उत्तर प्रदेश में भाजपा की बड़ी जीत के बाद से सपा-बसपा गठबंधन की चर्चा लगातार चल रही है. इसके लिए बिहार का उदाहरण दिया जा रहा है, लेकिन जानिए वो दस वजहें जो बताती हैं क्यों उत्तर प्रदेश बिहार नहीं बन सकता है.
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने पिछले दिनों भाजपा को हराने के लिए सपा और बसपा से एक साथ आने का फिर आह्वान किया है. उन्होंने इसके लिए बिहार में राजद और जदयू के गठबंधन का उदाहरण दिया है. लेकिन सवाल है कि क्या उत्तर प्रदेश में यह फाॅर्मूला चल पाएगा और अगर ऐसा कोई समीकरण बनता भी है तो क्या उससे वास्तव में भाजपा और उसके एजेंडे को रोका जा सकता है?
बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति के जमीनी समीकरणों और धरातल पर तैरने वाली धारणाओं को समझने वालों के लिए लालू प्रसाद यादव का यह सुझाव शायद ही व्यवहारिक लगे. क्योंकि बिहार और यूपी को सिर्फ कथित सामाजिक न्याय की राजनीति की प्रयोगस्थली के बतौर देखने से भले ही दोनों राज्यों की राजनीति में बहुत कुछ समान लगता हो लेकिन ऐसा है नहीं.
उत्तर प्रदेश के बिहार न बन पाने की 10 वजहें
पहला, बिहार में सामाजिक न्याय के एजेंडे के साथ राजनीतिक दलों की सत्ता तक पहुंच यूपी के मुकाबले काफी पुरानी है. वहां, पिछड़ी जाति के नेता की छवि रखने वाले कर्पूरी ठाकुर पहली बार दिसंबर 1970 से जून 1971 तक और दूसरी बार दिसंबर 1977 से अप्रैल 1979 तक मुख्यमंत्री रह चुके थे.
वहीं, यूपी में यह पहली बार 1989 में ही वास्तव में हुआ माना जाएगा जब मुलायम सिंह यादव जनता दल से मुख्यमंत्री बने थे. हालांकि उनसे पहले भी अन्य पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखने वाले चंद्रभानु गुप्त, बनारसी दास, चौधरी चरण सिंह और राम नरेश यादव भी मुख्यमंत्री रह चुके थे लेकिन इनके इर्द-गिर्द किसी जातिगत और अस्मितावदी एजेंडे पर गोलबंदी नहीं हुई थी. जबकि मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री बनने तक पिछड़ी और अन्य वंचित जातियों में राजनीतिक गोलबंदी की प्रवृत्ति विकसित होने लगी थी.
इस तरह जो राजनीतिक चेतना बिहार केे पिछड़ों और वंचितों में 70 के दशक में आ चुकी थी वो यूपी में 90 के दशक में आनी शुरू हुई थी.
ये बीस सालों का गैप दोनों सूबों की पिछड़ों-दलितों की चेतना के फर्क को तय करने में काफी अहम रहा है. दरअसल, 70 के दशक की बिहार की पिछड़ों-दलितों की अस्मितावादी चेतना में वर्गीय और सैद्धांतिक पक्ष ज्यादा निर्णायक रहा है.
मसलन, कर्पूरी ठाकुर जिस चुनावी वादों पर मुख्यमंत्री बने थे उसमें यह वादा भी शामिल था कि सरकार दलितों और कमजोर तबकों को आत्मरक्षार्थ न सिर्फ हथियार के लाइसेंस देगी बल्कि उन्हें चलाने का प्रशिक्षण भी देगी.
इस तरह वहां सामंती हिंसा से सुरक्षा का सवाल एक रेडिकल राजनीतिक सवाल रहा है. जिसमें सबसे अहम भूमिका वहां के वामपंथी आंदोलनों का रहा जिसने पिछड़ों, दलितों और अन्य कमजोर तबकों में सत्ता और सामाजिक संतुलन को अपने पक्ष में झुकाए रखने का वैचारिक और रणनीतिक आधार मुहैया कराया था.
वहीं, यूपी में सामाजिक न्याय की राजनीति विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष कर आगे नहीं बढ़ी है. बल्कि वो बहुत हद तक मंडल कमीशन के लागू हो जाने और उससे अधिकारों की प्राप्ति के उपरांत खड़ी हुई है, जिसके चलते उसमें न तो कभी भी कोई आक्रामकता रही है और ना ही कोई सैद्धांतिक दिशा.
