगी कहती हैं, ‘उस क्षण वे सब उछल पड़े, उनकी आंखें खुली की खुली रह गयीं, जैसे उन्होंने कोई डरावनी चीज देख ली हो.’

उनमें से एक मकान मालकिन के दरवाजे को पीटने लगी, वह यह जानना चाहती थी कि आखिर एक मुस्लिम को ‘उनके मेस’ में आने की अनुमति क्यों दी गई है. जंगी बताती हैं कि उनकी रूममेट हर रात रोते-रोते सोती थी. उसके लिए एक मुस्लिम के साथ एक ही कमरे में रहना डरावना था.

आफताब आलम और उनके तीन दोस्तों को शहर में ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा. हालांकि इन डॉक्टरों ने कुडघाट में एक मकान किराए पर ले लिया था और उनका मकान मालिक नेक स्वभाव का था, लेकिन एक ब्राह्मण पड़ोसी ने तूफान खड़ा कर दिया.

पहले, उसे इनके बैचलर-अविवाहित-होने से दिक्कत थी. फिर जब उसे उनके मजहब का पता चला, उसने इन्हें कथित तौर पर आतंकवादी कहकर बुलाया. उसने इनके दोस्तों को परेशान करना शुरू कर दिया और वह हर आने-जाने वाले से उनकी पहचान का प्रमाण मांगा करता था और उन्हें पुलिस में लेकर जाने की धमकी देता था.

इसके बाद ही आलम ने फेसबुक पर इस किराएदारी की समस्या पर एक पोस्ट डाली. इसके बाद ही समिरुल इस्लाम का ध्यान इस तरफ गया.

इस्लाम संहति अभिजन के सदस्य हैं. उनका कहना है कि इस समूह का निर्माण समाज में होने वाले भेदभाव, खासतौर पर मजहब और किराएदारी को लेकर होने वाले भेदभाव से लड़ाई लड़ने के लिए किया गया.

उन्हें भी 2006 में कोलकाता आने के बाद अपने हिस्से की समस्याओं का सामना करना पड़ा था. यह उस समय की बात है जब माकपा के नेतृत्व में वाम-मोर्चा की सरकार राज्य में थी.

वे कहते हैं, ‘इस शहर के मुसलमानों के लिए यह उनके रोजमर्रा के जीवन का स्वाभाविक हिस्सा हो गया है. लेकिन यह एक ऐसी चीज है, जिसे कभी भी सामान्य नहीं होना चाहिए.’

एक बैंक मैनेजर से इंजीनियरिंग के पांच छात्रों तक कई मामले उनकी जुबान पर हैं. पश्चिम बंगाल देश के कुछ बचे-खुचे गैर भाजपाई राज्यों में से एक है. सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस पर अक्सर हिंदुओं द्वारा मुस्लिमों के तुष्टीकरण का आरोप लगता है.

इस तुष्टीकरण को ममता बनर्जी द्वारा उनके भाषणों में ‘इंशाअल्लाह’ के प्रयोग, मुस्लिमों के त्योहारों में हथेली खुली रखकर इबादत करने में और सबसे विवादास्पद तरीके से मुस्लिम मौलवियों को भत्ता देने में देखा जाता है.

लेकिन वास्तव में मुस्लिम एक मांग में रहने वाला वोटबैंक हैं- 27 प्रतिशत आबादी के साथ बंगाल मुस्लिमों के सबसे ज्यादा प्रतिशत वाले राज्यों में से एक है.

संहति अभिजन की एक और सदस्य कस्तूरी बसु कहती हैं, ‘यह कहना कि तृणमूल तुष्टीकरण की राजनीति करती है मूर्खतापूर्ण है… तृणमूल एक काफी लोकलुभावनवादी पार्टी है यह लोकलुभावनवादी नारों पर काम करती है. पश्चिम बंगाल में मुस्लिमों की हालत वास्तव में बहुत खराब है और तृणमूल के शासन में इसमें कोई बदलाव नहीं आया है.’

2016 में नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के प्रतीचि इंस्टीट्यूट एंड एसोसिएशन-एसएनएपी ने पश्चिम बंगाल में मुस्लिमों के सामाजिक-आर्थिक हालातों पर एक रिपोर्ट जारी की थी.

इस रिपोर्ट को जारी करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा था, ‘गरीबों की आबादी में मुस्लिमों का अनुपात काफी ज्यादा है. यह तथ्य कि पश्चिम बंगाल के मुस्लिम गैर-अनुपातिक ढंग से गरीब हैं और जीवन स्थितियों के हिसाब से ज्यादा वंचित हैं, एक अनुभवजन्य स्वीकृति है, जो इस रिपोर्ट को अनिवार्य तात्कालिकता और व्यावहारिक महत्व प्रदान करता है.’

