विशेष: साल 1929 में 8 अप्रैल को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय असेंबली में बम फेंका था. बम फेंकने के बाद उन्होंने गिरफ़्तारी दी और उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा चला. 6 जून, 1929 को दिल्ली के सेशन जज लियोनॉर्ड मिडिल्टन की अदालत में दिया गया भगत सिंह का ऐतिहासिक बयान…
(यह लेख मूल रूप से 8 अप्रैल 2017 को प्रकाशित हुआ था.)
हमारे ऊपर गंभीर आरोप लगाए गए हैं. इसलिए यह आवश्यक है कि हम भी अपनी सफाई में कुछ शब्द कहें. हमारे कथित अपराध के संबंध में निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं: (1) क्या वास्तव में असेंबली में बम फेंके गए थे, यदि हां तो क्यों? (2) नीचे की अदालत में हमारे ऊपर जो आरोप लगाए गए हैं, वे सही हैं या गलत?
पहले प्रश्न के पहले भाग के लिए हमारा उत्तर स्वीकारात्मक है, लेकिन तथाकथित चश्मदीद गवाहों ने इस मामले में जो गवाही दी है, वह सरासर झूठ है. चूंकि हम बम फेंकने से इनकार नहीं कर रहे हैं इसलिए यहां इन गवाहों के बयानों की सच्चाई की परख भी हो जानी चाहिए. उदाहरण के लिए, हम यहां बता देना चाहते हैं कि सार्जेंट टेरी का यह कहना कि उन्होंने हममें से एक के पास से पिस्तौल बरामद की, एक सफेद झूठ मात्र है, क्योंकि जब हमने अपने आपको पुलिस के हाथों में सौंपा तो हममें से किसी के पास कोई पिस्तौल नहीं थी. जिन गवाहों ने कहा है कि उन्होंने हमें बम फेंकते देखा था, वे झूठ बोलते हैं. न्याय तथा निष्कपट व्यवहार को सर्वोपरि मानने वाले लोगों को इन झूठी बातों से एक सबक लेना चाहिए. साथ ही हम सरकारी वकील के उचित व्यवहार तथा अदालत के अभी तक के न्यायसंगत रवैये को भी स्वीकार करते हैं.
पहले प्रश्न के दूसरे हिस्से का उत्तर देने के लिए हमें इस बमकांड जैसी ऐतिहासिक घटना के कुछ विस्तार में जाना पड़ेगा. हमने वह काम किस अभिप्राय से तथा किन परिस्थितियों के बीच किया, इसकी पूरी एवं खुली सफाई आवश्यक है.
जेल में हमारे पास कुछ पुलिस अधिकारी आए थे. उन्होंने हमें बताया कि लार्ड इर्विन ने इस घटना के बाद ही असेंबली के दोनों सदनों के सम्मिलित अधिवेशन में कहा है कि ‘यह विद्रेाह किसी व्यक्ति विशेष के ख़िलाफ़ नहीं, वरना सम्पूर्ण शासन-व्यवस्था के विरुद्ध था.’ यह सुनकर हमने तुरंत भांप लिया कि लोगों ने हमारे इस काम के उद्देश्य को सही तौर पर समझ लिया है.
मानवता को प्यार करने में हम किसी से पीछे नहीं हैं. हमें किसी से व्यक्तिगत द्वेष नहीं है और हम प्राणिमात्र को हमेशा आदर की नज़र से देखते आए हैं. हम न तो बर्बरतापूर्ण उपद्रव करने वाले देश के कलंक हैं, जैसा कि सोशलिस्ट कहलाने वाले दीवान चमनलाल ने कहा है, और न ही हम पागल हैं, जैसा कि लाहौर के ‘ट्रिब्यून’ तथा कुछ अन्य अख़बारों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है. हम तो केवल अपने देश के इतिहास, उसकी मौजूदा परिस्थिति तथा अन्य मानवोचित आकांक्षाओं के मननशील विद्यार्थी होने का विनम्रतापूर्वक दावा भर कर सकते हैं. हमें ढोंग तथा पाखंड से नफ़रत है.
