विशेष रिपोर्ट: मध्य प्रदेश में पिछले तीन विधानसभा चुनाव हारकर 15 सालों से वनवास भोग रही कांग्रेस इस बार सत्ता में वापसी करने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है. लेकिन, सुर्ख़ियों में पार्टी की अंदरूनी उठापटक ही हावी है.
26 अप्रैल 2018, मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के तौर पर सांसद कमलनाथ की नियुक्ति. यह तारीख और नियुक्ति इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि राज्य में साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस तत्कालीन अध्यक्ष अरुण यादव को बदलकर एक नए अध्यक्ष के साथ मैदान में उतरना चाहती थी. एक ऐसे चेहरे के साथ जो प्रदेश की पार्टी इकाई में सर्वमान्य हो, अनुभवी हो और मुख्यमंत्री शिवराज के सामने टिकने की क्षमता रखता हो.
लेकिन, पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि कई धड़ों में बंटी गुटबाजी का शिकार प्रदेश कांग्रेस में किसके सिर अध्यक्ष का ताज रखा जाये?
उस समय दावेदार तो कई थे लेकिन सांसद कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच लोकप्रियता के मामले में कतार में दूसरों से कहीं आगे खड़े थे. कांग्रेस आलाकमान के सामने सिंधिया धड़े और कमलनाथ धड़े को साधने के साथ-साथ अन्य धड़ों को भी साधने की चुनौती थी.
इसी उधेड़बुन में लंबे समय तक फैसला टाला जाता रहा. आखिरकार, बतौर अध्यक्ष कमलनाथ की ताजपोशी और ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख नियुक्त करने के रूप में आया. साथ ही साथ, चार कार्यकारी अध्यक्षों की भी नियुक्ति की गई जो कि अलग-अलग धड़ों का प्रतिनिधित्व करते थे.
इस तरह कांग्रेस 2013 की तरह वो गलती करने से बच गई जहां उसने अंत समय में चुनाव अभियान की कमान सिंधिया को सौंपी थी. हालांकि, वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई ने कमलनाथ की नियुक्ति को प्रदेश में कांग्रेस की अंदरूनी गुटबाजी साधने की एक नाकाम कोशिश ठहराया था.
लेकिन कांग्रेस की सोच थी कि प्रदेश में ही नहीं, केंद्र में भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ के नाम पर गुटबाजी की शिकार राज्य इकाई के सभी क्षत्रपों को साधा जा सकता था, जबकि ज्योतिरादित्य अपेक्षाकृत युवा थे जिनके अध्यक्ष बनने पर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बिखरने की संभावना रहती.
हुआ भी ऐसा ही, प्रदेश के सभी बड़े नेता अजय सिंह, सुरेश पचौरी, दिग्विजय सिंह, कांतिलाल भूरिया, अरुण यादव, सिंधिया एक मंच से हुंकार भरते नजर आये.
उम्मीद तो थी कि अब कांग्रेस को उन परिस्थितियों से दो-चार नहीं होना पड़ेगा जहां चुनाव का टिकट पाने की महत्वाकांक्षा रखने वालों से पार्टी फंड में 50,000 रुपये का डिमांड ड्राफ्ट जमा कराने के लिए कह दिया गया था, जिसे प्रदेश के बड़े नेताओं के विरोध और मीडिया की सुर्खियां बनने के चलते मचे बवाल के बाद वापस लेना पड़ा.
लेकिन, क्या वास्तव में प्रदेश कांग्रेस में उस एक फैसले से सब कुछ ठीक हो गया था? गुटबाजी समाप्त हो गई थी, निर्णयों की अस्पष्टता दूर हो गई थी, क्या पार्टी संगठित होकर शिवराज सरकार को चुनौती देकर अपना 15 सालों का वनवास खत्म करने की स्थिति में आ गई है?
अगर पिछले कुछ समय में प्रदेश कांग्रेस के कामकाज पर गौर करें तो ऊपरी तौर पर संगठित दिखती पार्टी में अभी भी उतना ही बिखराव है जितना कि कमलनाथ से पहले था.
