विशेष रिपोर्ट: आंकड़े बताते हैं कि अगर बसपा के साथ गठबंधन हो भी जाता तो भी कांग्रेस को कोई ख़ास फायदा नहीं मिलता.
2013 मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव, 230 सदस्यीय विधानसभा में 165 सीटें जीतकर लगातार तीसरी बार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने प्रदेश में सरकार बनाई और 58 सीटों पर सिमटी कांग्रेस का वनवास अगले पांच सालों के लिए और बढ़ गया. इस दौरान बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने चार सीटें जीतीं तो वहीं निर्दलीय उम्मीदवार भी तीन सीटों पर जीत दर्ज करने में सफल रहे.
कांग्रेस और भाजपा की दो ध्रुवीय राजनीति वाले मध्य प्रदेश में हालांकि बसपा द्वारा जीती सीटों की संख्या का कोई खास महत्व नहीं दिखता. लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि पिछले विधानसभा चुनावों में वह 4 सीटें जीतने के अलावा 11 सीटों पर दूसरे पायदान पर रही थी, 64 सीटों पर उसे 10,000 से अधिक मत प्राप्त हुए थे जिनमें 21 सीटों पर तीस हजार से अधिक तो वहीं 11 सीटों पर 40,000 से अधिक मत प्राप्त हुए.
बाकी बची 163 सीटों पर उसे मत तो 10,000 से कम मिले लेकिन कई सीटें ऐसी रहीं जिन पर सत्तारूढ़ भाजपा ने कांग्रेस को बड़े ही कम अंतर से हराया था.
विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि बसपा को मिला यह मत कांग्रेस के खाते में चला जाता तो विधानसभा में पक्ष और विपक्ष की स्थिति ही तब बदल जाती.
यही कारण रहा कि पिछले कुछ समय से प्रदेश में कांग्रेस और बसपा के बीच गठबंधन होने की चर्चाएं जोरों पर रहीं. कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ की ओर से बार-बार कहा गया कि कांग्रेस और बसपा के बीच गठबंधन अंतिम चरण में है. लेकिन, गठबंधन की संभावनाओं को झटका तब लगा जब 20 सितंबर को बसपा की तरफ से चुनाव लड़ने वाले 22 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी गई.
साथ ही बसपा प्रमुख मायावती ने बयान दिया कि प्रदेश में बसपा अकेले ही चुनाव लड़ेगी. छत्तीसगढ़ में भी बसपा और कांग्रेस के गठबंधन की चर्चाएं थीं लेकिन वहां भी मायावती ने अजीत जोगी की पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (छजकां) के साथ गठबंधन कर लिया जिससे कि मध्य प्रदेश में कड़ा संदेश गया कि मायावती का रुख कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर सकारात्मक नहीं है.
हालांकि, मायावती के इन कदमों के बाद भी कमलनाथ विभिन्न मंचों से कहते नजर आए कि अभी भी बसपा से गठबंधन की संभावनाएं हैं और इस संबंध में बातचीत जारी है. तो दूसरी ओर राजनीतिक और मीडिया हलकों में ऐसी भी चर्चाओं को बल मिला कि मायावती का यह फैसला केंद्र सरकार द्वारा उन पर चल रहे मुकदमों में सीबीआई द्वारा दबाव बनाए जाने का नतीजा है. प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने तो खुलकर यह बयान दिया कि मायावती ने केंद्र और उसकी जांच एजेंसियों के दबाव में फैसला लिया है.
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए 3 अक्टूबर को मायावती ने फिर एक प्रेस कांफ्रेंस की और कहा कि गठबंधन न होने की जिम्मेदार स्वयं कांग्रेस है, उसका अहंकार है और दिग्विजय सिंह है.
यहां सवाल उठता है कि साल के शुरुआत से ही प्रदेश में कांग्रेस और बसपा के बीच गठबंधन की बात चल रही थी. जब अध्यक्ष पद पर 26 अप्रैल को कमलनाथ की नियुक्ति हुई तब से ही वे बार-बार विभिन्न मंचों से गठबंधन की बात दोहरा रहे थे. लेकिन अप्रैल से सितंबर के बीच पांच महीनों तक क्यों वे गठबंधन को साकार नहीं कर पाये? अगर मायावती पर सीबीआई और अन्य केंद्रीय जांच एजेंसियों के दबाव के कयासों को सही भी मान लें तो जो भाजपा एक ही दिन में गोवा में सबसे अधिक सीटें जीतने वाली कांग्रेस से जोड़-तोड़ करके सत्ता छीन सकती है, उसे कांग्रेस ने पांच महीने क्यों दिए कि वह बसपा पर दबाव बना सके?
इसलिए केंद्र के दबाव या सीबीआई के दबाव से अधिक मायावती जो कह रही हैं कि उनके और कांग्रेस के बीच सम्मानजनक सीटों के बंटवारे पर समझौता नहीं हो सका, वह सही जान पड़ता है. कांग्रेस द्वारा गठबंधन पर ढील डाले रखना तो इसी ओर इशारे करता है.
अक्सर दो या दो से अधिक पार्टी के गठबंधनों में होता भी यही है कि वे सीटों के बंटवारे पर आम राय नहीं बना पाते हैं. विवाद की स्थिति यहीं उत्पन्न होती है. सीटों का आवंटन हितधारक राजनीतिकों दलों के पिछले चुनावों के प्रदर्शन पर निर्भर करता है. तो क्या बसपा का प्रदर्शन पिछले चुनावों में ऐसा था कि जिससे गठबंधन की स्थिति में वह मुंहमांगी या सम्मानजनक सीटें पाती और साथ ही उसके सहयोग से कांग्रेस सत्ता में आ पाती?