इसकी एक बड़ी वजह बिहार की तरह यहां किसी वामपंथी राजनीति के दबाव का न होना भी रहा है. कर्पूरी ठाकुर जिस वादे को 70 के दशक में कर चुके थे वैसी कल्पना यूपी में कभी भी सामजिक न्याय के नेता नहीं कर पाए हैं. इसीलिए यूपी का पिछड़ा और दलित वर्ग में अपने बिहारी प्रतिरूप के मुकाबले सवर्णवादी राजनीति से समझौता कर लेने की प्रवृत्ति ज्यादा रही है.
दूसरा, वहीं अगर हम दलितों की राजनीतिक चेतना पर गौर करें तो बिहार में वह चुनावी राजनीति में कोई स्वतंत्र धारा तो नहीं बन पाई जैसा कि यूपी में हुआ. लेकिन सामाजिक राजनीतिक तौर पर ज्यादा जुझारूपन बिहार की दलित जातियों में रेखांकित किया जा सकता है.
इसका भी श्रेय वामपंथी खासकर नक्सल धारा की सामंतवाद विरोधी आंदोलनों को जाता है. यह जानकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि बिहार में महिला थानों की तर्ज पर दलित थाने हैं और ऐसा बिना किसी दलित राजनीति के स्वतंत्र वजूद के हैं.
वहीं यूपी में राजनीतिक सत्ता तक कई बार पहुंचने के बावजूद दलित अस्मिता कभी भी अपनी वैचारिक और सैद्धांतिक धमक नहीं दर्शा पाई है.
तीसरे, बिहार की राजनीति मुख्य तौर पर पिछड़ा बनाम अगड़ा में विभाजित है. जिसमें अगड़ा कभी नितीश की जदयू पर भाजपा से तालमेल के चलते दाव लगाता रहा है तो कभी स्वतंत्र तौर पर भाजपा पर.
लेकिन यूपी में मुख्य राजनीतिक विभाजन इस विधान सभा चुनाव से पहले पिछड़ा बनाम दलित ही रहा है. जिसमें सवर्ण जातियां मुख्यतः पिछड़ों और दलितों की मूल जनाधार वाली पार्टियों सपा और बसपा में से किसी के साथ रहती रही हैं.
इस तरह, बिहार में कहीं पर भी दलित और पिछड़ी जातियों की राजनीति खुलकर एक दूसरे के खिलाफ खड़ी नहीं है. वे अमूमन सवर्ण एजेंडे के खिलाफ एक साथ रही हैं.
चौथे, बिहार में यूपी के मुकाबले पिछड़ों में टूटन कम है जिसकी एक अहम वजह बिहार में पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण में अतिपिछड़ों के लिए अलग से कोटा होना है. इसी तरह महादलितों के वर्गीकरण से उन्हें अभी तक भले कुछ ठोस न मिला हो लेकिन दलितों में भी सबसे कमजोर तबकों की इससे एक अलग पहचान जरूर बनी है. जो किसी भी दूसरे राज्य में वे पाने में कामयाब नहीं हुए हैं.
इसके कारण पिछड़ी और दलित जातियों के अंदर अपना हिस्सा छीन लेने की शिकायत की गुंजाईश ज्यादा नहीं रह जाती है, जबकि यूपी में अतिपिछड़ों और दलितों के एक बड़े हिस्से की शिकायत रही है कि कुछ जातियों ने ही सभी का हिस्सा हड़प रखा है.
इस तरह यूपी में पिछड़े और दलितों का यह हिस्सा बहुत आसानी से अस्मितावादी राजनीति के दायरे से बाहर निकल जाता रहा है जैसा कि इस चुनाव में भी देखने को मिला.
पांचवा, बिहार में पिछले दो दशक से पिछड़े वर्ग की दो मजबूत जातियों यादव और कुर्मी नेताओं के मुख्यमंत्री बनने के कारण इन दोनों बड़ी जातियों में एक दूसरे के प्रति धोखा देने की शिकायत नहीं है.
इस तरह, इनमें काॅमन हित में एक दूसरे के साथ आने में भी कोई खास परेशानी नहीं है. जैसा कि बिहार विधान सभा चुनाव में देखा गया. जबकि यूपी में कुर्मी और यादव एक साथ नहीं रह पाते क्योंकि लगभग समान वर्णगत और संख्यागत हैसियत के बावजूद यादव कुर्मियों से कहीं ज्यादा सशक्त हुए हैं. जिसके लिए वे सपा पर ओबीसी के नाम पर सिर्फ यादवों के सशक्तिकरण का आरोप लगाते हैं.
इसीलिए हम देखते हैं कि कुर्मी पिछड़े वर्ग में आने के बावजूद दलित वर्ग की पार्टी मानी जाने वाली बसपा के बहुत समर्पित वोटर रहे हैं. यानी बिहार के मुकाबले यूपी में पिछड़ों के दो बड़े राजनीतिक समूहों के बीच एकता न के बराबर रही है. ये समीकरण सत्ता तक पिछड़ों की पहुंच के लिए बहुत जरूरी है.