यह काम हमने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा विद्वेष की भावना से नहीं किया है. हमारा उद्देश्य केवल उस शासन-व्यवस्था के विरुद्व प्रतिवाद करना था जिसके हर एक काम से उसकी अयोग्यता ही नहीं वरन अपकार करने की उसकी असीम क्षमता भी प्रकट होती है.
इस विषय पर हमने जितना विचार किया उतना ही हमें इस बात का दृढ़ विश्वास होता गया कि वह केवल संसार के सामने भारत की लज्जाजनक तथा असहाय अवस्था का ढिंढोरा पीटने के लिए ही क़ायम है और वह एक ग़ैर-ज़िम्मेेदार तथा निरंकुश शासन का प्रतीक है.
जनता के प्रतिनिधियों ने कितनी ही बार राष्ट्रीय मांगों को सरकार के सामने रखा, परंतु उसने उन मांगों की सर्वथा अवहेलना करके हर बार उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया.
सदन द्वारा पास किए गए गंभीर प्रस्तावों को भारत की तथाकथित पार्लियामेंट के सामने ही तिरस्कारपूर्वक पैरों तले रौंदा गया है, दमनकारी तथा निरंकुश क़ानूनों को समाप्त करने की मांग करने वाले प्रस्तावों को हमेशा अवज्ञा की दृष्टि से ही देखा गया है और जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों ने सरकार के जिन क़ानूनों तथा प्रस्तावों को अवांछित एवं अवैधानिक बताकर रद्द कर दिया था, उन्हें केवल कलम हिलाकर ही सरकार ने लागू कर लिया है.
संक्षेप में, बहुत कुछ सोचने के बाद भी एक ऐसी संस्था के अस्तित्व का औचित्य हमारी समझ में नहीं आ सका, जो बावजूद उस तमाम शानो-शौकत के, जिसका आधार भारत के करोड़ों मेहनतकशों की गाढ़ी कमाई है, केवल मात्र दिल को बहलाने वाली, थोथी, दिखावटी और शरारतों से भरी हुई एक संस्था है.
हम सार्वजनिक नेताओं की मनोवृत्ति को समझ पाने में भी असमर्थ हैं. हमारी समझ में नहीं आता कि हमारे नेतागण भारत की असहाय परतंत्रता की खिल्ली उड़ाने वाले इतने स्पष्ट एवं पूर्वनियोजित प्रदर्शनों पर सार्वजनिक संपत्ति एवं समय बर्बाद करने में सहायक क्यों बनते हैं.
हम इन्हीं प्रश्नों तथा मज़दूर आंदोलन के नेताओं की धरपकड़ पर विचार कर ही रहे थे कि सरकार औद्योगिक विवाद विधेयक लेकर सामने आई.
हम इसी संबंध में असेंबली की कार्यवाही देखने गए. वहां हमारा यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया कि भारत की लाखों मेहनतकश जनता एक ऐसी संस्था से किसी बात की भी आशा नहीं कर सकती जो भारत की बेबस मेहनतकशों की दासता तथा शोषकों की गलाघोंटू शक्ति की अहितकारी यादगार है.
अंत में वह क़ानून, जिसे हम बर्बर एवं अमानवीय समझते हैं, देश के प्रतिनिधियों के सर पर पटक दिया गया, और इस प्रकार करोड़ों संघर्षरत भूखे मज़दूरों को प्राथमिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया और उनके हाथों से उनकी आर्थिक मुक्ति का एकमात्र हथियार भी छीन लिया गया.
जिस किसी ने भी कमरतोड़ परिश्रम करने वाले मूक मेहनतकशों की हालत पर हमारी तरह सोचा है वह शायद स्थिर मन से यह सब नहीं देख सकेगा. बलि के बकरों की भांति शोषकों, और सबसे बड़ी शोषक स्वयं सरकार है, की बलिवेदी पर आए दिन होने वाली मज़दूरों की इन मूक क़ुर्बानियों को देखकर जिस किसी का दिल रोता है, वह अपनी आत्मा की चीत्कार की उपेक्षा नहीं कर सकता.
गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी समिति के भूतपूर्व सदस्य स्वर्गीय श्री एसआर दास ने अपने प्रसिद्ध पत्र में अपने पुत्र को लिखा था कि इंग्लैंड की स्वप्ननिद्रा भंग करने के लिए बम का उपयोग आवश्यक था. श्री दास के इन्हीं शब्दों को सामने रखकर हमने असेंबली भवन में बम फेंके थे. हमने वह काम मज़दूरों की तरफ़ से प्रतिरोध प्रदर्शित करने के लिए किया था.
उन असहाय मज़दूरों के पास अपने मर्मांतक क्लेशों को व्यक्त करने का और कोई साधन भी तो नहीं था. हमारा एकमात्र उद्देश्य था ‘बहरों को सुनाना’ और उन पीड़ितों की मांगों पर ध्यान न देने वाली सरकार को समय रहते चेतावनी देना.
हमारी ही तरह दूसरों की भी परोक्ष धारणा है कि प्रशांत सागर रूपी भारतीय मानवता की ऊपरी शांति किसी भी समय फूट पड़ने वाले एक भीषण तूफ़ान की द्योतक है. हमने तो उन लोगों के लिए सिर्फ़ ख़तरे की घंटी बजाई है जो आने वाले भयानक ख़तरे की परवाह किए बग़ैर तेज़ रफ़्तार से आगे की तरफ़ भागे जा रहे हैं.
हम लोगों को सिर्फ़ यह बता देना चाहते हैं कि ‘काल्पनिक अहिंसा’ का युग अब समाप्त हो चुका है और आज की उठती हुई नयी पीढ़ी को उसकी व्यर्थता में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं रह गया है.
मानवता के प्रति हार्दिक सद्भाव तथा अमित प्रेम रखने के कारण उसे व्यर्थ के रक्तपात से बचाने के लिए हमने चेतावनी देने के इस उपाय का सहारा लिया है. और उस आने वाले रक्तपात को हम ही नहीं, लाखों आदमी पहले से ही देख रहे हैं.
ऊपर हमने ‘काल्पनिक अहिंसा’ शब्द का प्रयोग किया है. यहां पर उसकी व्याख्या कर देना भी आवश्यक है. आक्रामक उद्देश्य से जब बल का प्रयोग होता है उसे हिंसा कहते हैं, और नैतिक दृष्टिकोण से उसे उचित नहीं कहा जा सकता. लेकिन जब उसका उपयोग किसी वैध आदर्श के लिए किया जाता है तो उसका नैतिक औचित्य भी होता है.
किसी हालत में बल-प्रयोग नहीं होना चाहिए, यह विचार काल्पनिक और अव्यावहारिक है. इधर देश में जो नया आंदोलन तेज़ी के साथ उठ रहा है, और जिसकी पूर्व सूचना हम दे चुके हैं वह गुरु गोविंद सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, रिजा खां, वाशिंगटन, गैरीबाल्डी, लफायत और लेनिन के आदर्शों से ही प्रस्फुरित है और उन्हीं के पद-चिह्नों पर चल रहा है. चूंकि भारत की विदेशी सरकार तथा हमारे राष्ट्रीय नेतागण दोनों ही इस आंदोलन की ओर से उदासीन लगते हैं और जानबूझकर उसकी पुकार की ओर से अपने कान बंद करने का प्रयत्न कर रहे हैं, अतः हमने अपना कर्त्तव्य समझा कि हम एक ऐसी चेतावनी दें जिसकी अवहेलना न की जा सके.
अभी तक हमने इस घटना के मूल उद्देश्य पर ही प्रकाश डाला है. अब हम अपना अभिप्राय भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं.
यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि इस घटना के सिलसिले में मामूली चोटें खाने वाले व्यक्तियों अथवा असेंबली के किसी अन्य व्यक्ति के प्रति हमारे दिलों में कोई वैयक्तिक विद्वेष की भावना नहीं थी. इसके विपरीत हम एक बार फिर स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम मानव-जीवन को अत्यन्त पवित्र मानते हैं और किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुंचाने के बजाय हम मानव-जाति की सेवा में हंसते-हंसते अपने प्राण विसर्जित कर देंगे.
हम साम्राज्यवाद की सेना के भाड़े के सैनिकों जैसे नहीं हैं जिनका काम ही हत्या होता है. हम मानव-जीवन का आदर करते हैं और बराबर उसकी रक्षा का प्रयत्न करते हैं. इसके बाद भी हम स्वीकार करते हैं कि हमने जान-बूझकर असेंबली भवन में बम फेंके.
घटनाएं स्वयं हमारे अभिप्राय पर प्रकाश डालती हैं. और हमारे इरादों की परख हमारे काम के परिणाम के आधार पर होनी चाहिए न कि अटकल एवं मनगढ़ंत परिस्थितियों के आधार पर. सरकारी विशेषज्ञ की गवाही के विरुद्ध हमें यह कहना है कि असेंबली भवन में फेंके गए बमों से वहां की एक खाली बेंच को ही कुछ नुकसान पहुंचा और लगभग आधे दर्जन लोगों को मामूली-सी खरोंचें-भर आईं.
सरकारी वैज्ञानिकों ने कहा है कि बम बड़े ज़ोरदार थे और उनसे अधिक नुकसान नहीं हुआ, इसे एक अनहोनी घटना ही कहना चाहिए. लेकिन हमारे विचार से उन्हें वैज्ञानिक ढंग से बनाया ही ऐसा गया था. पहली बात, दोनों बम बेंचों तथा डेस्कों के बीच की खाली जगह में ही गिरे थे. दूसरे, उनके फूटने की जगह से दो फीट पर बैठे हुए लोगों को भी, जिनमें श्री पीआर राव, श्री शंकर राव तथा सर जार्ज शुस्टर के नाम उल्लेखनीय हैं, या तो बिल्कुल ही चोंटें नहीं आईं या मात्र मामूली आईं.
अगर उन बमों में ज़ोरदार पोटैशिमय क्लोरेट और पिक्रिक एसिड भरा होता, जैसा कि सरकारी विशेषज्ञ ने कहा है, तो इन बमों ने उस लकड़ी के घेरे को तोड़कर कुछ गज की दूरी पर खड़े लोगों तक को उड़ा दिया होता. और यदि उनमें कोई और भी शक्तिशाली विस्फोटक भरा जाता तो निश्चय ही वे असेंबली के अधिकांश सदस्यों को उड़ा देने में समर्थ होते.
यही नहीं, यदि हम चाहते तो उन्हें सरकारी कक्ष में फेंक सकते थे जो विशिष्ट व्यक्तियों से खचाखच भरा था. या फिर उस सर जॉन साइमन को अपना निशाना बना सकते थे, जिसके अभागे कमीशन ने प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के दिल में उसकी ओर से गहरी नफ़रत पैदा कर दी थी और जो उस समय असेंबली की अध्यक्ष दीर्घा में बैठा था.
लेकिन इस तरह का हमारा कोई इरादा नहीं था और उन बमों ने उतना ही काम किया जितने के लिए उन्हें तैयार किया गया था. यदि उससे कोई अनहोनी घटना हुई तो यही कि वे निशाने पर अर्थात निरापद स्थान पर गिरे.
इसके बाद हमने इस कार्य का दंड भोगने के लिए अपने-आप को जान-बूझकर पुलिस के हाथों समर्पित कर दिया. हम साम्राज्यवादी शोषकों को यह बता देना चाहते थे कि मुट्ठी-भर आदमियों को मारकर किसी आदर्श को समाप्त नहीं किया जा सकता और न ही दो नगण्य व्यक्तियों को कुचलकर राष्ट्र को दबाया जा सकता है.