क्या विशेषज्ञों का यह तर्क सही है कि यदि 2013 में बसपा को मिला मत कांग्रेस के खाते में गया होता तो विधानसभा में पक्ष और विपक्ष की स्थिति ही बदल जाती?
बहरहाल, इस बीच मीडिया में चलने लगा कि बसपा ने कांग्रेस के सामने 30 सीटों की मांग रखी थी जिस पर कि कांग्रेस राजी नहीं हुई. हालांकि, इस बात की पुष्टि औपचारिक तौर पर न तो कांग्रेस की ओर से की गई थी और न ही बसपा की तरफ से.
लेकिन प्रश्न उठना लाजमी था कि चार सीटें जीतने वाली पार्टी को आखिर कितनी सीटें गठबंधन में शामिल होने के एवज में दी जा सकती हैं?
मध्य प्रदेश की उन सीटों की गणना जिन पर बसपा का वोट बैंक है
बसपा ने मध्य प्रदेश में पहली बार 1990 में विधानसभा चुनावों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी. तब मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ संयुक्त हुआ करते थे. सन 2000 में मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ राज्य बना और 320 सीट वाली मध्य प्रदेश की विधानसभा 230 सीटों की रह गई.
इन 230 सीटों के लिहाज से ही गणना करें तो 1990 में बसपा ने प्रदेश में केवल एक देवतालाब की सीट जीती थी. (छत्तीसगढ़ वाले संयुक्त मध्य प्रदेश की 90 सीटों को भी जोड़ दें तो केवल दो सीटें तब बसपा ने जीती थीं.)
1993 में बसपा के प्रदर्शन में सुधार हुआ. वह प्रदर्शन बसपा का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा. तब बसपा के खाते में वर्तमान मध्य प्रदेश के ढांचे के मुताबिक 10 सीटें आईं. (संयुक्त मध्य प्रदेश में कुल 11 सीटें.)
1998 में संख्या घटकर आठ रह गई. (छत्तीसगढ़ की सीटें मिलाकर 11) 2003 में बसपा केवल दो सीटों पर सिमटकर रह गई. 2008 में उसे 7 सीटें मिलीं तो 2013 में महज 4 सीटें.
इस दौरान बसपा प्रदेश की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारती रही. 2013 में उसने 227 सीटों पर चुनाव लड़ा था. हालांकि, 194 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गई थी. लेकिन कुल 64 सीटों पर उसने 10,000 से ज्यादा, 21 सीटों पर 30,000 से ज्यादा मत पाए और 11 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही.
छह विधानसभा चुनावों में बसपा प्रदेश में केवल 32 सीटें ही जीत सकी है. यह सफलता उसे प्रदेश की अलग-अलग 24 सीटों पर मिली है.
जिसके चलते बसपा की पहचान प्रदेश में एक विकल्प के रूप में न होकर वोट काटने वाली पार्टी के रूप में बन गई है.
इसलिए जब कांग्रेस के सामने बसपा के साथ गठबंधन की बात आई तो पहला प्रश्न यही उठा कि एक वोट काटने वाली पार्टी जिसके कि विधानसभा में महज 4 विधायक हैं उसे कितनी सम्मानजनक सीटें दी जा सकती हैं?
वहीं, बसपा के सामने चुनौती थी कि भले ही वह 4 सीटें जीती हो लेकिन 230 सीटों पर चुनाव लड़ती आई है, इसलिए पूरे प्रदेश में उसका कार्यकर्ता है, उसका अस्तित्व है. अगर वह गठबंधन करती है तो कितनी सीटों की वह मांग करे जिससे कि उसका अस्तित्व मध्य प्रदेश में बना रहे?
3 अक्टूबर की जिस प्रेस कांफ्रेंस का जिक्र ऊपर किया, उसमें मायावती ने कांग्रेस पर बसपा को खत्म करने का विचार रखने का आरोप लगाया. साथ ही उन्होंने यह भी कहा, ‘कांग्रेस को लगता है कि वह अकेले दम पर भाजपा को सत्ता से बेदखल कर सकती है. लेकिन, वह ऐसा कर नहीं पाएगी.’
मायावती के इन बयानों के मायने हैं और वह इसलिए कि अगर बसपा को गठबंधन में सम्मानजनक सीटें नहीं मिलतीं तो मध्य प्रदेश में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता. मान लीजिए जैसा कि कांग्रेसी सूत्रों से सामने आया था कि बसपा को कांग्रेस 15-18 सीटें देने को राजी थी.
मायावती ने भी कुछ ऐसा ही अपनी प्रेस कांफ्रेंस में कहा. उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस हमें 230 में से 15-20 सीट देना चाहती है. जब भी हम गठबंधन में चुनाव लड़े तो हमारा सारा वोट शेयर कांग्रेस के पास चला गया. हम ज्यादा सीटें हार गए. इस बात पर ध्यान दिया जाये तो हमें लगा कि कांग्रेस बसपा जैसा छोटी पार्टियों को खत्म करना चाहती है.’
एक पार्टी जो 230 सीटों पर लड़ती रही, उसका 15 सीटों पर सिमटने का अर्थ है कि 215 सीटों पर जो भी थोड़ा-बहुत उसका कार्यकर्ता या वोट है उसे भी खो देना. इसलिए मायावती के बयानों के मायने निकलते हैं.
