जयंती विशेष: जिस दौर में गांधी को ‘चतुर बनिया’ की उपाधि से नवाज़ा जाए, उस दौर में ये लाज़िम हो जाता है कि उनकी कही बातों को फिर समझने की कोशिश की जाए और उससे जो हासिल हो, वो सबके साथ बांटा जाए.
(यह लेख मूल रूप से 2 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित हुआ था.)
प्रिय बापू,
इससे पहले कि आप क़ासिद (संदेश वाहक) से पूछ बैठें और ख़त लिखने वाले के बारे में मालूम करें, मैं खुद ही बता देना चाहता हूं कि आप को मेरे नाम से और मेरे पेशे से कुछ भी मालूम नहीं पड़ेगा.
पंडित नेहरू का मुरीद हूं और ज़ाहिर है चूंकि वो आपको अपना पीर मानते थे, तो मैं स्वयं को आपका भी मुरीद घोषित करता हूं. इतनी चिरौरी सिर्फ इसलिए कर रहा हूं कि आप इस ख़त के मज़मून पर गौर फरमाएं.
वैसे भी एक बिहारी राजकुमार शुक्ल की असंख्य चिरौरियों के बाद ही आप चंपारण आये थे, अतः बिहारी, चिरौरी और आपका पुराना नाता है. और ग़ालिब की तरह मैं यह भी नहीं कह सकता कि,
क़ासिद के आते-आते ख़त इक और लिख रखूं
मैं जानता हूं वो क्या लिखेंगे जवाब में
आपकी 150वीं जन्मतिथि है और सोचा कि जवाहरलाल जी की ख़त वाली स्टाइल में आपके विचारों को आज के संदर्भ में आपसे ही बातचीत के बहाने साझा करूं. लिखने तो बैठ गया लेकिन सहज नहीं हो पा रहा हूं क्योंकि कितना कुछ है कहने को और आज के हालात शब्दों और भावों को चंद लफ़्ज़ों में समेटना बहुत ही दुष्कर हो चला है.
असहज होने की एक और बड़ी वजह है कि आपको पढ़ने, समझने और समझाने के लिए जो आंखे चाहिए, जो नज़र चाहिए उसकी जितनी मात्रा चाहिए उतना शायद है नहीं… बकौल मजाज़… ‘वो ज़ज्बा ए मासूम कहां से लाऊं.’
आपकी जब 100वीं सालगिरह मनाई गयी होगी तब मैं दो वर्ष का था, जब 125वीं सालगिरह मनाई जा रही थी तो मैं 27 वर्ष का था और एक विश्वविद्यालय में कार्यरत था.
और आज आपकी 150वीं सालगिरह पर 50 से आगे निकल कर पाता हूं पूरा मुल्क किसी न किसी रूप में आपको स्मरण कर रहा है. इतनी शिद्दत और मायूसी के ऐसे उबाल के साथ हमने कभी आपको याद किया हो, मुझे स्मरण नहीं पड़ता.
आज जो देख रहा हूं वो सुखद भी लग रहा है लेकिन परेशान भी कर रहा है… पूरे देश में स्वयंसेवी संगठन, नागरिक समाज, विश्वविद्यालयों द्वारा आपको पुरजोर याद किया जा रहा है.
कुछ तो बदला है… हमारे देश में, इसके परिवेश में कि हम सब ‘पेशानी पर बल’ और ‘दिल में कई तरह के ख्यालात’ लिए अपने बापू को याद कर रहे हैं.
जिस दौर में आपको ‘चतुर बनिया’ की उपाधि से सरेआम नवाज़ दिया जाए और आपके हिंदुस्तान में ज्यादा प्रतिरोध न दिखे, उस दौर में ये लाजिम हो जाता है कि आपको आज के संदर्भ में आप ही कही गयी बातों के माध्यम से समझने की कोशिश की जाए और जो कुछ हासिल हो उसे सबके साथ बांटा जाए.
आपको तो याद ही होगा कि आज़ादी के ठीक 2 महीने पूर्व जून 1947 में उन तमाम उन लोगों से जो तक़सीम (विभाजन) की हकीकत को स्वीकार कर चुके थे और चाहते थे बाकी सब भी इस हकीकत को मान लें. तब आपने कहा था कि
‘मैं तो कहता कहता चला जाऊंगा, लेकिन किसी दिन याद आऊंगा कि एक मिस्कीन (दीन/असहाय) आदमी जो कहता था, वही ठीक था.’
तक़सीम के उस माहौल में जब हजारों साल की रवायतें छिन्न-भिन्न की जा रही थीं और सार्वजनिक जीवन में नफ़रत और बैर के काले बादलों ने आस-पड़ोस और गांव-गलियों को सिरे से बदल का रख दिया था, आपने वो कर दिखाया जो सेना और पुलिस नहीं कर पाई.
कलकत्ता और नोआखाली में आपकी पहलकदमियों से खून-खराबे के माहौल में टूटते बिखरते रिश्तों के बीच अमन की घर-वापसी हो गयी. सच कहूं तो आपके मुल्क के हालात विभाजन के दौर से भी बुरे हो चले हैं. और आपके आधे कद का भी कोई नहीं है हमारे बीच जिससे आपके अपने मुल्क के लोग अपनी व्यथा कह सकें.
कोई नहीं है जो सुन सके और भरोसा दिला सके कि सब ठीक हो जाएगा. मुल्क की अपनी हदों में क़ौमों और लोगों के बीच सरहदें बना दी गई हैं, जिसके आर-पार सैंकड़ों सालों के रिश्ते ज़मीन पर टूटे बिखरे पड़े हैं. कोई नहीं है बापू, जो इन रिश्तों की नैसर्गिकता और गर्माहट को फिर से बहाल कर सके.