इसी शहर में भौतिकी से पीएचडी कर रहे नूर अमीन हक कहते हैं, ‘न तो तृणमूल कांग्रेस और न माकपा ने कभी मुस्लिम किरायेदारी के मसले को उठाया और दोनों ही सरकारों में यह समस्या वैसी की वैसी बनी रही हैं.’

लेकिन उन्हें इस बात का डर है कि देश में भाजपा का उभार मुस्लिम विरोधी भावनाआें को भड़का रहा है. वे कहते हैं कि अब मुस्लिम विरोधी टिप्पणियां खुलेआम सुनी जा सकती हैं. कई लोग यह कहते पाए जाते हैं कि भाजपा मुस्लिमों को देश से बाहर कर देगी.

हमें खासतौर पर अनवर शाह रोड जैसे मुस्लिम इलाकों में ऐसी बहसों को सुनने की आदत हो गयी है. वे मुस्लिमों को मुल्लार बच्चा कह कर पुकारते हैं. वे कहते हैं कि हमारा खून उबल रहा है, जिसे भाजपा ठंडा करेगी.

मुल्लार बच्चा का सीधा सा अर्थ है मुस्लिम मुल्ले का बच्चा, जो पश्चिम बंगाल में किसी तरह से अपमानजनक शब्द है.

‘मैं विरोध भी नहीं कर सकता हूं. अगर मैं विरोध करता हूं और मैं अकेला होऊं, तो मुझे कुछ हो सकता है. मैं मनाता हूं कि मुझे कुछ नहीं होगा, लेकिन एक डर तो रहता ही है. मेरे माता-पिता भी मुझसे कहते हैं कि लोगों के बीच सावधानी से रहो और कुछ भी ऐसा मत कहो, जो तुम्हें मुश्किल में डाल दे.’

लबनी जंगी कहती हैं कि त्रिपुरा में भाजपा की जीत के बाद, पड़ोस के एक शिक्षक उनकी मकान मालकिन से बात करने आए. उन्होंने जंगी की मकान मालकिन से कहा कि भाजपा को जीतना इसलिए जरूरी है ताकि मुस्लिमों को भी रोहिंग्याओं की तरह बाहर निकाला जा सके. मुस्लिम लोग सर्वव्यापी हो गए हैं और वे ही इस देश की दुर्दशा का प्रमुख कारण हैं.

जंगी की आवाज भर्रा जाती है, जब वे कहती हैं, ‘कुछ दिन पहले लालगोला ट्रेन में मेरा सामना पिटाई पर आमादा भीड़ से हुआ. हमला बस होते-होते बचा. उसके बाद से मैं थोड़े-थोड़े घंटों में अपने भाई को फोन करती रहती हूं. वह कोलकाता में हो या ट्रेन में, मैं उसके पता-ठिकाने के बारे में पूरी जानकारी रखना चाहती हूं. क्योंकि ट्रेन की घटना ने मेरे अंदर एक डर भर दिया है कि हमारे साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है.’

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(फोटो क्रेडिट: Sounak Biswas/Flickr)

कस्तूरी बसु कहती हैं कि भाजपा बंगाल मैं पहले से मौजूद तनावों को हवा देकर आग को और भड़का रही है. ‘बंगाल के पास अपनी समस्याओं की कमी नहीं है. विभाजन का आघात अभी तक मौजूद है. सीमा रेखा के पास वाले इलाकों में लोग बड़ी संख्या में आव्रजकों के आने से बेचैन हैं. हमारे पास अपनी समस्याओं की बड़ी गठरी है. भाजपा समाज में पहले से मौजूद दरारों का इस्तेमाल कर रही है.’

बसु कहती हैं, एक तरफ भाजपा त्योहारों का सांप्रदायीकरण कर रही है और दूसरी तरफ नए त्योहार शुरू किए जा रहे हैं. पहले रामनवमी का आयोजन छिटपुट तरीके से होता था, भाजपा ने राज्य में रामनवमी का भव्य आयोजन शुरू किया है जिसमें हथियारों के साथ जुलूस निकाले जाते हैं, जिन्हें तय रास्तों से अलग रास्तों से गुजरा जाता है. इस साल में इससे होने वाली हिंसा में तीन लोग मारे गए.

बसु कहती हैं, ‘वे जानबूझकर लोगों को उकसाने के लिए मुस्लिम बहुल इलाकों से जाने की कोशिश करते हैं. अगर एक जगह भी पलट कर जवाब दिया गया, तो इससे वे काफी राजनीतिक फायदा उठा लेंगे. उसके बाद वे कह सकेंगे कि बंगाल में हिंदू खतरे में हैं.’

इसके जवाब में तृणमूल कांग्रेस ने भी न सिर्फ रामनवमी बल्कि हनुमान जयंती की भी झांकियां निकालती है. कुछ लोगों का कहना है कि यह भाजपा के ही खेल से हिंदू वोटों को छिटकने से रोकने का उनका तरीका है.