आंकड़ों पर गौर करें तो कांग्रेस और बसपा का गठबंधन सीट आवंटन के मसले को लेकर आसान नहीं था और न ही ऐसा था कि गठबंधन होने पर कांग्रेस बहुमत पाने की स्थिति में आ जाती. यही एक कारण था कि कांग्रेस गठबंधन पर कोई अंतिम फैसला नहीं ले पा रही थी.
बात सीट आवंटन की करें तो विंध्य, मालवा-निमाड़, बुंदेलखंड, ग्वालियर-चंबल, मध्य भारत और महाकौशल छह हिस्सों में बंटे मध्य प्रदेश में बसपा का दबदबा केवल विंध्य और ग्वालियर चंबल तक ही सीमित रहा है.
छह विधानसभा चुनावों में जिन 24 सीटों पर बसपा जीती है उनमें 10 विंध्य क्षेत्र की (चित्रकूट, रैगांव, रामपुर बघेलन, सिरमौर, त्योंथर, मऊगंज, देवतालाब, मनगवां, गुढ़) और 14 ग्वालियर-चंबल (सबलगढ़, जौरा, सुमावली, मुरैना, दिमनी, अम्बाह, मेहगांव, गोहद, सेवढ़ा, भांडेर, ग्वालियर ग्रामीण, गिर्द, डबरा, करैरा, अशोकनगर) की रही हैं. गौरतलब है कि ग्वालियर-चंबल के गिर्द विधानसभा क्षेत्र को 2008 में भंग कर दिया गया था जिसके स्थान पर भितरवार सीट अस्तित्व में आई.
पूरे प्रदेश में इन्हीं सीटों पर बसपा का लगातार मत प्रतिशत अच्छा रहा है. 2013 में जिन 21 सीटों पर बसपा ने 30,000 से अधिक मत पाये उनमें 11 सीटें इनमें से ही शामिल थीं.
इसलिए जब सम्मानजनक सीटों पर गठबंधन की बात आती है तो बसपा स्वाभाविक तौर पर इन्हीं 24 सीटों पर दावेदारी ठोकती नजर आती है. इनमें रामपुर बघेलन, देवतालाब, गुढ़ और सुमावली में वह दो-दो बार जीत चुकी है तो वहीं मऊगंज और जौरा में तीन-तीन बार.
इसके अतिरिक्त जिन 11 सीटों पर बसपा 2013 में दूसरे स्थान पर रही उनमें उपरोक्त 24 में से 4 सीटें शामिल रहीं, बाकी 7 सीटें उसके खाते में ऐसी जुड़ीं जिन पर कि वह अब तक जीत नहीं सकी है लेकिन वहां मत उसे भरपूर मिले हैं.
इनमें विंध्य की दो सीटें- सेमरिया और रीवा, बुंदेलखंड क्षेत्र की दो सीटें- महाराजपुर और पन्ना, ग्वालियर-चंबल की दो सीटें- श्योपुर और भिंड तथा महाकौशल की कटंगी सीट शामिल रही. इनमें से सेमरिया, महाराजपुर, श्योपुर, भिंड और कटंगी में उसे 30,000 से अधिक मत मिले. श्योपुर और भिंड में तो उसे मिले मतों की संख्या 40,000 को पार कर गई.
अगर बसपा के सम्मानजनक सीटें पाने के गणित में इन 7 सीटों को और जोड़े दें तो संख्या 31 पर पहुंचती है.
विंध्य क्षेत्र की नागौद, मैहर, अमरपाटन, बुंदेलखंड की बहोरीबंद और ग्वालियर चंबल की लहार, ये पांच सीटें और ऐसी रहीं जिन पर कि बसपा को तीस हजार से अधिक वोट मिले लेकिन पार्टी तीसरे स्थान पर रही.
बसपा की सम्मानजनक सीटों के गणित में अगर इन्हें भी जोड़ा जाए तो प्रदेश की कुल 36 सीटों पर बसपा मजबूत स्थिति में दिखाई देती है.
जाहिर सी बात है कि जब बसपा गठबंधन में शामिल होने के लिए 30 सीटों की मांग करती है तो वे सीटें लगभग इनमें से ही रही होंगी.
खास बात यह है कि वर्तमान में इन 36 सीटों में से 10 पर कांग्रेसी विधायक हैं. चित्रकूट, लहार, डबरा, भितरवार, करैरा, नागौद, मैहर, अमरपाटन, मऊगंज और गुढ़ वर्तमान में कांग्रेस के कब्जे में हैं.
इस लिहाज से अगर देखें तो सत्ता विरोधी लहर की आस में खुद को मध्य प्रदेश में जीता हुआ समझ रही कांग्रेस अपने कोटे की दस सीटें आखिर क्यों बसपा के लिए छोड़ती? क्या इन सीटों पर उसके मौजूदा विधायक नाराज नहीं होते?
2013 में जब पूरे प्रदेश में कांग्रेस एक-एक सीट के लिए जूझी वहां सीटें जिताने वाले विधायकों से उनकी सीट छीनना पार्टी के अंदर ही बगावत का बिगुल फूंक सकता था. पहले से ही अंदरूनी गुटबाजी की शिकार कांग्रेस के लिए ऐसा जोखिम उठाना आसान नहीं था.