कमलनाथ के अध्यक्ष बनने पर मंच से भले ही पार्टी ने एकजुटता की तस्वीर पेश की हो लेकिन पार्टी वास्तव में कितनी एकजुट थी इसका उदाहरण तब मिला जब महीने भर बाद ही पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की अध्यक्षता में एक समन्वय समिति का गठन करके उसे गुटबाजी समाप्त करने का काम सौंपना पड़ा जो गुटबाजी व्याप्त होने की तस्दीक करता है.
हालांकि, समन्वय समिति का गठन भी कम विवादित नहीं रहा. ऊपरी तौर पर यह गुटबाजी समाप्त करने की कांग्रेस की एक कवायद थी लेकिन सत्यता यह थी कि यह दिग्विजय को साधने की एक कोशिश मात्र थी. गुटबाजी दूर करने के लिए बनाई गई यह समिति स्वयं गुटबाजी की ही देन थी.
नर्मदा परिक्रमा यात्रा समाप्त करने के बाद दिग्विजय सिंह ने घोषणा की कि वे हर विधानसभा क्षेत्र में जाएंगे और कार्यकर्ताओं एवं नेताओं को एकजुट कर आगामी चुनाव के लिए पार्टी को तैयार करेंगे. उनका कहना था कि प्रदेश के नेताओं में इस हद तक गुटबाजी है कि कोई किसी की नहीं सुनता.
इस बीच कांग्रेस का एक अंदरूनी सर्वे मीडिया में सामने आया जिसमें कहा गया कि दिग्विजय का जनता के बीच जाना कांग्रेस को नुकसानदेह हो सकता है और कांग्रेस ने उन्हें यात्रा पर जाने से रोक दिया. इस दौरान कमलनाथ की ताजपोशी भी बतौर अध्यक्ष हो गई. उन्होंने 12 मई को निर्देश जारी किए कि बिना पार्टी की अनुमति कोई भी यात्रा नहीं निकाली जाएगी.
फिर अचानक 22 मई को पार्टी ने दिग्विजय सिंह की अध्यक्षता में समन्वय समिति का गठन करके दिग्विजय को वही काम आधिकारिक तौर पर सौंप दिया जो कि वे पहले निजी यात्रा के माध्यम से करना चाहते थे.
विशेषज्ञ मानते हैं कि यात्रा से रोके जाने के बाद दिग्विजय की नाराजगी दूर करने के लिए केवल उन्हें सांत्वना देने हेतु उनकी अध्यक्षता में समन्वय समिति बनाई गई.
जो अपने आप में एक उदाहरण था कि जो सब कुछ ठीक दिख रहा है, वास्तव में पार्टी में वैसा चल नहीं रहा है. ऐसे अनेकों उदाहरण बीते समय में मिलते हैं जो दिखाते हैं कि आगामी चुनावों को लेकर पार्टी अस्पष्टता की स्थिति में है और न उसके पास कोई रणनीति है.
दिग्विजय सिंह ने ‘द वायर’ से अगस्त में हुए साक्षात्कार में स्वीकारा भी कि पार्टी में अभी भी गुटबाजी है जिसे वह वक्त रहते दूर कर लेंगे.
गौरतलब है कि जब चुनावों में दो-ढाई माह का समय बचा हो और गुटबाजी को दूर करने की जिम्मेदारी निभाने वाला शख्स ही गुटबाजी मौजूद होने की बात स्वीकारे तो यह उस पार्टी के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. और यही चिंता कारण है कि पार्टी टिकट बांटने के संबंध में कोई निर्णय नहीं ले पा रही है.
पार्टी की ओर से कहा गया था कि इन विधानसभा चुनाव में पिछले चुनावों की गलतियां नहीं दोहराई जाएंगी. उम्मीदवारों को टिकट जल्दी बांट दिए जाएंगे ताकि उन्हें तैयारी के लिए पर्याप्त वक्त मिल सके. इस संबंध में 15 अगस्त की तारीख तय की गई थी. लेकिन, अब तक टिकट वितरण नहीं हुआ है और बार-बार तिथि बढ़ाई जा रही है. अब कमलनाथ ने कहा है कि पहली सूची सितंबर के अंत तक जारी कर देंगे.
