गोवध और गायों के परिवहन पर पाबंदी को गोरक्षक दलों द्वारा हिंसक ढंग से लागू करने का ख़ामियाज़ा किसानों को उठाना पड़ रहा है. किसान अनुपयोगी मवेशी बेचकर कुछ पैसे कमा लेने के विकल्प से भी वंचित हो गए हैं.
गुजरात में गुजरात पशु संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2017 के तहत गोवध की अधिकतम सजा आजीवन कारावास रखी गई है, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने गोवध के दोषियों को फांसी पर लटकाने के अपने इरादे की घोषणा की है और उन्हीं के राज्य के एक भाजपा विधायक ने गाय की हत्या या अपमान करने वाले के हाथ-पांव तोड़ने की धमकी दी है.
यूपी और दूसरे राज्यों में फिर से प्रकट हो गए गोरक्षा दलों को शीर्ष नेतृत्व का आशीर्वाद हासिल है, जो ‘गो तस्करों’ पर कार्रवाई करने को गलत नहीं मानता, उन्हें मांस की दुकानों को फूंक देने, मांस के दुकानदारों और उनके ग्राहकों को परेशान करने और मवेशियों को एक राज्य से दूसरे राज्य ले जाते हुए पाए जाने वालों की हत्या करने की छूट मिली हुई है.
झारखंड में विश्व हिंदू परिषद की गोमांस पर पूर्ण प्रतिबंध, गो तस्करी पर रोक और अवैध बूचड़खानों पर तालाबंदी की मांगों पर वहां की भाजपा सरकार ने झारखंड के सभी अवैध बूचड़खानों पर पाबंदी लगा दी.
ये सब दो हफ्ते के छोटे से समय के भीतर किया गया. ऐसी हर कार्रवाई से भाजपा-संघ परिवार ने देश भर के किसानों के बीच मवेशी स्वामित्व को घटाने, उसे अंततः खत्म करने, और साथ ही गो जातीय पशु (बोवाइन) आबादी में भैंसों का वर्चस्व कायम करने (भैंसीकरण/बफैलोआइजेशन) की प्रक्रिया को तेज करने का ही काम किया है.
इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि किस तरह अनुत्पादक मवेशियों का पक्का और अच्छा पुनर्बिक्री मूल्य न होने के कारण, किसान गोधन (गाय-बैल) पालन से दूर होते गये हैं. क्योंकि ऐसे पशु की देखरेख करना किसानों के लिए पूरी तरह आर्थिक घाटे का सौदा साबित होता है.
किसी पशु को फिर से बेचने पर उसकी ऊंची कीमत उसी सूरत में मिलती है, जब वह काम के लायक होता है. (या फिर उसमें प्रजनन या दूध देने की क्षमता होती है). तभी दूसरा किसान उस पशु को खरीदता है.
अगर कोई दूसरा किसान ऐसे पशु को नहीं खरीदता, तो आखिरी सहारे के तौर पर किसानों के पास हमेशा से इन्हें कसाईखानों में पशुओं की आपूर्ति करने वाले व्यापारियों के हाथों बेचने का विकल्प रहा है.
दूसरे किसान द्वारा न खरीदे जाने के बावजूद ये पशु आर्थिक रूप से मूल्यवान इसलिए रहे हैं, क्योंकि वध होने के बाद भी उनकी अपनी एक अर्थव्यवस्था है: मवेशियों का मांस लोगों की खाद्य-संस्कृति का हिस्सा और प्रोटीन का सस्ता स्रोत रहा है.
मवेशी की खाल भारत के फल-फूल रहे 17.8 अरब अमेरिकी डॉलर के समतुल्य के चमड़ा उद्योग का आधार है, जिससे देश के 95 प्रतिशत जूते-चप्पलों की जरूरत पूरी होती है.
फार्मास्यूटिकल्स और मैन्युफैक्चरिंग उद्योगों में मवेशियों के अखाद्य हिस्सों का भी बड़े पैमाने पर प्रयोग होता है. गोवध और एक राज्य से दूसरे राज्य तक गोधन के परिवहन पर प्रतिबंध को जिस तरह से गो-निगरानी दलों के गोरक्षकों द्वारा हिंसक तरीके से लागू किया जा रहा है, वह किसानों को अपने गोधन का फिर से बेच कर उसकी कुछ कीमत हासिल करने के विकल्प से वंचित कर रहा है.
किसानों द्वारा भैंस पालन को वरीयता देने का कारण यह है कि एक दूध न देनेवाली नर या मादा भैंस भी कसाईखाने में अच्छी कीमत दिलाती है, क्योंकि भैंस का वध देशभर में वैध है.
2012 की पशुधन जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, देश में गोजातीय पशुओं की कुल आबादी में भैंसों का हिस्सा 38 फीसदी था. वैसे राज्यों में जहां कठोर गोवध विरोधी कानून अस्तित्व में हैं, वहां भैंसों का प्रतिशत देश के औसत से कहीं ज्यादा था.
हरियाणा (77 फीसदी), पंजाब (67 फीसदी), उत्तर प्रदेश (61 फीसदी), गुजरात (51 फीसदी) और राजस्थान (50 फीसदी) में भैंसों की राष्ट्रीय औसत से ज्यादा आबादी पवित्र गाय के हार्टलैंड वाले राज्यों में किसानों द्वारा गाय के ऊपर भैंस पालन को वरीयता देने की प्रवृत्ति का सबूत है.
