लोकनायक जयप्रकाश नारायण का पैतृक गांव सिताब दियारा देश के विभिन्न गांवों की बदहाली और सरकारों के उपेक्षापूर्ण रवैये की बड़ी मिसाल है. आदर्श ग्राम योजना के तहत भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी द्वारा इसे गोद लेने के बावजूद इसकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है.
लोकनायक जयप्रकाश नारायण का पैतृक गांव सिताब दियारा, जो स्वतंत्रता के सात दशकों बाद भी दो नदियों, दो ज़िलों और दो राज्यों के बीच फंसा हुआ सत्तातंत्र की घोर उपेक्षा झेलने को अभिशप्त है. यह गांव देश के विभिन्न गांवों की बदहाली अथवा उनके प्रति सरकारों के उपेक्षापूर्ण रवैये की एक बड़ी मिसाल भी है.
यूं तो बिहार की राजधानी पटना से कोई 125 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश सीमा और गंगा व सरयू नदियों के तट पर स्थित इस गांव की भौगोलिक स्थिति बहुत दिलचस्प है. इसका एक हिस्सा उत्तर प्रदेश के बलिया तो दूसरा बिहार के सारण यानी छपरा ज़िले में है, जबकि बिहार के आरा ज़िले की सीमाएं भी इससे मिलती हैं.
प्रायः हर साल नदियों के उफनाने पर बाढ़ व कटान के कहर से काल के गाल में समा जाने के अंदेशों से दो चार होना इसकी नियति रही है.
इस तथ्य के बावजूद अभी तक इस गांव की नियति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है कि भाजपा के सारण के सांसद राजीव प्रताप रूडी ने इसको सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत गोद ले रखा है और उसके चारों ओर सुरक्षा बांध निर्माण की महत्वाकांक्षी परियोजना स्वीकृत कराने का श्रेय लूटने के लिए सब कुछ कर रहे हैं.
तथ्यों पर जाएं तो बढ़ते जन-दबाव के बीच उक्त बांध के निर्माण के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने गत वर्ष अक्टूबर में ही क्रमशः 93 और 41 करोड़ रुपये स्वीकृत कर दिए थे.
यह बांध बन जाता तो सिताब दियारा के निवासियों को ऐसी सुरक्षा मिलती, जो उन्हें पहले कभी मयस्सर नहीं हुई, लेकिन उत्तर प्रदेश व बिहार दोनों ही प्रदेश सरकारों ने टेंडर प्रक्रिया में इतना समय नष्ट कर डाला कि इस साल बांध निर्माण शुरू होते-होते बारिश आ गई और सब कुछ ठप होकर रह गया.
यह लेटलतीफी असह्य हो गई तो ग्रामीण सड़क पर भी उतरे, लेकिन अब जब उन्होंने राम-राम करते और यह याद करते हुए बारिश काट दी है कि पिछले साल जलप्रलय में गांव का अस्तित्व ही ख़त्म होने के कगार पर था, तो भी बांध निर्माण की कोई तत्परता नज़र नहीं आ रही.
प्रसंगवश, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार की वर्तमान गठबंधन सरकार हो या उनसे पहले डेढ़ से ज़्यादा दशकों तक राज्य की कमान संभालने वाली लालू व राबड़ी की सरकारें, वे ख़ुद को लोकनायक की वारिस व उनकी नीतियों की अनुगामिनी बताती रही हैं.
इसके चलते एक समय सिताब दियारा के लोगों को उनसे इतनी उम्मीदें थीं कि उसके उत्तर प्रदेश में आने वाले हिस्से के लोग बिहार में शामिल किए जाने को लेकर बेमियादी अनशन पर उतर आये थे.
वे क्षुब्ध थे कि उत्तर प्रदेश में मुलायम व अखिलेश की समाजवादी सरकारों ने भी लोकनायक के गांव के तौर पर पहचाने जाने के बावजूद उनका ख्याल नहीं रखा. लेकिन अब उनका अनुभव ऐसा है कि सरकारें किसी भी झंडे या चुनाव निशान वाली हों, पराई ही होती हैं.
उनके इस अनुभव को ऐसे समझा जा सकता है कि बिजली जैसी जरूरी सुविधा भी उन्हें आज़ादी के साढ़े छह दशक बाद 2011 में नसीब हो पायी, जब भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी एक बहुचर्चित राजनीतिक घटनाक्रम के तहत भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ चेतना रथयात्रा शुरू करने उनके गांव आए और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनकी यात्रा को हरी झंडी दिखाई.
तब उत्तर प्रदेश के जयप्रकाश नगर पावर ग्रिड से उधार ली गई बिजली से इसे जगमगाने के अतिरिक्त लोकनायक की बची-खुची यादों को संजोने और जिस स्कूल में उनकी शुरुआती शिक्षा-दीक्षा हुई, उसके रंग-रोगन व स्तरोन्नयन जैसी कई बड़ी-बड़ी घोषणाएं की गईं.