इसी तरह प्रदेश इकाई की ओर से पहले नियम बनाया गया कि संगठन में कार्यरत नेताओं को टिकट नहीं दिया जाएगा लेकिन फिर अपनी ही घोषणा से किनारा करके पार्टी पदाधिकारी कहते नजर आये कि अगर संगठन का पदाधिकारी टिकट मांगता है और उसमें जीतने की क्षमता है तो उसे टिकट दिया जा सकता है.
टिकट वितरण के संबंध में पार्टी एक तरह से दिशाहीन, रणनीतिविहीन ही नजर आती है. उसके हालिया फैसलों से लगता है कि अब तक पार्टी में यही तय नहीं हो सका है कि टिकट पाने की योग्यता क्या होनी चाहिए? किस उम्मीदवार पर क्यों दांव खेला जाना चाहिए? टिकट वितरण की क्या शर्तें और नीतियां होनी चाहिए?
इसलिए कभी टिकट के दावेदारों से पार्टी फंड में डिमांड ड्राफ्ट की मांग की जाती है तो कभी सोशल मीडिया पर फॉलोवर्स की.
पिछले दिनों पार्टी संगठन प्रभारी और उपाध्यक्ष चंद्रप्रभाष शेखर ने सर्कुलर जारी किया कि टिकट उन्हीं दावेदारों को मिलेगा जिनके फेसबुक पेज पर 15,000 लाइक हों और ट्विटर पर 5,000 फॉलोवर्स.
चूंकि चंद्रप्रभाष कमलनाथ की कार्यकारिणी का ही हिस्सा हैं तो स्वाभाविक था कि कमलनाथ की भी इसमें स्वीकृति रही होगी.
यह एक अजीबोगरीब, तथ्यहीन, विवेकहीन, बिना किसी शोध और विमर्श के लिया गया फैसला था. क्या कमलनाथ को जानकारी नहीं थी कि सोशल मीडिया पर फॉलोवर बढ़ाने का काम करने वाली कई आईटी कंपनियां सक्रिय हैं जो एक ही दिन में फॉलोवर बढ़वा सकती हैं? नतीजा यह हुआ कि कमलनाथ को यह फैसला वापस लेना पड़ा.
कमलनाथ की टिकट वितरण नीति से जुड़ी ऐसी ही एक और घोषणा विवादों में रही. एक प्रेस कांफ्रेंस में टिकट वितरण के संबंध में बात करते हुए वे कह गए कि टिकट पाने के 2500 दावेदारों की लिस्ट उनके पास है जिसमें 30 भाजपा के विधायक भी शामिल हैं जो कांग्रेस से टिकट चाहते हैं. बाद में वे आपने दावे से मुकर भी गए.
अगर उनकी बात पर यकीन भी कर लें तो विरोधाभास तब सामने आता है जब अगले दिन राहुल गांधी भोपाल के भेल मैदान से घोषणा करते हैं कि पैराशूट उम्मीदवारों को टिकट नहीं दिए जाएंगे. केवल सालों से पार्टी के लिए काम कर रहे कार्यकर्ता ही टिकट पाएंगे.
इसी कड़ी में प्रदेश कांग्रेस प्रभारी दीपक बावरिया की उस घोषणा का भी जिक्र करना जरूरी है जहां उन्होंने 60 वर्ष से अधिक उम्र वाले नेताओं और दो बार लगातार चुनाव हारने वालों को टिकट नहीं देने की बात की थी. इस पर भी पार्टी के अंदर काफी बबाल मचा था. नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह से लेकर पार्टी का लगभग हर वह नेता जो कि 60 की उम्र पार कर चुका था, खुलकर विरोध में सामने आया.