हम इतिहास के इस सबक पर ज़ोर देना चाहते थे कि परिचय-चिह्न तथा बास्तीय (फ्रांस की कुख्यात जेल जहां राजनीतिक बंदियों को घोर यंत्राणाएं दी जाती थीं) फ्रांस के क्रांतिकारी आंदोलन को कुचलने में समर्थ नहीं हुए थे, फांसी के फंदे और साइबेरिया की खानें रूसी क्रांति की आग को बुझा नहीं पाई थीं. तो फिर, क्या अध्यादेश और सेफ्टी बिल्स भारत में आज़ादी की लौ को बुझा सकेंगे?
षड्यंत्रों का पता लगाकर या गढ़े हुए षड्यंत्रों द्वारा नौजवानों को सज़ा देकर या एक महान आदर्श के स्वप्न से प्रेरित नवयुवकों को जेलों में ठूंसकर क्या क्रांति का अभियान रोका जा सकता है?
हां, सामयिक चेतावनी से, बशर्ते कि उसकी उपेक्षा न की जाए, लोगों की जानें बचाई जा सकती हैं और व्यर्थ की मुसीबतों से उनकी रक्षा की जा सकती हैं. आगाही देने का यह भार अपने ऊपर लेकर हमने अपना कर्त्तव्य पूरा किया है.
(भगतसिंह से नीचे की अदालत में पूछा गया था कि क्रांति से उन लोगों का क्या मतलब है? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा था कि) क्रांति के लिए ख़ूनी लड़ाइयां अनिवार्य नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है. वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है. क्रांति से हमारा अभिप्राय है अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन.
समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मज़दूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प जाते हैं.
दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज हैं. दुनिया भर के बाज़ारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढंकने-भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है. सुंदर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गंदे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन-लीला समाप्त कर जाते हैं.
इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूंजीपति ज़रा-ज़रा-सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं. यह भयानक असमानता और ज़बर्दस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है. यह स्थिति अधिक दिनों तक क़ायम नहीं रह सकती.
स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड की कगार पर चल रहे हैं.
सभ्यता का यह महल यदि समय रहते संभाला न गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जाएगा. देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है. और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्त्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें.
जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जिसे साम्राज्यवाद कहते हैं, समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है, और तब तक युद्धों को समाप्त कर विश्व-शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं.
क्रांति से हमारा मतलब अंततोगत्वा एक ऐसी समाज-व्यवस्था की स्थापना से है जो इस प्रकार के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्य सर्वमान्य होगा. और जिसके फलस्वरूप स्थापित होेने वाला विश्व-संघ पीड़ित मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा.
यह है हमारा आदर्श. और इसी आदर्श से प्रेरणा लेकर हमने एक सही तथा पुरज़ोर चेतावनी दी है. लेकिन अगर हमारी इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया गया और वर्तमान शासन-व्यवस्था उठती हुई जनशक्ति के मार्ग में रोड़े अटकाने से बाज न आई तो क्रांति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए एक भयंकर युद्ध का छिड़ना अनिवार्य है.
सभी बाधाओं को रौंदकर आगे बढ़ते हुए उस युद्ध के फलस्वरूप सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतंत्र की स्थापना होगी. यह अधिनायकतंत्र क्रांति के आदर्शों की पूर्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा. क्रांति मानवजाति का जन्मजात अधिकार है जिसका अपहरण नहीं किया जा सकता. स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है.
श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना ही श्रमिक वर्ग का अंतिम लक्ष्य है. इन आदर्शों के लिए और इस विश्वास के लिए हमें जो भी दंड दिया जाएगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे.
क्रांति की इस पूजा-वेदी पर हम अपना यौवन नैवेद्य के रूप में लाए हैं, क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है. हम संतुष्ट हैं और क्रांति के आगमन की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे हैं.
इंक़लाब ज़िंदाबाद!
(www.marxists.org से साभार. यह फाइल आरोही, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित संकलन ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ (संपादक: राजेश उपाध्याय एवं मुकेश मानस) के मूल फाइल से ली गई है.)