गोरक्षा के नाम पर देश भर में मुस्लिमों के साथ हिंसा की घटनाएं नई नहीं हैं. हाल के समय में बढ़ी लिंचिंग की घटनाओं और उनकी रिपोर्टिंग के पीछे ज़रूरी तौर पर भारतीय समाज में आया कोई बुनियादी बदलाव नहीं, बल्कि कुछ हद तक इसके लिए इंटरनेट के विस्तार की भूमिका है.
हाल के वर्षों में मुस्लिमों की पीट-पीटकर हत्या (लिंचिंग), खासकर ‘मवेशी’ रक्षा के बहाने हुई लिंचिंग की घटनाओं में बढ़ोतरी देखी गई है. पिछले कुछ सालों में ऐसी दर्जनों हत्याएं हुई हैं.
मुस्लिमों पर कथित गोकशी के अलावा दूसरे कारणों से या गैर-मुस्लिमों- ख़ासतौर पर दलितों और आदिवासियों की- तुच्छ आरोपों के चलते लिंचिंग की घटनाएं इससे अलग हैं. फिर भी ‘गोरक्षा’ वह मुख्य बहाना है, जिसकी आड़ में पिछले कुछ वर्षों में मुस्लिमों को पीट-पीटकर मार देने की कई घटनाएं सामने आई हैं.
इनमें से ज्यादातर हमलों में एक चीज समान थी और वह थी संख्या के मामले में एक पक्ष का पलड़ा असंतुलित ढंग से झुका रहना. तीन या चार लोगों पर सामान्य तौर पर दर्जनों या सैकड़ों की भीड़ हमला करती है.
हमलावरों को उनके समर्थकों या उनसे सहानुभूति रखनेवालों की एक बड़ी भीड़ घेरे रहती है, जिनमें से कुछ लिंचिंग की फोटो खींचते हैं या उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग करते हैं. यह कह सकते हैं कि ऐसा करने में एक ऐसा सुख शामिल है, जो वास्तव में हिंसा करनेवालों को और प्रोत्साहित करता है.
इन लिंचिंग की घटनाओं की एक अन्य सामान्य विशेषता यह कही जा सकती है कि लिंचिंग के ज्यादातर मामले दूरस्थ इलाकों, राजमार्गों और गांवों में हुए. इन इलाकों में कानून और व्यवस्था की प्रणाली कमजोर और ढीली-ढाली होती है और बहुत दिलेर पुलिसकर्मियों का दल भी ऐसी हिंसा को रोकने के लिए घटनास्थल पर समय पर नहीं पहुंच सकता.
एक विचित्र संयोग यह है कि कई बार इन हमलों में गायों की वास्तव में कोई भूमिका नहीं होती है. दादरी में मोहम्मद अख़लाक़ को पका हुआ मीट रखने के नाम पर पीट-पीटकर मार दिया गया, जो शायद भैंस का था.
कई ऐसे भी मामले हैं जिनमें पीड़ितों को गोमांस रखने के किसी सबूत के न होने या उनके साथ कोई गाय न होने के बावजूद भी मार डाला गया. गोरक्षा के नाम पर लगभग सभी मवेशियों, फार्म और पॉल्ट्री पशुओं की हिंदुत्ववादी शक्तियों द्वारा रक्षा की जा रही है और इस क्रम में मुसलमानों के ख़िलाफ़ एकतरफ़ा हिंसा को अंजाम दिया जा रहा है.
उदारवादी और ‘सेकुलर’ जमातों का ऐसा मानना है कि भाजपा के लगातार मजबूत होने के कारण इसके कैडर ज्यादा से ज्यादा बेखौफ आर कट्टरपंथी होते गए हैं.
भारतभर में कई अर्ध-स्वतंत्र ‘गोरक्षा’ संगठन और गोरखधंधे अस्तित्व में आ गये हैं, जिन्हें स्थानीय नेताओं का संरक्षण हासिल है, जिस कारण से वे क़ानून के खौफ़ के बगैर लोगों की हत्या करने, उन्हें अपंग करने और जख्मी करने में सक्षम हैं.