एक टिकट के दावेदार नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘टिकट वितरण में लगातार देरी हमारी चुनावी तैयारियों पर असर डालेगी ही. जो पहली सूची जारी हो रही है उसमें भी उनके नाम होंगे जो कि मौजूदा विधायक हैं या उन सीटों पर उम्मीदवार घोषित किए जाएंगे जिन पर दावेदारी करने वालों की संख्या कम है या एक-दो ही दावेदार हैं. लेकिन असली चुनौती तो उन सीटों पर है जहां 10-10 दावेदार टिकट पाने की कतार में हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘टिकट तो एक को ही मिलेगा. बाकी 9 नाराज हो जाएंगे. अंत समय में टिकट मिलेगा तो नाराज लोगों को मनाने का भी समय नहीं मिलेगा. नुकसान पार्टी का ही होगा.’
टिकट के एक अन्य दावेदार जो कि पिछला विधानसभा चुनाव भी लड़ चुके हैं और दशकों से कांग्रेस से जुड़े एक प्रभावशाली परिवार से ताल्लुक रखते हैं, कहते हैं, ‘बार-बार शर्तें बदलना, नए नियम लाना, इससे एक भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है. वहीं, अंदर की बात तो यह है कि सार्वजनिक तौर पर तो नियम वापस ले लिए जाते हैं लेकिन होता यह है कि पार्टी अंदर ही अंदर उन्हीं क्राइटेरिया को फॉलो करते हुए टिकट बांटती है.’
वे उदाहरण देते हुए बताते हैं, ‘पहले 50,000 के बांड की जो शर्त लाए थे. उसके वापस लेने तक कई दावेदार वह बांड जमा करा चुके थे. बाद में उनका पैसा लौटा दिया गया. लेकिन जिन-जिन दावेदारों ने पैसा दिया था, उनकी लिस्ट पार्टी के पास पहुंच गई और अब टिकट देने के मामले में उनके नामों को ही प्राथमिकता में रखा जा रहा है. कहने को तो नियम वापस लिया जा चुका है लेकिन जिन्होंने पैसे जमा कराए, उन्हें टिकट पाने के लिए गंभीर माना जा रहा है.’
पार्टी की समस्या केवल गुटबाजी और टिकट वितरण को लेकर अस्पष्टता तक ही नहीं सिमटी. हालात यह हैं कि अगर कहा जाये कि प्रदेश कांग्रेस के एक हाथ को नहीं पता कि उसका दूसरा हाथ क्या कर रहा है, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.
एक ओर तो कांग्रेस बिना किसी मुख्यमंत्री के चेहरे के चुनाव लड़ रही है तो दूसरी ओर प्रदेश प्रभारी दीपक बावरिया ऐलान कर देते हैं कि सरकार बनने पर प्रदेश में पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष सुरेंद्र चौधरी उप मुख्यमंत्री बनेंगे क्योंकि वे दलित हैं.
यह बयान कांग्रेस कार्यालय में ही एक सभा में दिया गया और कांग्रेस के अन्य नेताओं को इसकी जानकारी तक नहीं थी. नतीजतन पार्टी के अंदर ही इसे लेकर घमासान हुआ. एक अन्य दलित नेता सज्जन सिंह वर्मा सहित और भी कांग्रेसी खुलकर विरोध में उतर आए.
कुछ समय बाद दीपक बावरिया ने कमलनाथ और सिंधिया में से किसी एक के मुख्यमंत्री बनने की घोषणा कर दी. जिसकी प्रतिक्रिया में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के समर्थकों ने उन पर हमला करके झूमा-झटकी तक कर दी.
फिर चाहे 50,000 के डिमांड ड्राफ्ट की बात रही हो या फिर 60 तक की उम्र वालों को टिकट, घोषणाएं हो भी जाती हैं और किसी को पता भी नहीं चलता.
कांग्रेस की पोल खोल जनजागरण यात्रा भी इसी कुप्रबंधन से अछूती नहीं रही. शिवराज की जनआशीर्वाद यात्रा के खिलाफ पार्टी जनजागरण यात्रा निकालने की घोषणा करती है. कहती है कि जहां-जहां शिवराज अपनी यात्रा लेकर जाएंगे, उनके पीछे-पीछे कांग्रेस अपनी जनजागरण यात्रा निकालेगी और जनआशीर्वाद यात्रा में शिवराज द्वारा किए दावों की पोल खोलेगी. लेकिन, फिर वह यात्रा एक तरह से सुर्खियों से ही गायब हो जाती है.
