सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हालिया कार्रवाई के ख़िलाफ़ जो जनाक्रोश उभरा है उसमें ‘नक्सल’ शब्द और इसके पीछे के ठोस ऐतिहासिक संदर्भों को बार-बार सामने रखना ज़रूरी है ताकि यह शब्द महज़ एक आपराधिक प्रवृत्ति के तौर पर ही न देखा जाए बल्कि इसके पीछे मौजूद सरकारों की मंशा भी उजागर होती रहे.
आज का हमारा समय हिंदी के महत्वपूर्ण कवि शमशेर बहादुर सिंह की कल्पना का ‘साम्यवादी’ नहीं है बल्कि इस रास्ते में जो भी व्यक्ति, समुदाय या संस्थान आ रहे हैं उन्हें संदेहास्पद बना देने का है.
पिछले चार सालों में इस ‘उत्सवी सरकार’ ने जिस तरह से हर मौके को विराट और लगभग फूहड़ उत्सव में बदला है वो केवल अपनी नाकामयाबियों को छिपाने के उद्यम नहीं रहे बल्कि इन उत्सवों के मार्फत अपने समय समाज के मूल प्रश्नों को टालने और मानव सभ्यता के विकास में तमाम कालखंडों में पैदा हुईं विचारधाराओं को नाजायज ठहराने के निंदनीय प्रयासों के तौर भी देखा जाना चाहिए.
समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, संस्थानों की स्वायत्तता, देशभक्ति, इतिहास, अर्थशास्त्र और क्या-क्या नहीं, इन्होंने हर शब्द को अपने हिसाब से बदलने की कोशिश की.
कैसे एक ‘सरकार’ किसी एक विचारधारा को लागू करने का सबसे प्रभावशाली उपकरण हो सकता है इसकी ऐतिहासिक मिसाल नरेंद्र मोदी की यह सरकार निर्विवाद रूप से भविष्य में भी बनी रहेगी.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा को क्रियान्वित करने के लिए एक तरफ जहां इस सरकार ने लोगों के मनोविज्ञान को रेहन पर रखकर एक खास तरह की ‘जनता का निर्माण’ किया तो वहीं कॉरपोरेट के रास्ते जीवन जीने के संसाधनों को लूटने की खुली मुहिम चलाई.
इन दोनों से मुक्ति दिलाने के मार्ग में जो भी व्यक्ति, विचारधारा, संस्थान आड़े आते दिखे उन्हें हर तरह से नेस्तनाबूद करने का काम राज्य के संसाधनों की सहायता लेकर किया गया.
ताजा मामला ‘अर्बन नक्सल’ शब्द के व्यापक प्रचार-प्रसार और इसे ठोस जमीन देने के लिए की जा रही कार्रवाई का है. यह मामला ऐसा है जिसमें हर किसी को ‘भ्रमित’ किया जा रहा है बावजूद इसके एक सच हम सबके सामने है और वो यह कि इस शब्द के इर्द-गिर्द पुलिस और खुशामदी मीडिया की कार्रवाई बहुत तेज गति से चल रही है.
ऐसे में इन कार्रवाईयों के खिलाफ जनतंत्र में भरोसा रखने वाली आवाम संगठित भी हो रही है और हर स्तर पर इनका प्रतिकार हो रहा है.
छत्तीसगढ़ से लेकर तमाम राज्यों के दूरस्थ गांवों, जिलों, राजधानियों और दिल्ली तक में व्यापक प्रतिकारों का सिलसिला निरंतरता से चल रहा है. इन प्रतिरोधों में एक बात जो सोलिडेरिटी के स्तर पर प्रमुखता से आ रही है वो यह कि सभी खुद को नक्सल (मैं भी नक्सल) घोषित कर रहे हैं.
सतही तौर पर यह इस समय विशेष में एक जरूरी नारा हो सकता है पर इस शब्द को इसकी ऐतिहासिक मीमांसा से, संदर्भों से काटकर नहीं देखा जाना चाहिए.
इस तरह की कार्रवाई से यह सरकार और उसकी मूल संस्था अपने द्वारा और अपने उद्देश्यों के लिए निर्मित की गई जनता को बार-बार संगठित करती आई है. किसी फासीवादी सरकार का यह मूल चरित्र होता है कि अपनी बनाई जनता को बिखरने नहीं देती. इसलिए इस तरह के हथकंडों से वो अपनी उस जनता का प्रशिक्षित करती रहती है.
अगर यह शब्द ऐसे ही प्रयोग होता रहा तो, यह भी डर है कि कई अनुत्तरित सवाल इस सरकार और इसकी मातृ संस्था के ‘प्रोपेगेंडा’ के शिकार होकर भटका दिए जाएंगे.