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
हालांकि ऐसी बातें पूर्वानुमानों पर आधारित हैं, जिन पर उचित तरीके से सवाल नहीं किए गए हैं. पहली बात, यह मान लिया गया है कि सिर्फ भाजपा ही गोवध के ख़िलाफ़ है और वह इसका इस्तेमाल अप्रत्याशित ढंग से एक भावनात्मक प्रतीक के तौर पर करती है. यह धारणा पूरी तरह से गलत है, वो इसलिए क्योंकि पिछले सात दशकों में देश भर में गोरक्षा संबंधी क़ानूनों को कांग्रेस ने लागू किया है.
दूसरी बात, यह मान लिया जाता है कि 2014 से पहले लिंचिंग की घटनाएं उतनी आम नहीं थीं. हालांकि यह धारणा सच हो सकती है, लेकिन इस निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए कुछ ऐतिहासिक शोध की भी दरकार है. उदाहरण के लिए ऐसा हो सकता है कि लिंचिंग की घटनाएं पहले भी होती रही हों, लेकिन उनका वर्गीकरण दूसरी तरह से किया जाता हो.
तीसरी बात, भाजपा द्वारा हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का एक नतीजा सिर्फ मुस्लिमों की लिंचिंग में वृद्धि के तौर पर दिखाई देना चाहिए था, मगर ‘बच्चा चोरी’ के आरोप में लोगों की लिंचिंग के मामले में बढ़ोतरी की वजह यह नहीं हो सकती.
जहां तक पहली धारणा का सवाल है, विभिन्न गोरक्षा कानूनों पर एक सरसरी-सी निगाह डालने पर भी पता चलता है कि ये कांग्रेस द्वारा पारित किए गए थे. इस तरह से इस मामले में भाजपा के अलग या अकेले होने की कोई भी धारणा तुरंत खंडित हो जाती है.
1990 के शुरुआती सालों से ही कांग्रेस गोरक्षा को आगे बढ़ाते हुए हिंदुओं को गोरक्षा के लिए प्रोत्साहित कर रही है, भले ही इसका मतलब मुस्लिमों से हिंसक तरीक़े से गाय छीनना ही क्यों न हो.
गोवध के नाम पर मुस्लिमों पर हमलों का सिलसिला काफ़ी पहले 1890 के दशक में ही शुरू हो गया था, जैसा मोहम्मद सज्जाद अपनी किताब मुस्लिम पॉलिटिक्स इन बिहार : चेंजिंग कंटूर्स में चर्चा करते हैं.
कांग्रेस भी शुरुआत में ही इस आंदोलन का हिस्सा बन चुकी थी. इस संदर्भ में हमें या किसी को भी हिंद स्वराज में महात्मा गांधी की प्रसिद्ध टिप्पणी को नहीं भूलना चाहिए: ‘एक व्यक्ति एक गाय के बराबर ही उपयोगी है, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि वह मुस्लिम है या हिंदू है.’
भले यह टिप्पणी ‘गोरक्षा के नाम पर इंसानों की हत्या के विरोध में की गई हो, लेकिन इसकी भाषा व्याप्त गोरक्षा भावनाओं के बारे में काफ़ी कुछ बयान करती है.
इस संदर्भ और होम रूल स्वराज के लिए कांग्रेस की गोलबंदी के संदर्भ में, पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में 1917 में बकरीद के मौके पर हुए बड़े हमलों को समझा जा सकता है, जिसके बारे में सज्जाद ने चर्चा की है.
मुस्लिमों पर ऐसे हमले विभाजन से पहले लगभग हर बकरीद पर (1926, 1928, 1934, 1937,1938, 1939) और विभाजन के बाद (1947-51, 1951, 1955,1966,1968) हुए हैं. 1946 में दक्षिण बिहार में मुस्लिमों पर हुआ हमला भी बकरीद के एक दिन पहले किया गया, जिसमें हजारों मुस्लिम मारे गए थे.