वह अचानक सुर्खियों में तब आती है जब प्रदेश कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष बाला बच्चन यात्रा को असफल बताते हुए सिंधिया से स्वयं कोई अन्य यात्रा निकालने का आग्रह करते हैं.
पहले कांग्रेस ने इस यात्रा में बड़े-बड़े नेताओं के शामिल होने की बात की थी, फिर बाद में उस रणनीति से पीछे हटकर तय किया जाता है कि अब शिवराज की जन आशीर्वाद यात्रा जहा-जहां जाएगी, वहां कांग्रेस पोल खोलने के लिए प्रेस कांफ्रेंस करेगी.
यहां खास बात यह भी है कि 18 जुलाई से जन जागरण यात्रा के शुरू होने का दावा कांग्रेस करती है, लेकिन पार्टी की समन्वय समिति के अध्यक्ष दिग्विजय सिंह को पता ही नहीं होता कि यात्रा शुरू भी हो चुकी है. यात्रा शुरू होने के एक महीने बाद ‘द वायर’ को दिए साक्षात्कार में वे कहते हैं कि यात्रा तो अभी शुरू ही नहीं हुई है.
ऐसा ही एक फैसला प्रदेश के आईटी सेल प्रमुख की नियुक्ति के वक्त देखा गया. बीते दिनों जिन अभय तिवारी की इस पद पर नियुक्ति हुई है, उन पर आरोप लगे कि उन्होंने अपने एनजीओ के लिए भाजपा के नेताओं से करोड़ों का चंदा लिया है.
जब यह खबर सामने आई तो पार्टी के अंदर खलबली मच गई और सवाल उठे कि इतने अहम पद पर ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति पार्टी की गोपनीयता के लिए खतरा है.
पार्टी पदाधिकारी कहते नजर आए कि अगर इस संबंध में पुख्ता जानकारी मिलती है तो कार्रवाई की जाएगी.
कुछ यही हालात मानक अग्रवाल के मीडिया प्रभारी पद से हटाए जाने पर बने. ऐसी खबरें निकलकर सामने आईं कि उनकी रुखसती पार्टी की अंदरूनी गुटबाजी की देन है. हालांकि मानक अग्रवाल ने कहा कि वे विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं इसलिए पार्टी के निर्देशानुसार पद छोड़ा है. लेकिन, उनकी सफाई पर इसलिए भी यकीन नहीं किया गया क्योंकि जिस प्रकार की कांग्रेस की कार्यप्रणाली है, उसमें संदेह होना लाजमी है.
बात कमलनाथ की कार्यकारिणी की करना भी जरूरी है. उन्होंने जब जुलाई के शुरुआती हफ्ते में अपनी 85 सदस्यीय कार्यकारिणी समिति का गठन किया तो कहा कि यह पहली सूची है, इसमें विस्तार करने वाली दूसरी सूची जल्द ही जारी की जाएगी. जिसमें जो नाम रह गए हैं, उन्हें भी शामिल किया जाएगा. लेकिन, लगभग 3 महीने के बाद भी वह सूची जारी नहीं हो सकी है.
कांग्रेस अपनी ही उलझनों में इस कदर उलझी है कि उसके द्वारा भाजपा को घेरने की खबरें सुर्खियों में ही नहीं हैं. सुर्खियों में हैं तो उसकी अंदरूनी खींचतान और फैसले.
उज्जैन में हुई संभागीय बैठक में जब सिंधिया ने पार्टी की महिला नेत्री और प्रवक्ता नूरी खान को मंच से उतार दिया तो उन्होंने घटना की वीडियो सोशल मीडिया पर डालकर सिंधिया के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और उन्हें सामंती सोच वाला बताया. उन्होंने राहुल गांधी को पत्र लिखकर सिंधिया की शिकायत तक कर डाली. नूरी का वास्ता भी सिंधिया विरोधी गुट से बताया जाता है.