बापू! आज एक अजीब किस्म की गरम हवा से हम सब परेशान हैं बल्कि यूं कहूं कि अब तो वो लू में तब्दील हो चुकी है, ये दिन-रात का फर्क नहीं करती न ही मौसम की परवाह करती है. आप को क्या बताएं आप तो स्वयं गरम हवा के संदर्भ और उसके सरोकारों से वाकिफ हैं.
इसी गरम हवा के असर से एक ‘अंधराष्ट्रवादी’ को आपकी कार्यशैली और आपके विचार इतने नागवार गुजरे कि उसने कई गोलियां आपके जिस्म में उतार डाली और आप ‘हे राम’ कहते हुए उस धरती पर गिर गए जिसे आज़ाद कराने के क्रम में आपने अनेकता में एकता की वो माला भी पिरो डाली जो तब असंभव-सी लगती थी.
उन गोलियों में से कुछ आपके नए आज़ाद मुल्क-हिंदुस्तान को भी लगे थे और वो अब तक जिस्म से निकाले नहीं जा सके हैं और शायद इसलिए ‘हे राम’ की गूंज लगातार सुनाई देती है. हर रोहित वेमुला, अखलाक़,पहलू खान और न जाने असंख्य अन्य लोगों की हत्या के बाद ‘हे राम’ बार बार गूंजता है.
30 जनवरी 1948 वाली गूंज शांत होने का नाम ही नहीं ले रही है. आप से बड़ा गोरक्षक हमारी स्मृति में तो कोई नहीं है और आपने ही कहा था कि ‘जो लोग हिंसक माध्यमों से गोरक्षा की वकालत करते हैं वो हिंदू धर्म को शैतान के चरित्र में तब्दील करना चाहते हैं.’
और आज आप के ही प्यारे हिंदुस्तान में एक प्रेरित भीड़ महज शक की बिना पर अपने पड़ोसी भाइयों को मौत के घाट उतार देती हैं और कानून का निज़ाम उस भीड़ के सामने रेंगता प्रतीत होता है. आप बहुत याद आते हैं बापू! क्योंकि बकौल जिगर मुरादाबादी
इंसान के होते हुए इंसान का ये हश्र
देखा नहीं जाता है मगर देख रहा हूं
27 नवंबर 1947 को अपनी प्रार्थना सभा के अंत में अपनी पीड़ा को अपने लोगों से हमवतनों से साझा करते हुए आपने कहा था:
‘जो इंसान हैं और समझदार है वह इस तरह के वातावरण में साबुत नहीं रह सकता है. यह मेरी दुख की कथा है या यूं कहूं कि सारे हिंदुस्तान के दुख की कथा है.’
ये आपके जीवन का एक ऐसा क्षण था जहां आप थोड़े तनहा से हो गए थे… आप जानते थे कि भीड़ की हिंसा सब कुछ लील जायेगी… आप इस ‘न बदलने वाले मौसम से जूझ रहे थे’.
आपकी शिकायत उस सामूहिक पागलपन से थी जिसका चित्रण सआदत हसन मंटो ने ‘टोबा टेक सिंह’ में किया था. पलटकर देखता हूं तो पाता हूं कि आपके अंतर्मन में कई टोबा टेक सिंह उबाल ले रहे थे. न मंटो हैं और न आप जैसा कोई है हमारे बीच, जिससे साबुत न रह पाने का दर्द साझा किया जा सके.
लेखकों और इतिहासकारों ने आपको तरह-तरह के विशेषणों से नवाज़ा है… कोई आपको सिद्ध बताता है तो कोई सदी का सबसे बड़ा महापुरुष और कुछ तो आपको दैवीय शक्तियों से संपन्न पाते थे.
हमें तो आप हमेशा आइंस्टीन वाले हाड़-मांस के मानव लगे, जिसने बड़ी शिद्दत से पहले खुद को समझा और फिर दुनिया को समझने की चेष्टा की और एक बार आप इस प्रक्रिया में कुछ हासिल किया, तो आपने ने कार्ल मार्क्स की तर्ज़ पर कहा ‘फलसफा सिर्फ वैचारिक चिंतन का नहीं बल्कि बदलाव को प्रतिबद्ध होना चाहिए.’
सबसे बड़ी मुश्किल ये है बापू कि जो लोग सत्ता प्रतिष्ठान पर आज काबिज़ हैं, वो आपके महासागर के चरित्र वाले हिंदुस्तान को गंदले तालाब में तब्दील करने पर आमादा हैं और आपके ‘हे राम’ वाले लोग हौसला नहीं जुटा पा रहे हैं.
अगर कुछ ऐसा चमत्कार संभव हो तो बापू इस ‘न बदलने वाले मौसम’ को बदल डालिए. हम तो मंगलयान के बगैर भी जी लेंगे, बस हमें तो वो हिंदुस्तान वापस चाहिए, जहां आपका राम और इकबाल का ‘इमाम-ए-हिन्द’ एक दूसरे से परहेज नहीं करता था.
बापू! सालगिरह पर कहना तो नहीं चाहिए लेकिन इन दिनों हर दिन 30 जनवरी-सा हो रहा है इसलिए भी आप याद बहुत आते हैं… अब तो आप उन्हें भी याद आते हैं जो तब पाश्चात्य दर्शन से सराबोर होने के कारण आपको समझ नहीं पाए.
आप जवाब न दे न सही लेकिन आपको ख़त लिखने के क्रम में आपके ख्यालों का कुछ ही मिनटों के लिए ही सही सहयात्री हो पाया क्योंकि बकौल अख्तर शीरानी,
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता
तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता
भूल-चूक की माफ़ी के साथ
आपका
मनोज कुमार झा
(लेखक राजद नेता और राज्यसभा सदस्य हैं.)