संक्षेप में कहा जाए, तो कांग्रेस द्वारा बनाए गए संविधान में भी संविधान सभा के आदिवासी और मुस्लिम सदस्यों के विरोध के ख़िलाफ़ जाकर गोरक्षा का समावेश किया गया था.
बंटवारे के बाद के वर्ष मुस्लिमों के लिए काफ़ी खतरनाक थे जो बकरीद के मौके पर कुर्बानी की प्रथा को निभाना चाहते थे. नई मिली शक्ति के बल पर स्थानीय हिंदू संगठनों ने, जिनकी कांग्रेस पार्टी में पैठ थी और कांग्रेस का प्रोत्साहन हासिल था, देशभर में मुस्लिमों को अपना निशाना बनाया.
मिसाल के लिए कांग्रेस नेता और बिहार के पहले मुख्यमंत्री एसके सिन्हा, एक कट्टर गोरक्षावादी थे और उन्होंने चर्चित तौर पर कहा था, ‘गाय की आज़ादी ही भारत की आजादी है’.
असगर अली फलसफी ने अपनी पुस्तिका ‘हमारी दुर्गत’ में बिहार और पूरे भारत भर से, आजादी के बाद हुई लगातार पांच बकरीद (1947-51) के मौके पर उर्दू अखबारों में छपी की दर्जनों ऐसी रिपोर्टों का संकलन किया है, जहां मुस्लिमों की हत्या की गई और उन्हें शायद ही कभी प्रशासन द्वारा कोई मदद मिली.
इस अवधि में सबसे ज्यादा निशाने पर रहे मुस्लिम कसाई, जिनकी हत्या की गई, लिंचिंग हुई या उन्हें भागने पर मजबूर किया गया. इनमें से ज्यादातर ख़बरों को अंग्रेजी या हिंदी के अखबारों में जगह नहीं दी गई या फिर उन्हें दंगों के तौर पर पेश किया गया, न कि एकपक्षीय नरसंहार के तौर पर.
ऐसी अनगिनत रिपोर्ट्स हैं, जहां स्थानीय प्रशासन द्वारा मुस्लिमों को हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है जबकि असल में उन पर मवेशी मारने के चलते हमला किया गया था. यह स्थिति आज भी नहीं बदली है.
Two men were beaten up with belts & sticks by Gau Raksha Seva Dal workers in Shamli yesterday on suspicion of them being cow smugglers. Police took the two men into custody for interrogation. Investigation underway pic.twitter.com/XO5q11NrOv
— ANI UP/Uttarakhand (@ANINewsUP) August 21, 2018
दारुल उलूम देवबंद, जो यूं तो कांग्रेस का पक्का समर्थक रहा है, ने भी 1950 में एक रिपोर्ट का प्रकाशन किया था जिसमें इसने गोकशी को लेकर इसकी (कांग्रेस की) की नीति में अचानक बदलाव की आलोचना की थी.
संक्षेप में ज्यादातर प्रांतों ने कांग्रेस के शासन में काफी पहले ही गोरक्षा कानूनों को लागू कर दिया और अधिकारियों ने मुस्लिमों के ख़िलाफ़ इन कानूनों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. वास्तविकता यह है कि सिर्फ एक राज्य जहां भाजपा ने इसे लागू किया है, वह महाराष्ट्र है, जहां कांग्रेस ने इसे आंशिक तौर पर लागू किया था.
लिंचिंग की बारंबारता
ध्यान देने वाला दूसरा बिंदु भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के आने से पहले लिंचिंग की बारंबारता से है. इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि भाजपा के उभार और भारत में इंटरनेट क्रांति के आगमन का समय एक ही है.
स्मार्टफोन और सस्ता इंटरनेट 2010 के बाद बहुत आम हो गए हैं. संचार के सस्ते साधनों के विकास का मतलब है कि दूरस्थ इलाकों के फोटो/वीडियो बेहद अप्रत्याशित रूप से इस्तेमाल किया जा सकता है.