वहीं, बसपा के नजरिए से देखें तो इन 10 में 6 वो सीटें भी शामिल हैं जो कि बसपा द्वारा प्रदेश में जीती गईं 24 सीटों का हिस्सा हैं. यानी कि जिन 24 सीटों पर बसपा जीतती आई है उनमें से केवल 18 सीटों पर ही कांग्रेस उसके दावे को तवज्जो दे सकती थी और 8 उन सीटों पर बसपा दावा ठोक सकती थी जहां कभी वह जीती तो नहीं, लेकिन दूसरे स्थान पर रही या 30-40 हजार से अधिक मत पाने में सफल रही.
अब बाकी बची 26 सीटों के गणित को भी समझें तो इन सीटों पर भी विवाद की स्थिति थी.
दूसरे स्थान और 30 हजार से अधिक मत पाने वाली 8 सीटों की स्थिति
पहले बात बसपा की दूसरे स्थान या 30-40 हजार से अधिक वोट पाने वाली सीटों की. वे सीटें हैं- सेमरिया, रीवा, महाराजपुर, पन्ना, श्योपुर, भिंड, कटंगी और बहोरीबंद.
सेमरिया विधानसभा सीट 2008 में परिसीमन के बाद पहली बार अस्तित्व में आई. तब से यह भाजपा के कब्जे में है. 2008 में अभय मिश्रा विधायक बने तो 2013 में उनकी पत्नी नीलम मिश्रा. दोनों ही बार बसपा दूसरे स्थान पर रही. 2008 में भाजपा को 27.81, बसपा को 21.59 और कांग्रेस को 18.67 प्रतिशत मत मिले. वहीं, 2013 में भाजपा को 30.01 प्रतिशत, बसपा को 25.05 प्रतिशत और कांग्रेस को 23.88 प्रतिशत मत मिले.
इस लिहाज से देखें तो गठबंधन की स्थिति में बसपा का दावा इस सीट पर मजबूत होता लेकिन पेंच तब फंसता है कि भाजपा को इस सीट पर जीत दिलाने अभय मिश्रा कांग्रेस में शामिल हो जाते हैं और भाजपा से नाराज उनकी पत्नी मौजूदा विधायक नीलम मिश्रा इस बार चुनाव लड़ने से इनकार कर देती हैं.
अभय मिश्रा की बात करें तो जब भाजपा ने उनका 2013 में टिकट काटा तो उन्होंने अपनी पत्नी को चुनाव लड़ा दिया था और एक तरह से विधायकी अपने पास रखी. अब जब वे कांग्रेस में हैं तो जाहिर सी बात है कि विधायकी को जाने देना नहीं चाहेंगे. वहीं, चर्चा नीलम मिश्रा के भी कांग्रेस में शामिल होने की है.
इस स्थिति में कांग्रेस यह सीट बसपा को देने से परहेज करती क्योंकि उनके पास इस सीट पर ऐसा उम्मीदवार होता जिसकी बदौलत यह सीट भाजपा के पास बनी रही. और अगर कांग्रेस यह सीट बसपा को देती तो बगावती तेवर रखने वाले अभय कांग्रेस के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते थे.
रीवा प्रदेश सरकार में उद्योग मंत्री राजेंद्र शुक्ला की सीट है जिसे वे भाजपा के लिए 2003 से लगातार 50 प्रतिशत से अधिक वोट पाकर एकतरफा बहुमत से जीतते आ रहे हैं. इस दौरान तीनों विधानसभा चुनावों में बसपा दूसरे स्थान पर रही है और औसतन 19 प्रतिशत वोट पाती रही है, वहीं कांग्रेस औसतन लगभग 17 प्रतिशत.
इस आधार पर बसपा का दावा मजबूत तो है लेकिन पेंच तब फंसता है जब 2003 से पहले तक लगातार तीन बार इस सीट पर चुनाव जीतने वाले कांग्रेस की दिग्विजय सरकार में मंत्री रहे रीवा रियासत के महाराज पुष्पराज सिंह फिर से कांग्रेस में शामिल हो जाते हैं. इस सीट पर उनका दावा तो मजबूत है ही, वहीं उनके नाम के सहारे कांग्रेस भी वापस यह सीट पाना चाहती है.
वहीं, पन्ना सीट से शिवराज सरकार में मंत्री कुसुम सिंह मेहदले विधायक हैं. 1990 से अब तक चार बार इस सीट पर भाजपा जीती है तो दो बार कांग्रेस. 2013 में इस सीट पर भाजपा को 36.86 प्रतिशत मत मिले तो दूसरे नंबर पर रही बसपा को 17.32 फीसद, वहीं कांग्रेस 15.77 फीसद पर सिमट गई. इतिहास में पहली बार था कि बसपा इस सीट पर दूसरे पायदान पर रही. अन्यथा 1993 से अब तक हुए पांच चुनावों में औसतन बसपा को यहां 9 फीसद के लगभग ही वोट मिला है जबकि कांग्रेस को लगभग 27 फीसद.
बसपा को 2008 में 13.23, 2003 में 8.63, 1998 में 7.20 और 1993 में 2.06 फीसद ही मत प्राप्त हुए थे. गठबंधन की स्थिति में कांग्रेस का दावा इस सीट पर इसलिए भी मजबूत रहता क्योंकि 2008 के पिछले चुनावों में यह सीट कांग्रेस ने ही जीती थी.