यह आश्वासन भी दिया गया कि ग्रामवासी जल्दी ही अपनी सारी समस्याओं से निजात पाकर विकास के सुखसागर में गोते लगाने लगेंगे लेकिन उस आश्वासन पर अब तक वैसा ही अमल हुआ है, जैसा कि 1977 में लोकनायक द्वारा प्रवर्तित ‘दूसरी आज़ादी’ के दौर में जनता पार्टी के नेताओं द्वारा महात्मा गांधी की समाधि पर ली गई शपथ पर हुआ था.
जनता पार्टी की सत्ता के दौर में भी बिहार व उत्तर प्रदेश की लोकनायक की ‘कृतज्ञ’ सरकारों ने सिताब दियारा की सुध नहीं ही ली थी. तब भी नहीं, जब यह गांव गंगा व सरयू नदियों में आने वाली बाढ़ व सरयू के विनाशकारी कटान के चलते अस्तित्व का संकट झेलता रहा.
लोग बताते हैं कि कोई साढ़े चार दशक पहले सिताब दियारा गांव तब सरयू की विकराल विनाशलीला का शिकार होना शुरू हुआ, जब मांझी में जयप्रभा सेतु का निर्माण हुआ.
लोकनायक की जीवनसंगिनी के नाम पर इस पुल के बनते-बनते सरयू ने अपनी धारा ही बदल ली. पहले जहां वह पश्चिम से पूरब बहती थी, उत्तर से दक्षिण बहने और अपनी विकराल लहरों से गांव को काट-काट कर आत्मसात करने लगी.
पांच-सात साल पहले तक यह रिविलगंज से होकर गुज़रती थी, परंतु अब गांव के पास से बहने लगी है.
पिछले साल सरयू की कटान से चलते बिहार और उत्तर प्रदेश को बांटने वाले बीएसटी यानी बकुलाहा-संसारटोला बांध टूटने का अंदेशा प्रबल हो गया तो लोगों की सांसें अटक गई थीं क्योंकि इस बांध की एकमात्र सड़क ही सिताब दियारा को सड़क मार्ग से जोड़ती है.
यह टूटता तो सिताब दियारा के उत्तर प्रदेश व बिहार में पड़ने वाले कई टोले जलमग्न हो जाते. वह घर भी, जहां लोकनायक रहा करते थे और वह घर भी, जहां उनका बचपन गुज़रा. फिर भी सरकारें गंभीर नहीं हुईं. गांव के युवकों ने अनशन किया तब भी नहीं.
जयप्रकाश नारायण फाउंडेशन के शशि भूषण सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी तो उसका जवाब तक नहीं आया. सरयू की कटान से सबसे ज़्यादा क्षति गांव के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से को होती रही है.
2014 में जुलाई के दूसरे पखवाड़े में इसने गांव के आठगांवा, छक्कू टोला और घूरी टोला के कोई एक सौ घरों को अपने गर्भ में समाहित करके उनका नामोंनिशान ही मिटा डाला था.
इससे पीड़ित ग्रामवासियों में कई का पुनर्वास अभी भी संभव नहीं हो पाया. ये टोले सिताब दियारा के पश्चिमी हिस्से में हैं जबकि लोकनायक का पैतृक आवास इनके पूरब वाले हिस्से के लाला टोले में. लेकिन पूरब-पश्चिम का यह विभाजन इन टोलों की नियति को अलग नहीं करता.
हां, इसी लाला टोले में बिहार सरकार की ओर से पुस्तकालय और केंद्र सरकार की ओर से जयप्रकाश नारायण का राष्ट्रीय स्मारक के निर्माण से जुड़ी गतिविधियां चल रही हैं.
बहरहाल, जब भी सिताब दियारा की उपेक्षा का मुद्दा उठाया जाता है, सत्तातंत्र उसे बचाने पर हुए करोड़ों के ख़र्च के आंकड़े गिनाने लगता है लेकिन गांववासी बताते हैं कि ये करोड़ों रुपये तभी ख़र्च किए जाते हैं, जब बाढ़ या कटाव अपने चरम पर हों. उनका कोलाहल या हाहाकार थमते ही सरकारें अपने हाथ समेट लेतीं और अगले संकट तक के लिए ‘सब-कुछ’ भूल जाती हैं.
गत वर्ष जयप्रकाश नारायण की 115वीं जयंती पर हुए एक समारोह में संसदीयकार्य, रसायन व उवर्रक मंत्री अनंतकुमार सिताब दियारा आए तो उसको उत्तर प्रदेश व बिहार ही नहीं देश की धरोहर बता गए थे.
उन्होंने कहा था कि इस धरोहर को बचाए रखने के लिए जल्द ही कार्ययोजना बनाकर उसका कार्यान्वयन किया जाएगा. उन्होंने कहा था कि वे दिल्ली पहुंचते ही इस मुद्दे पर जलसंसाधन मंत्री नितिन गडकरी से बात करेंगे. फिर बिहार व उप्र के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक कर केंद्र सरकार खुद इस गांव को बचाने की कार्ययोजना को अमलीजामा पहनायेगी। लेकिन उसके बाद क्या हुआ, कोई नहीं जानता.
लेकिन सत्तातंत्र में न सही, क्या देश में कहीं भी कोई नहीं है जो एक सौ स्मार्ट सिटीज का सपना देख रहे भारत में लोकनायक के गांव की इस नियति पर शर्म महसूस करे?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)