मिसाल के तौर पर राजस्थान में हाईवे पर हुई पहलू खान को पीट-पीटकर मारने की घटना का कोई वीडियो फुटेज नहीं होता, तो इस घटना रिपोर्टिंग उस तरह से नहीं की जा सकती थी, जिस तरह हुई.
कुछ मीडिया रिपोर्टें इस बिंदु को और स्पष्ट करती हैं. 1934 की एक रिपोर्ट लिंचिंग पर आज हमारे सामने आने वाली रिपोर्टों के ही समान है. शादी की दावत के लिए मवेशी ला रहे कुछ मुस्लिमों पर एक सुदूर इलाक़े में हमला किया गया और उनकी हत्या कर दी गई.
1950 की एक अन्य रिपोर्ट भी इसी तरह की है और इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि यह बकरीद पर है. इस मामले में हत्या में अनियंत्रित भीड़ का हाथ था.
1968 की औरंगाबाद की एक रिपोर्ट भी इसी तर्ज पर है. इस मामले में एक गाय को छुरा मारने की अफवाह पर बड़े पैमाने पर आगजनी और हिंसा की घटना हुई, जिसमें कम से कम एक व्यक्ति मारा गया था.
इन तीनों रिपोर्टों की भाषा काबिलेगौर है. वीडियो साक्ष्य की गैर-मौजूदगी में प्रेस के पास खबर बनाने के लिए सिर्फ पुलिस और स्थानीय समुदाय का ही पक्ष ही होता है. हालांकि, ऐसी ज्यादातर रिपोर्टें लिंचिंग की तरफ इशारा करती हैं, लेकिन किसी में भी इस बात का जिक्र नहीं किया गया है.
असल में इन एकतरफ़ा हत्याओं में से ज्यादातर को ‘अशांति’, ‘उपद्रव’, ‘दंगे’ या कोई दूसरे निरपेक्ष नाम से पुकारा गया है, जो इस संभावना को छुपा लेता है कि मुस्लिमों की हत्या शायद बड़ी भीड़ द्वारा सुनियोजित तरीक़े से की गई होगी, जैसा कि स्पष्ट तरीके से पटना जिले में हुए हमले में देखा जा सकता है.
फोटोग्राफिक सबूत की कमी की गैरमौजूदगी के कारण वास्तविक घटनाओं की कल्पना करना भी मुश्किल है, इसकी सत्यता को प्रमाणित को साबित करने की बात तो रहने ही दीजिए.
यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि लिंचिंग की कई घटनाओं की तो किसी तरह की कोई रिपोर्टिंग ही नहीं होती थी, अगर वे दूरस्थ इलाकों में घटित होती थीं और यात्री और साथ गुजर रहे लोग किसी अनजान इलाके में भीड़ के हत्थे चढ़ जाते थे.
बस यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि ‘ग़ायब’ हो जानेवाले कितने लोग वास्तव में लिंचिंग का शिकार हुए होंगे. अगर शव नहीं मिलता, तो कोई मामला भी दर्ज नहीं होता.
अगर किसी तरह से मौतों की रिपोर्टिंग हो भी जाती थी, तो पुलिस और मीडिया अक्सर इन्हें झगड़े की शक्ल में पेश करते थे. इसे दो समूहों के बीच झगड़े के तौर पर पेश किया जाता था, यहां तक कि वैसे मामलों में भी जब हिंसक भीड़ द्वारा किन्हीं एक या दो व्यक्तियों पर हमला किया जाता. रिपोर्टों में अक्सर मुस्लिमों की तरफ़ से ‘उकसावे’ को हिंदुओं की ‘प्रतिक्रिया’ का कारण बताया जाता था.