वहीं, श्योपुर सीट से कांग्रेस के ब्रजराज सिंह 1993 से चुनाव लड़ रहे हैं. वे दो बार यहां से विधायक रह चुके हैं. उनका यहां अपना वोट बैंक है जो कांग्रेस को मिलता रहा है. 1998 में कांग्रेस ने उनका टिकट काटा तो वे उसी वोट बैंक के दम पर निर्दलीय लड़कर चुनाव जीत गए थे. अभी यह सीट भाजपा के दुर्गालाल विजय के पास है लेकिन इससे पिछले चुनाव 2008 में कांग्रेस के टिकट पर ब्रजराज सिंह ही विधायक बने थे.
हालांकि, यहां बसपा का भी काफी अच्छा वोट बैंक रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव में वह 30.82 प्रतिशत (48,784) वोट पाकर दूसरे स्थान पर रही थी. 2003 में भी वह दूसरे स्थान पर रही और महज 2.73 फीसद मतों के अंतर से भाजपा से हारी थी. लेकिन, गठबंधन की स्थिति में बसपा के खाते में यदि यह सीट जाती तो ब्रजराज सिंह के निर्दलीय लड़ने से न तो कांग्रेस को और न ही गठबंधन को कोई लाभ मिलता. ब्रजराज का अपना वोट बैंक है जो कांग्रेस को मिलता रहा है.
भिंड सीट पर भी बसपा नंबर दो पर रही. यह वह सीट है जिस पर कांग्रेस के पूर्व नेता प्रतिपक्ष चौधरी राकेश सिंह जीतते आए. 2013 विधानसभा चुनावों से ठीक पहले वे भाजपा में शामिल हो गए जिससे कांग्रेस का मत प्रतिशत चुनावों में 34 से गिरकर 17 रह गया.
1990 से उन्होंने इस सीट पर कांग्रेस की पकड़ बनाए रखी थी और 2008 तक तीन बार जीत दर्ज की.
इस सीट पर 1998 से मुकाबला नरेंद्र सिंह कुशवाह बनाम राकेश सिंह रहा है. नरेंद्र सिंह वर्तमान में भाजपा से विधायक हैं. बसपा यहां लगातार 20-22 प्रतिशत मत पाती रही है. 2013 में पहली बार ऐसा था कि बसपा दूसरे स्थान पर आ सकी वरना वह हमेशा तीसरे या उससे निचले स्थान पर ही रही थी.
कारण इतना था कि नरेंद्र सिंह के निकटतम प्रतिद्वंदी चौधरी राकेश सिंह चुनाव नहीं लड़े जिससे कांग्रेस का मत प्रतिशत गिरकर पिछले चुनावों से आधा रह गया और बसपा को 45,117 (35.90) फीसदी वोट मिले.
इस सीट पर पार्टी से अधिक चेहरे लोकप्रिय रहे हैं. नरेंद्र सिंह का जब 2008 में भाजपा ने टिकट काट दिया तो वे समाजवादी पार्टी (सपा) के टिकट पर चुनाव लड़ गये और दूसरे पायदान पर रहे.
वहीं, इस सीट पर बारी-बारी से कांग्रेस और भाजपा के जीतने का इतिहास रहा है. 2013 में भाजपा जीती इसलिए अब किसी मजबूत दावेदार को उतारकर कांग्रेस जीत की उम्मीद लगा रही होगी और अपने दबदबे वाली इस सीट को गठबंधन में बसपा के लिए छोड़ने को राजी नहीं हुई होगी.
वहीं, कटंगी सीट भी भाजपा ने जीती और बसपा दूसरे स्थान पर रही. लेकिन 2008 में यह सीट कांग्रेस ने जीती थी. 1993 से 2013 के बीच पांच विधानसभा चुनावों में तीन बार यह सीट कांग्रेस जीत चुकी है.
बसपा यहां कभी नहीं जीती है और लगभग औसतन 25 फीसद मत पाती रही है. पहली बार था कि वह दूसरे पायदान पर आई और तीसरे नंबर पर रही कांग्रेस से उसे महज 2.83 फीसद मत ज्यादा मिले. इसलिए इस सीट पर भी कांग्रेस का ही दावा मजबूत होता.
वहीं, बहोरीबंद सीट पर भाजपा को जीत मिली और 32,829 वोट पाकर बसपा तीसरे स्थान पर रही. उसे कांग्रेस से केवल 700 वोट ही कम मिले. लेकिन यह सीट 1993 से लगातार चार बार कांग्रेस ने जीती है, बस 2013 में उसे हार मिली इसलिए गठबंधन में बसपा यह सीट भी नहीं पा सकती थी.
केवल महाराजपुर सीट ही एक ऐसी बचती है जिस पर कि 1990 से केवल भाजपा का ही दबदबा है. 2008 में जरूर निर्दलीय लड़कर मानवेंद्र सिंह ने यह सीट जीती लेकिन 2013 में वे भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े और फिर से जीत दर्ज की. बसपा को 2013 में इस सीट पर 30 हजार से अधिक वोट मिले और वह दूसरे पायदान पर रही. 2003 से भाजपा के बाद बसपा ही यहां दूसरे नंबर पर बनी हुई है.
2003 से कांग्रेस का मत प्रतिशत यहां 13 रहा है तो बसपा का 20. इसलिए यही एकमात्र सीट बसपा को गठबंधन में मिल सकती थी.
इस तरह बसपा के मजबूत वोटबैंक वाली कुल 36 में से 10 कांग्रेस के विधायकों वाली और 7 इन सीटों को घटा दें तो केवल 19 सीटें ही बचती हैं जिनमें 18 वे हैं जिन पर बीते चुनावों में बसपा जीत दर्ज करती रही है.
अब सवाल कि क्या उन 18 सीटों पर भी विवाद था जिसके चलते कांग्रेस और बसपा में सीट बंटवारे को लेकर सहमति नहीं बन सकी?