गौरतलब है कि प्रदेश में भाजपा सिंधिया के खिलाफ उनकी ‘महाराज’ की छवि को सामंती कहकर ही भुनाती है और नूरी खान का यह आरोप तो भाजपा के लिए अपनी बात साबित करने का कांग्रेस द्वारा दिया गया एक आमंत्रण था.
अरुण यादव को हटाकर कमलनाथ को अध्यक्ष बनाने के बाद भी पार्टी के लिए असहज स्थिति तब बनी, जब पहले तो यादव ने घोषणा कर दी कि वे लोकसभा और विधानसभा के चुनाव नहीं लड़ेंगे. उसके बाद उन्होंने ट्विटर पर भी नाराजगी व्यक्त की और अपरोक्ष रूप से हमलावर रुख अपनाया.
इसी कड़ी में बाद में कमलनाथ का राहुल गांधी को लिखा एक पत्र भी लीक हुआ जिसके संबंध एक वायरल वीडियो में देखा गया कि अरुण यादव कांग्रेस प्रवक्ता दुर्गेश शर्मा से पत्र सार्वजनिक करने पर बात कर रहे हैं.
भाजपा के लिए ये बैठे-बिठाए मिलने वाले मुद्दे रहे. उन्होंने इन्हें भुनाया भी. अरुण यादव को भाजपा उपाध्यक्ष प्रभात झा ने भाजपा में शामिल होने का प्रस्ताव रख दिया.
ऐसा ही पूर्व केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी नटराजन के मामले में देखा गया. नटराजन के विरोध के बावजूद कमलनाथ ने मंदसौर के एक स्थानीय नेता को पार्टी में जगह दे दी. जिसके चलते नाराज नटराजन ने पार्टी पदों से इस्तीफा दे दिया. कुछ समय बाद जब प्रदेश समितियां कमलनाथ ने बनाईं तो नीमच, मंदसौर, रतलाम में नटराजन समर्थकों के इस्तीफे का दौर शुरू हो गया.
एक बैठक के दौरान कमलनाथ के रोकने के बावजूद नटराजन उस बैठक को छोड़कर चली गई थीं.
हालांकि, जब नटराजन ने पार्टी पदों से इस्तीफा दिया था तो दिग्विजय सिंह उन्हें मनाने भी पहुंचे थे लेकिन बावजूद इसके नटराजन की नाराजगी दूर नहीं हुई.
प्रदेश के शीर्ष नेतृत्व के कामकाज के तरीके का असर पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं पर भी पड़ रहा है. यही कारण है कि दीपक बावरिया पर अब तक पार्टी कार्यकर्ता कई बार हमला कर चुके हैं जिनमें उनके साथ धक्का-मुक्की की गई. उन्हें बचाने के लिए एक बार तो कमरे तक में बंद करना पड़ा था.
कार्यकर्ता अलग-अलग गुटों में बंटे हैं. यही कारण है कि चुनाव के ठीक पहले टकराव उन्हें भाजपा से लेना चाहिए लेकिन वे अपने-अपने नेता को मुख्यमंत्री बनवाने के लिए ट्विटर वॉर छेड़कर आपस में टकरा रहे हैं.
पिछले दिनों कमलनाथ और सिंधिया के समर्थकों में सोशल मीडिया पर ऐसी ही जंग छिड़ी. जिसके चलते ‘चीफ मिनिस्टर सिंधिया’ और ‘कमलनाथ नेक्स्ट एमपी सीएम’ ट्विटर पर ट्रेंड करने लगे और दोनों नेताओं को सफाई देने सामने आना पड़ा.
दिग्विजय सिंह को लेकर भी ऐसा ही हुआ. उन्हें भी सीएम चेहरा बनाने के लिए ट्विटर पर उनके समर्थकों ने मोर्चा संभाला. दिग्विजय को भी सामने आकर सफाई देनी पड़ी.
भोपाल में कार्यकर्ता संवाद के दौरान राहुल गांधी को भी ऐसी ही स्थिति से दो चार होना पड़ा. सिंधिया समर्थक ‘सिंधिया सीएम’ लिखा एप्रेन पहनकर आए तो कमलनाथ समर्थकों ने भी उन्हें मुख्यमंत्री बनाए जाने के नारे लगाए.