दूसरी तरफ वैसे राज्यों में जहां गोवध पर प्रतिबंध नहीं था, वहां, कुल गोजातीय पशुधन में गोधन (गाय-बैल) का अनुपात सबसे ज्यादा था : केरल में 93 फीसदी, पश्चिम बंगाल में 96.5 फीसदी और असम में 91 फीसदी.
नेशनल ब्यूरो ऑफ़ एनिमल जेनेटिक रिसोर्सेज के 2006 के एक अध्ययन में ‘हरियाणा मवेशी नस्ल’ (यह एक अत्यंत जोखिमग्रस्त देशी नस्ल है) की संख्या में उसके मुख्य प्रदेश हरियाणा में कमी आने की वजह दूध न दे सकने वाले इन नर और मादा मवेशियों के लिए खरीदार न होने को बताया था, जिस कारण किसानों ने इन्हें पालना बंद कर दिया.
इस अध्ययन में खरीदारों की गैरहाजिरी को ‘हरियाणा नस्ल’ की आबादी में कमी का सबसे महत्वपूर्ण कारक माना गया. गोधन की दोबारा बिक्री के लिए खरीदारों के न होने से गरीब किसानों पर उनकी देखभाल का एक बड़ा आर्थिक बोझ पड़ जाता है.
किसानों ने ‘सामाजिक-धार्मिक’ कारकों (गोवध निषेध के लिए शिष्ट प्रयोग), मशीनीकरण और इन सबके परिणामस्वरूप हरियाणा नस्ल के नर की खरीद कम होने को हरियाणा और उसके बाहर इनकी खरीद-बिक्री की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बताया.
सबसे ताजा उदाहरण महाराष्ट्र का है, जहां मवेशियों (जिनमें सांड़ और बैल भी शामिल हैं) के वध, राज्य से बाहर इनके परिवहन को भी पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया है. इसने कसाइयों के कुरैशी समुदाय, पशु व्यापारियों, परिवहन कर्मचारियों, चमड़े का काम करने वाले लोगों की आर्थिक रीढ़ तो तोड़ी ही है, इसके अलावा इसने गोधन की खरीद-बिक्री के चक्र को भी नष्ट करने काम किया है, जिसका किसानों की जीविका और कृषि अर्थव्यवस्था में काफी अहमियत रही है.
महाराष्ट्र में 5 मार्च, 2015 को इस कानून की घोषणा के बाद राज्य के लगभग हर हिस्से से लगातार बैलों और गायों की अर्थव्यवस्था के पूरी तरह से ध्वस्त होने की खबरें आती रही हैं, जिसके कारण किसानों को भीषण आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा है.
पशुओं की जिम्मेदारी से मुक्त होने और पुराने पशुधन को नए पशुधन से बदलने की उनकी क्षमता कम हुई है. जुलाई, 2016 तक दुधारू गायों की कीमत 65,000 से घटकर 50,000 हजार रुपये तक हो गयी और बछड़ों, बैलों और बूढ़ी गायों की कीमत गिरकर 18,000-19,000 रुपये से घटकर 15-16000 रुपये तक आ गई.
बूढ़े, अनुपयोगी पशुओं को बेचकर उन्हें नए पशुओं से से बदलने का चक्र पूरी तरह से बाधित हो गया है, जिसने हाहाकार मचा दिया है. विहिप ने अनुमान लगाया था कि अगस्त, 2016 तक पूरे महाराष्ट्र में 750,000 ‘आवारा मवेशी’ खुलेआम घूम रहे थे. किसानों ने अपनी बेचारगी में इन मवेशियों को खेतों में छोड़ दिया था, क्योंकि वे न तो इन्हें बेच पाने की स्थिति में थे, न ही उनका ख्याल रख सकते थे.
दिलचस्प बात यह है कि इस दौर में महाराष्ट्र में भैंसों की बिक्री औसतन 13,000-14,000 रुपये प्रति सौ किलोग्राम पशुभार के हिसाब से हो रही थी, जबकि राज्य में मवेशियों के वध पर पूर्ण प्रतिबंध से पहले तक इनकी कीमत 10,000-11,000 रुपए तक थी. भैंसों का विक्रय मूल्य भी 40,000 रुपये से बढ़कर 60,000 रुपये हो गया. किसानों का मानना है कि इसके पीछे भैंसों के वध पर कोई प्रतिबंध न होना है.
महाराष्ट्र में भैंसों की आबादी और उससे होने वाले दुग्ध उत्पादन में लगातार वृद्धि हो रही है. महाराष्ट्र में मवेशियों के वध और उनके परिवहन पर पूर्ण प्रतिबंध के कारण अगर 2017 की पशुधन गणना में भैंसों की संख्या में बड़ी वृद्धि दिखाई दे, तो ये कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी.
(यह दो लेखों की श्रृंखला की पहली कड़ी है.)
(सागरी आर. रामदास एक प्रशिक्षित पशु चिकित्सक हैं और फूड सोवरिनिटी अलायंस, इंडिया के साथ काम करती हैं.)
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