इन 18 में से 4 सीट अम्बाह, रैगांव, मनगवां और दिमनी बसपा के ही पास हैं. इसलिए स्वाभाविक तौर पर गठबंधन की स्थिति में बसपा का ही इन पर दावा मजबूत माना जाता. रैगांव और अम्बाह तो एक तरह से भाजपा की परंपरागत सीट थीं जो 90 के दशक से उसके पास थीं. बसपा ने परंपरा तोड़ी और भाजपा से 2013 में ये सीटें जीतीं.
मनगवां भी 2013 में बसपा ने पहली बार जीती. इस सीट पर दो बार (2003 और 2008) से भाजपा जीत रही थी और उससे पहले लगातार कांग्रेसी दिग्गज श्रीनिवास तिवारी जीतते रहे.
हालांकि, दिमनी पर पेंच फंसता है. दिमनी सीट की बात करें तो 1980 से 2013 तक आठ चुनावों में 6 बार भाजपा जीती है. 1993 में आखिरी बार कांग्रेस जीती थी और पिछले चुनावों में बसपा जीती, जहां कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही. 2008 में भी बसपा दूसरे स्थान पर रही थी.
गठबंधन की स्थिति में यह सीट बसपा को मिल तो जाती लेकिन पिछले चार विधानसभा चुनाव जो कांग्रेस इस सीट पर हारी है वह सिर्फ एक-दो प्रतिशत मतों के अंतर से. इसलिए गठबंधन की बात होने पर कांग्रेस द्वारा इस सीट को बसपा के लिए छोड़ना, वो भी तब जब कांग्रेस को सत्ता विरोधी लहर में इस बार सरकार बनाने का यकीन हो, आसान नहीं होता.
2013 में जीती इन चार में से तीन पर बसपा की मजबूत दावेदारी है तो दिमनी पर टकराव की स्थिति है. अब बात 2013 से पहले के चुनावों में जीतीं 14 सीटों की.
रामपुर बघेलन सीट पर मुकाबला बसपा बनाम भाजपा ही होता है. बसपा 1993 और 2008 में दो बार इस सीट पर जीती है. 1998, 2003 और 2008 में दूसरे स्थान पर रही है. कांग्रेस यहां तीसरे नंबर की पार्टी है.
देवतालाब भी ऐसी सीट है जहां मुकाबला भाजपा बनाम बसपा होता है. हालांकि 1998 से यह सीट भाजपा के पास है और बसपा दूसरे नंबर की पार्टी बनी हुई है लेकिन 1990 और 1993 में वह लगातार दो बार इस सीट पर जीती थी. कांग्रेस आखिरी बार 1985 में इस सीट पर जीती थी.
मुरैना में पिछले सात में से 5 चुनावों में भाजपा का परचम लहराया है. बसपा यहां कांग्रेस पर भारी नजर आती है. कांग्रेस आखिरी बार यहां 1993 में जीती थी तो बसपा 2008 में. 2013 में बसपा महज 1,704 वोटों से भाजपा से हारी थी. उसे 55,040 वोट मिले थे. 2003 में भी बसपा दूसरे स्थान पर रही.
त्योंथर सीट कांग्रेस ने 1990 में आखिरी बार जीती थी. जबकि बसपा ने 2008 में इस पर जीत दर्ज की थी. 1998 से 2008 तक बसपा को इस सीट पर कांग्रेस से अधिक वोट मिले हैं. 2013 में जरूर कांग्रेस बसपा से लगभग 10,000 वोट अधिक पाने में सफल रही थी.
ग्वालियर ग्रामीण सीट 2008 में अस्तित्व में आई और बसपा के मदन कुशवाह जीते. इस सीट पर 40 हजार अधिक कुशवाह मतदाता हैं. 2013 में भाजपा ने भी एक कुशवाह उम्मीदवार को टिकट दिया और बसपा से यह सीट छीन ली, दूसरे स्थान पर रही कांग्रेस इस चुनाव में बसपा से करीब 20,000 अधिक मत पाने में सफल रही थी. सिंधिया के प्रभाव क्षेत्र की सीट है तो सिंधिया को भी इस सीट पर उम्मीद होगी. लेकिन गठबंधन होता तो अपनी पिछली सफलता गिनाकर बसपा यह सीट पा लेती.
सेवढ़ा सीट कांग्रेस ने आखिरी बार 1993 में जीती थी जबकि बसपा ने 2008 में पहली और आखिरी बार इस पर कब्जा जमाया. वर्तमान में यह भाजपा के पास है. ये छह सीटें भी बसपा गठबंधन में पा सकती थी.
विवादित सीट जो होतीं, उनमें पहली जौरा है जो अभी भाजपा के पास है. बसपा यहां कांग्रेस की अपेक्षा अधिक मजबूत मानी जाती है. पिछले पांच चुनावों में तीन बार (1993, 1998, 2008) वह जीती है. कांग्रेस ने 2003 में यहां जीत दर्ज की थी.
हालांकि, पिछले चुनाव में कांग्रेस भाजपा से महज 1.71 प्रतिशत मतों के अंतर से हारी थी और उसे उम्मीद होगी कि इस बार सत्ता विरोधी लहर में वह इस अंतर को पाटने में सफल रहेगी क्योंकि वर्तमान विधायक सूबेदार सिंह से स्थानीय जनता नाराज दिखाई देती है. बसपा को 2013 में कांग्रेस से 7 प्रतिशत कम मत मिले थे.
