गुजरात की भीड़ से भागते यूपी-बिहार के लोग, यूपी-बिहार की भीड़ से कहां-कहां भागे लोग

गुजरात में मासूम से बलात्कार की घटना के बाद वहां के लोग यूपी-बिहार के लोगों के ख़िलाफ़ गोलबंद हो गए हैं. इसमें उनकी गलती नहीं. हाल के दिनों में बलात्कार को राजनीतिक रूप देने के लिए धार्मिक पृष्ठभूमि को उभारा गया है ताकि उसके बहाने एक समुदाय विशेष पर टूट पड़ें.

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(प्रतीकात्मक फोटो: ट्विटर/@Gurpree46492633)

गुजरात में मासूम से बलात्कार की घटना के बाद वहां के लोग यूपी-बिहार के लोगों के ख़िलाफ़ गोलबंद हो गए हैं. इसमें उनकी गलती नहीं. हाल के दिनों में बलात्कार को राजनीतिक रूप देने के लिए धार्मिक पृष्ठभूमि को उभारा गया है ताकि उसके बहाने एक समुदाय विशेष पर टूट पड़ें.

(प्रतीकात्मक फोटो: ट्विटर/@Gurpree46492633)
(प्रतीकात्मक फोटो: ट्विटर/@Gurpree46492633)

गुजरात में चौदह महीने की एक बच्ची के साथ बलात्कार की घटना ने एक नई परिस्थिति पैदा कर दी है. बच्ची जिस समाज की है उसके कुछ लोगों ने इसे अपने समाज की शान भर देखा है.

वे सामूहिक रूप से उग्र हो गए हैं. कह सकते हैं कि इस समाज के भीतर भीड़ बनने के तैयार लोगों को मौका मिल गया है. इसलिए ठाकोर समुदाय के लोगों ने इसमें शामिल आरोपियों की सामाजिक पृष्ठभूमि के सभी लोगों को बलात्कार में शामिल समझ लिया है.

इसमें उनकी ग़लती नहीं है. हाल के दिनों में बलात्कार को राजनीतिक रूप देने के लिए धार्मिक पृष्ठभूमि को उभारा गया ताकि उसके बहाने एक समुदाय पर टूट पड़ें.

आरोपी मुसलमान है तो हंगामा लेकिन आरोपी हिंदू है और पीड़ित दलित तो चुप्पी. पीड़िता के साथ हुई क्रूरता के बहाने धार्मिक गोलबंदी का मौका बनाया जा रहा है. यही काम जाति के स्तर पर भी हो रहा है.

हालांकि गुजरात के सभी दलों ने इस घटना की निंदा की है. ठाकोर समाज के नेता अल्पेश ठाकोर ने भी निंदा की है और अपील की है. वहां की सरकार ने भी उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के लोगों को भगाने की घटना की भी निंदा की है.

गुजरात पुलिस इस मामले में सक्रिय है. धमकाने वाले तीन सौ से अधिक लोगों को गिरफ़्तार किया है. ठाकोर समाज के लोगों ने भाजपा का विरोध किया था.

अगर बलात्कार का मामला धार्मिक रंग ले लेता तब देखते कि गुजरात पुलिस क्या करती. कुछ नहीं करती. फिर भी इस मामले में पुलिस ने सख़्ती बरती है.

चीफ सेक्रेटरी और पुलिस प्रमुख ने सक्रियता दिखाई है. इसलिए इस मामले में दोनों तरफ के समाज को समझाने की ज़रूरत है. क़ानून का भरोसा देने के लिए और बलात्कार के ख़िलाफ़ समाज को जागरूक बनाने के लिए काम करना होगा.

इन सबके बीच जिन लोगों को अहमदाबाद की बसों में लदा कर तीस-तीस घंटे की असहनीय यात्रा पर निकलना पड़ा है, उनकी यह पीड़ा पूरे देश को शर्मसार करे. यह कितना दुखद है.

यूपी और बिहार के लोगों ने इस मुल्क को सस्ता और उम्दा श्रम देकर संवारा है. हर बात पर उन्हें हांक देना ठीक नहीं है.

इसी गुजरात से 2014 में बसों में भरकर ये लोग यूपी और बिहार के गांवों में भेजे गए थे ताकि वे नरेंद्र मोदी का प्रचार कर सके. गुजरात मॉडल का झूठा सपना बांट सकें. मजबूरी में मज़दूर क्या करता. चला गया और प्रचार का काम कर आया.

इन लोगों के साथ गुजरात के शहरों और देहातों में मारपीट की घटना सामने आई है. मकान मालिकों ने धमकाया है कि राज्य छोड़ दो. इतनी असहनशीलता ठीक नहीं है.

गुजरात बनाम यूपी-बिहार नहीं होना चाहिए. नेताओं ने आपको बांट दिया है. अब आप उसके लिए मात्र मांस की बोटी रह गए हैं. बड़े नेताओं की शक्ल देखकर छोटे स्तर पर भी नेता बनने के लिए लोग यही फॉर्मूला आज़मा रहे हैं.

ऐसे लोगों को गुजरात में और बिहार में कहीं भी पनपने न दें. हम हर समय एक अन्य की तलाश में हैं. पहले धर्म के आधार पर एक अन्य तय करते हैं फिर जाति के नाम पर, फिर भाषा के नाम पर.

ऐसा नहीं है कि यूपी-बिहार में भीड़ नहीं है. बिहार के सुपौल में गुंडों ने अपने मां-बाप और रिश्तेदार के साथ मिलकर लड़कियों के हॉस्टल पर हमला कर दिया. पैतीस लड़कियां घायल हैं. इन लड़कियों ने रोज़ाना की छेड़खानी का विरोध किया था.

बारह से सोलह साल की लड़कियों पर पूरा समाज टूट पड़ा. बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में एक बालिका गृह में क़रीब चालीस लड़कियों का शोषण हुआ वहां के समाज में कोई हलचल नहीं हुई.

उस समाज को अब सिर्फ रामनवमी और मोहर्रम के दिनों में तलवार लेकर दौड़ने आता है. बाकी जो नहीं दौड़ रहे हैं वो घर बैठकर सही ठहराने के कारण खोज कर मस्त हैं.

बिहार और यूपी में पिछले दिनों धार्मिक आधार पर जो भीड़ बनकर पागलों की तरह घूम रही है वो नई नहीं है. बस नया यह है कि पहले से ज़्यादा संगठित है.

त्योहारों और जानवरों के हिसाब से उसके कार्यक्रम तय हैं. भीड़ के दुश्मन तय हैं और इस भीड़ के कार्यक्रम से किसे लाभ होगा वह भी. सोशल मीडिया पर भीड़ बनाने की फैक्ट्री है. यह भीड़ हमें असुरक्षित कर रही है.

हम ख़ुद को इस भीड़ के हवाले कर रहे हैं और भीड़ के नाम पर समाज और सरकार में गुंडे पैदा करने लगे हैं. बेशक आक्रोश की बात है लेकिन सज़ा कैसे मिले, सिस्टम कैसे काम करे इस पर फोकस होना चाहिए.

जो लोग शामिल थे उनके साथ नरमी न हो मगर बाकियों को क़सूरवार क्यों समझा जाए. यह मानसिकता कहां से आती है? इसकी ट्रेनिंग सांप्रदायिक राजनीति से मिलती है.

हम खंडित होते जा रहे हैं. गोलबंदी के लिए हिंसा एकमात्र मकसद रह गई है. किसी को मारना हो तो पागलों की भीड़ जमा हो जाती है. बाकी किसी काम के लिए चार लोग नहीं मिलते.

(यह लेख मूल रूप से रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ है.)