कार्यकर्ता संवाद में शामिल होने जब राहुल भोपाल पहुंचे तो पूरे शहर को उनके स्वागत में बैनरों, होर्डिंग और कट-आउट से पाट दिया गया. उन पर केंद्र और प्रदेश के सभी जरूरी कांग्रेसी नेताओं को जगह दी गई, लेकिन दिग्विजय सिंह गायब थे.
मामले ने तूल पकड़ा तो स्वयं कमलनाथ ने इसकी निंदा की. यही नहीं, मंच पर भी दिग्विजय सिंह को नजरअंदाज किया गया. बस कमलनाथ और सिंधिया ही राहुल के करीब नजर आए, जबकि इन दोनों के बाद प्रदेश में चुनावों के नजरिये से तीसरा सबसे अहम पद दिग्विजय के पास है.
हर पंचायत में गोशाला बनाना, नर्मदा परिक्रमा पथ निर्माण, राम गमन पथ निर्माण जैसे फैसलों ने भी कांग्रेस की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़ा किया है. कांग्रेस इस तरह का सॉफ्ट हिंदुत्व अपनाकर भाजपा की राह पर है, ऐसा माना जा रहा है. वह शिवराज सरकार की खामियों या विकास की अपनी योजनाएं पेश करने के बजाय गलत राह पर जाती दिखाई दे रही है और विशेषज्ञ इसे प्रदेश कांग्रेस के नीतिविहीन रवैये को ही करार दे रहे हैं.
राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर इसे कांग्रेस की 15 साल का वनवास खत्म करने की बेकरारी करार देते हुए कहते हैं, ‘जीतने के लिए कांग्रेस बदहवासी में ऐसे फैसले ले रही है जो कि नहीं लेने चाहिए. उसके पास वास्तव में कोई रणनीति ही नहीं है.’
बात सही भी जान पड़ती है. कांग्रेस, कमलनाथ और सिंधिया हर बेरोजगार युवा को रोजगार देने की बात तो कर रहे हैं, लेकिन कैसे देंगे, यह रणनीति पेश नहीं कर पा रहे हैं.
कुल मिलाकर कांग्रेस की सत्ता में वापस आने की कोशिश राहुल गांधी द्वारा की गई किसानों की कर्ज माफी और एंटी इंकम्बेंसी पर आकर टिक गई है.
गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘यह सही बात है कि कांग्रेस जो फैसले ले रही है, उन पर काम नहीं कर पा रही है या फैसलों को वापस लेना पड़ रहा है. कारण यह है कि कमलनाथ की नियुक्ति में पार्टी ने देर कर दी. जितना वक्त उन्हें मिलना चाहिए था, उतना नहीं मिला. इसी जल्दबाजी में फैसले भी हो रहे हैं और उलट भी रहे हैं. जिस सोची-समझी रणनीति के साथ आगे बढ़ना चाहिए वह नहीं हो पा रहा है. इसलिए हाल में की गई घोषणाओं पर भी कितना अमल होगा, कुछ कह नहीं सकते.’
वे आगे कहते हैं, ‘जहां तक इस सबसे नुकसान उठाने की बात है तो उसका आकलन नहीं कर सकते लेकिन यह तो तय है कि कम से कम यह परिस्थितियां कांग्रेस को लाभ तो नहीं पहुंचाने वाली हैं. जो लाभ होना चाहिए था,फिलहाल तो होता नहीं दिखता है.’
गठबंधन की बात पर वे कहते हैं कि कांग्रेस की सारी दिक्कत यही है कि चाहे दिल्ली हो या भोपाल हो, वह हमेशा अनिर्णय की शिकार रही है जिसका उसे दिल्ली में नुकसान झेलना पड़ा, मध्य प्रदेश में झेलना पड़ा और अभी भी वह उससे उबर नहीं पाई है.
बहरहाल, चुनावों में महज दो महीने का समय बाकी है और प्रदेश कांग्रेस की वर्तमान स्थिति सत्ता में वापसी के लिए अनुकूल नहीं कही जा सकती है.
(दीपक गोस्वामी स्वतंत्र पत्रकार हैं.)