अब बात करें सिरमौर सीट की तो यह भाजपा के पास है जिसे दिव्यराज सिंह ने कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष रहे दिग्गज श्रीनिवास तिवारी के बेटे कांग्रेसी उम्मीदवार विवेक तिवारी को हराकर जीती थी. भाजपा को 34.19, कांग्रेस को 29.67 और बसपा के पक्ष में 19.69 प्रतिशत मतदान हुआ था.
इससे पिछले चुनावों में यह सीट बसपा उम्मीदवार राजकुमार उर्मालिया ने श्रीनिवास तिवारी को हराकर जीती थी. 2003 में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इसे जीता था और बसपा दूसरे पायदान पर रही थी. आखिरी बार कांग्रेस ने 1998 में यह सीट जीती थी.
ऊपरी तौर पर इस सीट पर बसपा का मजबूत दावा दिखता है लेकिन गठबंधन की स्थिति में कांग्रेस के लिए समस्या ये थी कि श्रीनिवास तिवारी के बेटे विवेक तिवारी जो कि मामूली अंतर से पिछला चुनाव हारे थे, वे फिर से टिकट पाने की तैयारी में लगे हैं. बसपा के लिए सीट छोड़ने का मतलब था कि अपने एक मजबूत नेता को नाराज करना.
सबलगढ़ सीट वर्तमान में भाजपा के पास है. कांग्रेस दूसरे पायदान पर रही थी और बसपा कांग्रेस से 14 हजार वोट कम पाकर तीसरे स्थान पर रही. 2008 में कांग्रेस इस सीट पर जीती थी. जबकि बसपा 1998 में जीती थी. 1993 और 2003 में दूसरे स्थान पर रही. 1993 से कांग्रेस और भाजपा ने यह सीट दो-दो बार जबकि बसपा ने एक बार जीती है.
बाहुबल के लिए पहचानी जाने वाली सुमावली सीट 1993 और 1998 में ऐंदल सिंह कंसाना ने बसपा को जिताई. 2003 में उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया जिससे बसपा का वोट 36 प्रतिशत से गिरकर 10 पर आ गया और वह चौथे स्थान पर खिसक गई.
हालांकि, ऐंदल सिंह भी 2003 में जीत नहीं सके थे. 2008 में ऐंदल सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने यह सीट जीती. बसपा दूसरी पायदान पर रही. 2013 में 14,000 से अधिक वोटों से भाजपा जीती और बसपा 47,481 वोट पाकर भी फिर दूसरे पायदान पर रही.
देखा जाए तो कांग्रेस और बसपा दोनों ही इस सीट पर बराबर के दावेदार हैं. लेकिन बात अगर गठबंधन की हो तो ऐंदल सिंह संयुक्त उम्मीदवार हो सकते थे. लेकिन सवाल वहीं कायम रहता कि किसकी तरफ से, कांग्रेस या बसपा?
मेहगांव सीट 2008 से भाजपा के पास है. बसपा ने आखिरी बार यह सीट 1993 में जीती थी. 1998 में बसपा तीसरे स्थान पर रही. 2003 में वह खिसककर छठें स्थान पर पहुंच गई और वोट मिला महज 6.65 प्रतिशत. 2008 और 2013 में भी वह चौथे स्थान पर रही.
वहीं, कांग्रेस ने आखिरी बार यह सीट 1990 में जीती थी. पिछले चार चुनावों में तीन बार भाजपा ने यह सीट जीती है. वहीं, कांग्रेस को बसपा से अधिक वोट मिलते रहे हैं. 2013 में तो वह महज 0.91 प्रतिशत मतों के अंतर से हारी थी.
गोहद विधानसभा में एक वक्त बसपा मजबूत हुआ करती थी. 1993 में जीती और 1998 में दूसरे पायदान पर रही. लेकिन 2003 के बाद से तीसरे या उससे निचले स्थान पर रही है और कांग्रेस भाजपा के बीच ही मुकाबला रहा है. अभी यह सीट भाजपा के पास है लेकिन 2008 में कांग्रेस ने जीती थी.
भांडेर सीट 1998 में बसपा ने जीती तो उसका कारण थे दलित नेता फूलसिंह बरैया. बरैया किसी भी दल से या निर्दलीय लड़ें, उनका 15 फीसद वोट यहां तय होता है. बसपा को 1998 में 41.87 प्रतिशत मत मिले थे.
2003 में बरैया निर्दलीय लड़े और दूसरे पायदान पर रहे. जबकि बसपा खिसककर 10.44 प्रतिशत मत के साथ पांचवे स्थान पर पहुंच गई. हालांकि तीन विधानसभा चुनावों से यह सीट भाजपा के पास बनी हुई है लेकिन कांग्रेस बसपा से डेढ़ से दोगुना अधिक वोट पाती रही है.
वहीं, कांग्रेसी दिग्गज ज्योतिरादित्य सिंधिया के गृह जिला की अशोकनगर सीट बसपा ने 1998 में जीती थी. बाकी 1990 से अब तक भाजपा ही इस सीट पर बनी हुई है. कांग्रेस ने 1985 में आखिरी बार जीत का स्वाद चखा था. हालांकि, 2003 से मुकाबला भाजपा बनाम कांग्रेस ही हो रहा है. 2013 में तो कांग्रेस महज डेढ़ प्रतिशत मतों के अंतर से हारी थी.
