सबरीमाला मंदिर मामले में अन्य 4 जजों से सहमत न होते हुए पीठ की एकमात्र महिला जज जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा कि धार्मिक प्रथाओं को केवल समानता के अधिकार के आधार पर नहीं परखा जा सकता.
केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश संबंधी मामले को सुनते हुए सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संवैधानिक पीठ की एकमात्र महिला जज जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने बाकी न्यायाधीशों से अलग मत रखते हुए सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को अनुमति देने पर आपत्ति जताई .
लाइव लॉ के मुताबिक उन्होंने कहा, ‘धर्म के मामले में तार्किकता नहीं देखनी चाहिए. कोर्ट को ऐसे मामलों में तब तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जब तक समुदाय या धर्म से कोई पीड़ित या असंतुष्ट न हो.’
उन्होंने यह भी कहा कि भारत में विभिन्न प्रथाएं हैं और एक बहुलतावादी समाज में संविधान को अतार्किक रीतियों को मानने की आज़ादी देनी चाहिए. धार्मिक मान्यताओं को केवल अनुच्छेद 14 के आधार पर नहीं परखा जा सकता.
मालूम हो कि शीर्ष अदालत ने शुक्रवार को अपने फैसले में सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं को जाने की इजाजत दे दी.
कोर्ट ने कहा कि महिलाओं को मंदिर में जाने की इजाजत न देना संविधान के अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता) का उल्लंघन है, लिंग के आधार पर भक्ति में भेदभाव नहीं किया जा सकता है.
अदालत की 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने 4:1 के बहुमत से फैसला दिया. इस पीठ में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अलावा जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस इंदु मल्होत्रा थे.
इनमें से जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने बाकी चार से अलग अपनी राय रखी. जस्टिस मल्होत्रा का कहना था, ‘वर्तमान फैसला केवल सबरीमाला तक सीमित नहीं रहेगा, इसके विस्तृत प्रभाव होंगे. गहरी धार्मिक आस्थाओं के मुद्दे में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए.’
उन्होंने कहा, ‘धार्मिक प्रथाओं को केवल समानता के अधिकार के आधार पर नहीं परखा जा सकता. किसी धर्म के लिए कौन-सी रीत जरूरी है, यह पूजा करने वाले पर निर्भर करता है न कि कोर्ट पर.’
जस्टिस मल्होत्रा ने यह भी कहा कि देश में धर्मनिरपेक्ष माहौल बनाए रखने के लिए गहराई तक धार्मिक आस्थाओं से जुड़े विषयों के साथ छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए.
उनका मानना था कि सती जैसी सामाजिक कुरीतियों से इतर यह तय करना अदालत का काम नहीं है कि कौन सी धार्मिक परंपराएं खत्म की जाएं.
Religious practices can't solely be tested on the basis of the right to equality. It's up to the worshippers, not the court to decide what's religion's essential practice: Justice Indu Malhotra, dissenting judge. #SabrimalaVerdict pic.twitter.com/gNPOS5RAIQ
— ANI (@ANI) September 28, 2018
अब तक केरल के सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 साल तक की महिलाओं का प्रवेश वर्जित था. ऐसी मान्यता है कि यहां के आराध्य अयप्पा ब्रह्मचारी हैं और इस उम्र की महिलाएं माहवारी के चलते मंदिर की शुचिता बनाए नहीं रख पाएंगी.
शीर्ष अदालत का फैसला इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन और अन्य की याचिकाओं पर आया है.
शुक्रवार को इस पर फैसला सुनाते हुए अदालत ने कहा कि लिंग के आधार पर भक्ति या पूजा-पाठ में भेदभाव नहीं किया जा सकता है. जस्टिस नरीमन ने कहा कि 10-50 वर्ष आयु वर्ग की महिलाओं को प्रतिबंधित करने की सबरीमाला मंदिर की परिपाटी का संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 समर्थन नहीं करते हैं.
वहीं राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस फैसले को समानता के अधिकार की जीत बताया है.
आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए शुक्रवार को कहा कि इस निर्णय से समानता के अधिकार की जीत हुई है.
महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने कहा, ‘मैं फैसले का स्वागत करती हूं. अब महिलाएं यह फैसला कर सकती हैं कि वे मंदिर जाना चाहती हैं या नहीं.’
उन्होंने कहा, ‘जब आस्था का अधिकार और समानता का अधिकार एक साथ हों तो जीत समानता के अधिकार की होनी चाहिए.’
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)