छठवां, किसी जमीनी संघर्ष और ठोस वैचारिक दिशा के अभाव के कारण यूपी का ओबीसी और दलित वोटर बहुत आसानी से भाजपा के राजनीतिक एजेंडे का ग्राहक बन जाता है. इसीलिए हम देखते हैं कि बिहार के मुकाबले यूपी के विधान सभा चुनाव में इन वर्गों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के वैचारिक एजेंडे के साथ बहुत आसानी से चला गया.
इसीलिए हमने देखा कि बिहार में आरक्षण की समीक्षा की मांग करने संबंधी मोहन भागवत के बयान ने वहां पिछड़ों और दलितों को भाजपा के खिलाफ लामबंद कर दिया. लेकिन संघ नेता मनमोहन वैद्य और केंद्रीय मंत्री जनरल वीके सिंह की ऐसी ही टिप्पणियों के बावजूद यूपी में पिछड़ों और दलितों में यह कोई मुद्दा नहीं बन पाया.
इसी बुनियाद पर हम यह भी कह सकते हैं कि जिस तरह बिहार विधानसभा चुनाव में लालू ने हाथ में ‘बंच आॅफ थाॅट’ लेकर संघ के सवर्णवादी नजरिये को कटघरे में खड़ा किया वैसा करने की उम्मीद हम मुलायम या मायावती ने नहीं कर सकते.
सातवां, भाजपा और संघ परिवारी संगठनों के लिए भावनात्मक लामबंदी के तीनों प्रमुख प्रतीक स्थल अयोध्या, काशी और मथुरा यूपी में हैं. जिसके इर्द-गिर्द होने वाली गतिविधियों से अप्रभावित रह पाना यूपी के अस्मितावादी वोट बैंक के लिए बहुत मुश्किल होता है.
वहीं बिहार में ऐसे किसी स्थल का नहीं होना वहां इन वर्गों को अपने ठोस मुद्दों से भटकने से रोकता है. इसीलिए हम कह सकते हैं कि आडवाणी की रथ यात्रा को यूपी में मुलायम सिंह यादव नहीं रोक सके और बिहार में लालू यादव द्वारा आडवाणी को रोकने के बावजूद वहां कोई प्रतिक्रिया नहीं हो पाई.
आठवां, सपा और बसपा के गठबंधन के किसी भी प्रयास को मुस्लिम बहुत सकारात्मक उत्साह से नहीं लेगा. क्योंकि इन दोनों पार्टियों के प्रति उसमें आएएसएस के एजेंडे को ही लागू करने और वोट के बदले में सिर्फ दंगे और बदहाली मिलने की शिकायत उसे है.
जबकि बिहार में लालू के प्रति मुसलमानों का ज्यादा सकारात्मक रूझान रहा है. जिनके पीछे लामबंद होकर वह भाजपा के साथ सरकार चला चुके नितीश के साथ भी जाने को तैयार रहता है. मुलायम का लालू नहीं हो पाना मुसलमानों को ऐसे किसी भी गठजोड़ को विश्वास भरे नजर से देखने से रोकता है.
नौवां, यूपी और बिहार के मुसलमानों में साम्प्रदायिक हिंसा के अनुभव का फर्क भी एक अहम निणार्यक पहलू है जो ऐसे किसी समीकरण को मजबूरी तो मान सकता है, लेकिन अच्छा नहीं.
दरअसल, बिहार में आरक्षित वर्गाें में मुसलमानों के प्रति वैसी साम्प्रदायिक नफरत नहीं अनुभव की जाती रही है जितनी कि यूपी में. हालांकि अब वहां भी हालत तेजी से बदले हैं. लेकिन बिहार के मुकाबले यूपी में मुसलमानों का अनुभव दलितों और पिछड़ों से दंगों के दौरान बहुत खराब रहा है.
दसवां, सबसे अहम कि सपा और बसपा के गठबंधन से भाजपा को रोकने की रणनीति इसलिए भी मुश्किल है कि भाजपा के आर्थिक नीतियों से अलग कोई वैकिल्पक नीति यहां सपा और बसपा नहीं रख पाई हैं.
इसके उलट इन दोनों पार्टियों ने भाजपा की तैयार की गई ‘विकास’ की पिच पर ही खेलने की कोशिश की. जबकि बिहार में नितीश जहां ‘विकास’ के पिच पर खेेलते हैं वहीं लालू सामाजिक न्याय के जातीय पहलूओं पर जोर देते हैं.
ऐसे में लालू प्रसाद यादव का सुझाव तो अच्छा हो सकता है लेकिन इस पर अमल मुश्किलों भरा है.