उसे 41.20 प्रतिशत मत मिले तो बसपा को महज 11.49 प्रतिशत. गठबंधन की स्थिति में इसलिए ही कांग्रेस के लिए यह सीट बसपा को देना आसान नहीं थी. वैसे भी जब सिंधिया प्रदेश में उभार पर हैं तो इस सीट को वे पार्टी को ही जिताना चाहेंगे.
कुल मिलाकर देखें तो बसपा द्वारा जीती जिन 18 सीटों की अभी बात की, उनमें से केवल 9 (रैगांव, रामपुर बघेलन, त्योंथर, देवतालाब, मनगवां, मुरैना, अम्बाह, सेवढ़ा, ग्वालियर ग्रामीण) ही गठबंधन की स्थिति में बसपा को कांग्रेस से निर्विरोध मिल सकती थीं. 9 पर टकराव होता और गठबंधन के मामलों में टकराव से सामान्यत: फिफ्टी-फिफ्टी के फॉर्मूले पर चलकर निपटा जाता है.
टकराव वाली 9 में से अगर 5 सीटें भी कांग्रेस बसपा को दे देती तो बसपा की सीटों की संख्या 14 होती जिनमें एक महाराजपुर सीट जिसका कि ऊपर जिक्र हुआ था, वह भी बसपा को निर्विरोध मिलती और उसकी दावेदारी 15 पर आकर सिमट जाती.
किसी भी सूरत में कांग्रेस बसपा को इससे अधिक सीट दे ही नहीं पाती. न तो वह अपने विधायकों वाली सीट पर दांव खेलने का जोखिम लेती और न ही जिन सीटों पर बसपा से कई गुना अधिक अच्छा प्रदर्शन वह करती आई है, उन सीटों को छोड़ने का जोखिम लेती.
इसलिए गठबंधन न होने की बात पर मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ कहते हैं कि मायावती उन सीटों की मांग कर रही थीं जहां से बसपा जीत ही नहीं सकती थी. उन्होंने कहा, ‘जिन सीटों की सूची बसपा की ओर से दी गई थी, उन सीटों पर उसकी जीत की कोई संभावना ही नहीं थी. बसपा 45 सीटों की मांग कर रही थी.’
उन्होंने आगे कहा, ‘हमारे लिए बात संख्या की नहीं थी. हम देख रहे थे कि सीटें वे हों जिन पर बसपा भाजपा को हरा दे. अब संख्या की बात हो और वे भाजपा को न हरा सकें तो इसका कोई मतलब नहीं. ये तो भाजपा को सीटें गिफ्ट करना हुआ.’
हां, यह सही है कि कई सीटों पर बसपा के चुनाव न लड़ने से कांग्रेस को लाभ हो सकता था. लेकिन, 2013 के आंकड़ें बताते हैं कि ऐसी महज 40 सीटें ही होतीं जहां दोनों दल मिलकर भाजपा को हरा सकते थे.
उन 40 सीटों में 17 सीटें तो वे थीं जिनकी गणना हमने ऊपर की है. जिन पर कांग्रेस और बसपा के बीच माथापच्ची देखी गई. इसलिए केवल 23 सीटों पर ही कांग्रेस को बसपा के चुनाव न लड़ने का लाभ मिलता. बदले में अगर वह केवल 10 सीटों को निर्विवाद पाने की योग्यता रखने वाली बसपा को 30 से 45 सीटों पर चुनाव लड़ाकर अतिरिक्त 20-35 सीटें देती तो कांग्रेस के लिए यह घाटे का सौदा ही होता.
ऊपर से वर्तमान में प्रदेश में सवर्ण भाजपा से नाराज दिख रहा है. सवर्ण सरकार के खिलाफ आंदोलन चला रहा है. चुनावों में भाजपा से नाराज सवर्ण के सामने कांग्रेस भी एक विकल्प होगा. लेकिन बसपा और कांग्रेस के गठबंधन की स्थिति में उसके कांग्रेस से भी मुंह मोड़ने की संभावना बनती. क्योंकि प्रदेश का सवर्ण बसपा को लेकर सकारात्मक सोच नहीं रखता है. इसलिए कांग्रेस को यहां भी कहीं न कहीं नुकसान उठाना पड़ता.
यही कारण हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कहते नजर आ रहे हैं कि बसपा के गठबंधन में शामिल न होने से कांग्रेस को कोई फर्क नहीं पड़ेगा.
वहीं, बसपा के दृष्टिकोण से देखें तो 230 सीटों पर लड़ने वाली पार्टी का 15-20 सीटें पाकर संतुष्ट हो जाना संभव ही नहीं है. ऐसा करके तो प्रदेश में वह अपना अस्तित्व ही दांव पर लगा देती. इसे इस दृष्टि से भी देखा जा सकता है कि 90 सदस्यीय छत्तीसगढ़ विधानसभा में अजीत जोगी की पार्टी के साथ गठबंधन में उसने 35 सीटें पाई हैं.
वहीं, जैसा विशेषज्ञों का कहना है कि 2013 में यदि कांग्रेस और बसपा का गठबंधन होता तो प्रदेश में पक्ष और विपक्ष की तस्वीर विपरीत होती, तो यह भी कुतर्क है क्योंकि 116 सीटों के बहुमत वाली विधानसभा में 58 सीटें कांग्रेस को मिलीं और 4 बसपा को. यदि गठबंधन होता तो महज 40 सीटों पर ही तब अतिरिक्त लाभ मिलता. जिससे कि संख्या 102 पर पहुंचती.
(दीपक गोस्वामी स्वतंत्र पत्रकार हैं.)