आज यह शब्द भले ही केवल हिंसा का पर्याय बना दिया गया हो और कतिपय आम नागरिक समाज इसके प्रति नकारात्मक नजरिया भी रखता हो पर अंतत: यह एक ऐतिहासिक परिघटना थी. इसके अपने भू-राजनैतिक संदर्भ थे. भूमि-सुधार की मांग का इस रूप में उभार अगर उस समय अनिवार्य तौर पर राज्य सरकार की प्रशासनिक विफलता का परिणाम थी तो इतने सालों तक इस आंदोलन का जारी रहना परवर्ती केंद्र व राज्य सरकारों की विफलताएं ही कही जाएंगीं.
इस बीच यह सवाल अनुत्तरित ही रह गया जो इस विषय के अध्ययेता एडवोकेट अनिल गर्ग लगातार सरकारों से पूछते आ रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में जमींदारों के खिलाफ जमीन के बंटवारे के लिए शुरू हुआ यह आंदोलन देश के विभिन्न हिस्सों में आखिर जंगल और आदिवासी क्षेत्रों में ही क्यों मजबूत हुआ?
इस आंदोलन की हिंसात्मक प्रवृत्ति से किसी को भी कोई सहानुभूति नहीं हो सकती और यह केवल केंद्र व राज्यों की सरकारों के लिए नहीं बल्कि भारतीय गणराज्य के सामने चुनौती है और इस कारण इस देश के हर नागरिक के सरोकार इससे जुड़े हैं परंतु केंद्र व राज्य सरकारें केवल हिंसा के रास्ते व उपकरणों से ही इस चुनौती से निपटना चाहतीं हैं तो नागरिक सरोकार इस हिंसा से भी प्रभावित होंगे और तटस्थता से यह भी कहा ही जाएगा कि सरकारों की भूमिका भी ठीक नहीं है.
नक्सली कार्रवाईयों से हिंसा से निपटना एक फौरी रणनीति का हिस्सा हो सकता है पर यह रणनीति उस मूल प्रश्न को हल करने की दिशा में कारगर रही है या होगी, ऐसा नहीं माना जा सकता.
पश्चिम बंगाल से भूमि-सुधार के लिए वंचितों की ओर से शुरू हुए इस हिंसक आंदोलन का कंटेंट ठीक वही नहीं रहा जब वह आदिवासी इलाकों में अपनी पैठ बना रहा था.
नक्सलबाड़ी में जहां सवाल केवल जमीन के समुचित बंटवारे का था तो आदिवासी इलाकों में जंगल, जमीन, वनोपज, अस्मिता, संस्कृति और मानवीय गरिमा के सवाल प्रमुखता से इसमें शामिल हुए.
गौरतलब है कि आदिवासी इलाकों में खुद वहां के रहवासियों ने शुरुआती दौर में कम से कम इस आंदोलन में हथियार नहीं उठाए बल्कि इस अन्याय के खिलाफ खड़ी हुई विचारधारा और संगठन का संरक्षण हासिल किया.
जमींदारों के प्रभाव, आतंक और अन्याय से अछूते या मुक्त आदिवासी क्षेत्रों में ये नए जमींदार कौन हैं जिनके खिलाफ यह आंदोलन शुरू हुआ? इसका एक जवाब देश का वन विभाग हो सकता है जिसने आजादी के बाद उन इलाकों को अपने पूर्ण नियंत्रण में ले लिया जिन्हें कभी ब्रिटिश हुकूमत ने भी अपने नियंत्रण से बाहर रखा था.
लेकिन जब इन इलाकों को पूंजीपतियों के सुपुर्द किया गया ताकि वो अपने मुनाफे के लिए कच्चे माल और खनिज संपदा का दोहन राजकीय संरक्षण में कर सकें तब असली जमींदार का चेहरा सामने आता है.
जिन इलाकों के लिए संविधान की पांचवीं अनुसूची का हवाला दिया जाता है ये अमूमन वही इलाके हैं. भारत के संविधान की पांचवीं अनुसूची में आदिवासियों के जंगल, जमीन, जलस्रोतों, वनोपज, सांस्कृतिक स्वायत्तता की सुरक्षा को लेकर प्रतिबद्धता है. इसलिए देश के नागरिक के तौर पर जब हमने संविधान को अंगीकार किया है तब इस वचन को भी तो अंगीकार किया है.
इसलिए जिनके विवेक में यह प्रश्न नहीं आता कि आखिर यह परिस्थितियां क्यों बनीं और उनसे निपटने की राजकीय प्रविधियां क्या रहीं और उनका हासिल क्या हुआ? और जो आज के प्रायोजित शोरगुल में खुद को सुरक्षित मान रहे हैं वो उसी संविधान के प्रति अपनी नागरिक जिम्मेदारियों से कन्नी भी काट रहे हैं.
हालिया कार्रवाई के खिलाफ जो जनाक्रोश उभर रहा है उसमें इस ‘शब्द’ और इसके पीछे के ठोस ऐतिहासिक संदर्भों को बार-बार सामने रखना जरूरी है ताकि यह शब्द महज एक आपराधिक प्रवृत्ति के तौर पर ही न देखा जाए बल्कि इसके पीछे मौजूद सरकारों की मंशा भी उजागर होती रहे.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)