जंगी कहती हैं, ‘आप उन लोगों को राजनीतिक साजिशों और धार्मिक उत्पीड़न की समस्याओं के बारे में कैसे बता सकती हैं, जो खुद अपने घर में किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति का स्वागत नहीं करना चाहते हैं. क्या हम इन लोगों से धर्म निरपेक्ष शासन-व्यवस्था के लिए संघर्ष करने की उम्मीद कर सकते हैं? वे ऐसा क्यों करेंगे? वे उसी तर्ज पर एक हिंदू राष्ट्र चाहेंगे, जैसे वे एक हिंदू घर चाहते हैं, एक हिंदू पड़ोस चाहते हैं.’

जंगी यह नहीं मानतीं कि दोष सिर्फ मकान मालिकों या मकान मालकिनों का है. वे अपने विश्वविद्यालय के दोस्तों को भी जिम्मेदार ठहराती हैं.

उनका कहना है कि राजनीतिक तौर पर काफी सक्रिय होने के बावजूद उनके ‘कॉमरेडों’ ने किराएदारी के मसले को लेकर कोई आंदोलन शुरू नहीं किया है, जिसका सामना उनके साथियों को साल-दर-साल करना पड़ता है.

इसकी जगह उस पर ही पहचान की राजनीति करने और अपनी निजी समस्या का रोना रोते रहने का आरोप लगाया जाता है. लेकिन वे कहती हैं कि जब मध्यवर्गीय हिंदू पहचान वाले पत्रकार ये कहानियां ही सुनाते हैं, तब उन पर ऐसा कोई आरोप नहीं लगाया जाता है.

उन्होंने कहा, ‘सूर्यतपा इससे भी बढ़कर बात यह है कि जब आप किराए पर घर खोजने के क्रम में अपना पूरा नाम कहेंगी, तब आपको इसका सामना नहीं करना पड़ेगा. आपकी पहचान का पता चलने पर आपके दोस्त इस तरह से नहीं उछल पड़ेंगे कि गोया आप किसी चिड़ियाघर से भागी हुईं जानवर हैं, जो उनकी जगह में अनाधिकार घुसना चाह रहा है. आपको कभी भी उसका सामना नहीं करना पड़ेगा.’ और वह गलत नहीं हैं.

वे निराशा में भरकर कहती हैं, ‘हो सकता है कि आप इसके बारे में लिखें, हो सकता है कि कुछ सौ लोग इस स्टोरी को पढ़ें, लेकिन इससे कुछ भी नहीं बदलेगा.’ लेकिन बढ़ती हताशा के बीच, जंगी संहति अभिजन को एक उम्मीद की किरण के तौर पर देखती हैं.

शहर में आ रहे युवाओं के पास इसके रूप में एक मंच है, जो जुबानी जमा खर्च से आगे बढ़कर काम करता है. उन्होंने एक नए आंदोलन की शुरुआत की है, पहले के लोगों के लिए जिसका अस्तित्व नहीं था.

संहति अभिजन किराएदारी की समस्या के टिकाऊ समाधानों में लगा है. यह पड़ोस के इलाकों में जाकर लोगों से बात करता है और उनसे अपनी सोच बदलने के लिए कहता है. यह तरीका अक्सर कारगर साबित होता है और सामान्य तौर पर ज्यादातर लोग अपनी जिद छोड़ देते हैं.

यह बेदखली की कगार पर खड़े मुस्लिमों के लिए एक रहने लायक माहौल तैयार करता है. उन्होंने इसी तरह से आफताब आलम और उनके साथियों को उनके कुदघाट वाले फ्लैट में रहने देने में मदद की.

मकान किराए पर देनेवालों/मकान मालिकों द्वारा इस तरह के धार्मिक भेदभाव को रोकने के लिए कोई कानून नहीं है. यह उनके अपने निजी विवेकाधिकार पर निर्भर करता है. बसु कहती हैं कि यह भारतीय संविधान का उल्लंघन है और किराया सार्वजनिक और निजी के बीच की अंधेरी जगह है. इसलिए यह समूह अब अल्पकालिक समुदाय आधारित समाधानों पर जोर दे रहा है और ऐसी घटनाओं के आंकड़े इकट्ठा कर रहा है.

दीर्घावधिक समाधान के तौर पर वे कानून को चुनौती देकर मकान मालिकों द्वारा किए जाने वाले धार्मिक भेदभाव को गैरकानूनी साबित करके इस समस्या का कानूनी समाधान निकालने की कोशिश कर रहे हैं

बसु कहती हैं, ‘बंगाल के नागरिक समाज और साधारण आम आदमियों के सामने एक बड़ी चुनौती है. सबके आगे बढ़ने से ही इस पर विराम लगेगा.’

 

(सूर्यतपा मुखर्जी,  राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर लिखती हैं. वे कार्डिफ यूनिवर्सिटी से इंटरनेशनल जर्नलिज्म में एमए हैं.)

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