सोशल मीडिया और मोबाइल फोनों ने प्रक्रिया को भी तीव्र कर दिया है. हाथों में मोबाइल के आने से पहले के दशकों में किसी मुस्लिम कसाई के ‘गलत कामों’ के बारे में संदेश को फैलने में कई घंटे या कई दिन लग सकते थे, लेकिन मोबाइल क्रांति के बाद यह काम मिनटों में हो जाता है. इसलिए लोगों का जमावड़ा भी ज्यादा तेजी से होता है.
गैर मुस्लिमों की लिंचिंग
आखिर में हम गैर-धार्मिक लिंचिंग से जुड़े तीसरे बिंदु पर आते हैं, जो ख़ासतौर पर संदिग्ध बच्चा चोरी के नाम अंजाम दिया जाता है. पीट-पीट कर मार देने की इस तरह की घटनाएं भी इस बीच बढ़ गई हैं.
इस तरह की घटनाओं की रिपोर्टिंग भी बढ़ी है और अगर जानलेवा पिटाइयों के पीछे सिर्फ भाजपा द्वारा किए जानेवाले धार्मिक ध्रुवीकरण का हाथ होता, तो इस तर्क से गैर-मुस्लिमों को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए था.
बिहार में आधा दर्जन से ज्यादा लोगों को ‘बच्चा चोर’ होने के शक पर पीट-पीटकर मार डाला गया. यहां कोई मुस्लिम बीफ खाने के कारण मारा नहीं गया है (एक-दो हमलों की खबर आई है, लेकिन कोई मृत्यु नहीं हुई है).
यह इंटरनेट युग से पहले के पैटर्न के अनुरूप है. 1990 से बिहार में मुस्लिमों के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक हमलों के मामले में शांत रहा है. 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, जब भारतभर में मुस्लिमों की हत्या की जा रही थी, बिहार शांत रहा. पिछले चार सालों में भी यह शांति लगभग कायम रही.
लेकिन, लिंचिंग और अन्यों की सामूहिक हत्याएं, ख़ासतौर पर निचली जातियों की, जिनमें कई बार मुस्लिम भी शामिल हैं, न सिर्फ बिना-रोक टोक के जारी रही हैं, बल्कि इनमें एक वृद्धि भी दिखाई देती है. यह इस बात का इशारा है कि लिंचिंग के मामलों में वास्तविक वृद्धि होने के बजाय अपराधों की रिपोर्टिंग में वृद्धि हुई है.
ऊपर दिए गए तर्कों के आधार पर कहा जा सकता है कि लिंचिंग की समझ पर सख्ती से फिर से विचार किए जाने की जरूरत है. इंटरनेट युग से पहले इसकी रिपोर्टिंग और साथ ही साथ कांग्रेस काल में गोरक्षा आंदोलनों के महत्व की पड़ताल किए जाने की जरूरत है.
गोरक्षा के नाम पर देशभर में मुस्लिमों की लिंचिंग की परिघटना एक सदी पुरानी है और इसे उन संगठनों के द्वारा अंजाम दिया जाता रहा है, जिन्हें सत्ता का समर्थन मिलता रहा है.
समकालीन समय में लिंचिंग की घटनाओं में इंटरनेट की भूमिका काफी अहम है. बढ़ी हुई आवृत्ति और रिपोर्टिंग का मतलब यह नहीं है कि यह भाजपा के सत्ता में आने के बाद भारतीय समाज के ताने-बाने में आए बुनियादी बदलाव को दिखाता है, बल्कि इसे एक हद तक इंटरनेट की उपलब्धता से जोड़ा जा सकता है.
अगर इसे नयी समस्या मानकर इस पर विचार किया जाएगा तो इस बेहद चिंताजनक मसले का कभी भी वास्तविक समाधान नहीं निकाला जा सकेगा.
(शरजील इमाम आईआईटी बॉम्बे से कंप्यूटर साइंस ग्रैजुएट हैं और वर्तमान में जेएनयू से आधुनिक इतिहास पर पीएचडी कर रहे हैं. वे विभाजन और मुस्लिम राजनीति पर काम कर रहे हैं.)
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