जब प्रधानमंत्री अपने 2019 के चुनावी मंसूबों को नए-नए पंख लगाने के फेर में हैं, उनके गृहराज्य गुजरात के उपद्रवी तत्व एक बच्ची से बलात्कार का बदला लेने के बहाने उनके ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे की हवा निकालने में लगे हुए है.
बहुत से लोगों को अभी भी याद होगा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर, 2015 में लोकसभा को संबोधित करते हुए अपने ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को ‘सत्यमेव जयते’, ‘अहिंसा परमो धर्मः’, ‘सर्वधर्म समभाव’, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’ और ‘जनसेवा ही प्रभुसेवा’ के साथ ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाणे रे, पर दुखे उपकार करे तो ये मन अभिमान न आने रे’ आदि से जोड़ा था.
उस वक्त उन्होंने देश के संविधान और उसके अंतर्निहित मूल्यों पर जैसा बल दिया, वह न सिर्फ उनके पद की गरिमा के अनुरूप था बल्कि उसमें निहित संदेश की उनके विरोधियों तक ने सराहना की थी.
इसलिए कि उन्होंने भारत की सामाजिक परंपरा में आत्मपरिष्कार की क्षमता का जिक्र करते हुए न सिर्फ राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, ज्योतिबा फुले और नरसी मेहता से लेकर महात्मा गांधी तक को याद किया, बल्कि यह भी कहा था कि यह वह परंपरा है जिसने भारतीय सामाजिकता का आधुनिकीकरण किया और उसे ऐसा उदार बहुलतावादी चरित्र प्रदान किया है, जो लाजवाब है.
उनका उक्त आइडिया हकीकत में बदल सकता तो आगे देश को शायद ही किसी नए आइडिया की जरूरत पड़ती. तमाम सामाजिक उद्धेलन भी तब इतने रौद्र रूप में हमारे सामने नहीं ही खड़े होते. लेकिन अपनी जमात के जिन नेताओं को उन्होंने राजनीतिक फायदों के लिए अनाप-शनाप कुछ भी बोलने और अच्छा बुरा कोई भी कदम उठाते रहने को ‘आजाद’ कर रखा था और अभी भी किये ही रखा है, उन्होंने यह समझकर उसे कान नहीं दिया और अपना अलग ही बेसुरा राग अलापते रहे कि प्रधानमंत्री का आइडिया हाथी के दिखाने वाले दांतों जैसा है.
खाने वाले दांतों जैसा होता तो वे पहले इसे उनके साथ बैठक करके साझा करते. और अब, जब प्रधानमंत्री अपने 2019 के चुनावी मंसूबों को नए-नए पंख लगाने के फेर में हैं, उनके गृहराज्य गुजरात के उपद्रवी तत्व एक बच्ची से बलात्कार का बदला लेने के बहाने न सिर्फ उनके ‘आइडिया आॅफ इंडिया’ बल्कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे की भी की हवा निकाल देने में लगे हुए है.
ये उपद्रवी उत्तर भारतीयों के खिलाफ जैसी आक्रामकता का प्रदर्शन कर रहे हैं, वह प्रधानमंत्री के आइडिया आॅफ इंडिया का ऐसा विलोम है कि पीड़ित उत्तर भारतीयों को समझ में नहीं आ रहा कि उक्त आइडिये का सच बड़ा है या उनके गृहराज्य के लोगों के दुर्व्यवहार का? क्यों उनके उपद्रवी अपनी उद्दंडता में यह भी नहीं सोच रहे कि इन्हीं उत्तर भारतीयों ने एक गुजराती को जिताकर प्रधानमंत्री बना रखा है.
कोई नहीं कहता कि गत 28 सितंबर को वहां के साबरकांठा जिले के हिम्मतनगर क्षेत्र के ढुंढर गांव में एक चैदह महीने की बच्ची के साथ जो जघन्य बलात्कार हुआ, उसके कुसूरवार को कड़ी से कड़ी सजा देने में किंचित भी कोताही बरती जाये.
राज्य के गृहमंत्री प्रदीपसिंह जाडेजा के इस बयान का आमतौर पर स्वागत ही किया गया है कि हाईकोर्ट से परामर्श के बाद इस केस को फास्ट ट्रैक किया जाएगा और दो महीने के अंदर कानूनी कार्रवाई खत्म कर गुनाहगार को नए बलात्कार विरोधी कानून के तहत फांसी की सजा दिलाई जायेगी.
लेकिन उसके अभियुक्त रवींद्र गोंडे की गिरफ्तारी के बाद जिस तरह मुद्दे को ‘गुजराती बनाम बाहरी’ में बदल दिया गया और उत्तर भारतीयों को निशाना बनाकर उन्हें महाराष्ट्र की शिवसेना व महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना द्वारा कराये जाते रहे कड़वे अनुभवों से दो चार कराया जा रहा है, वह उस गुजराती अस्मिता के भी प्रतिकूल है, जिसका मुख्यमंत्री रहते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बार-बार जिक्र करते रहे हैं.
साफ कहें तो इसके कारण मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनका गृहराज्य पहली बार गलत कारणों से चर्चा में आया है. वरना इस दौरान विकास के गुजरात माॅडल को लेकर ही चर्चाएं होती रही हैं.
अलबत्ता, कभी प्रधानमंत्री के समर्थन तो कभी विरोध में. अमिताभ बच्चन के विज्ञापनों की मार्फत गुजरात को समझने वाले लोगों के मनों में तो उसकी ऐसी सुनहरी तस्वीर बनी हुई है कि उसकी चमक ही फीकी नहीं पड़ती. लेकिन अब कई लोग यह भी कह रहे हैं कि खैर मनाइये कि उक्त बच्ची का बलात्कारी मुसलमान नहीं निकला वरना कौन जाने, 2002 की पुनरावृत्ति हो जाती.
विडम्बना देखिये कि केरल में बाढ़ से विनाश होता है तो उसे उस संयुक्त अरब अमीरात तक से हमदर्दी प्राप्त होती है, जहां उसके नागरिक रोजी रोजगार के सिलसिले में आते-जाते रहते हैं. वह स्वीकार करता है कि उसके नवनिर्माण में केरल के भाइयों का भी योगदान है.
लेकिन गुजरात में एक जघन्य वारदात के बाद उत्तर भारतीयों को पूरी तरह अवांछित मान लिया गया है और उनका कोई योगदान स्वीकार नहीं किया जा रहा.
ठीक है कि उत्तर भारत के राज्यों में रोजी रोजगार की हालत अच्छी न होने के कारण वहां से लाखों लोग गुजरात और महाराष्ट्र समेत देश के विभिन्न राज्यों में जाते हैं और छोटे-मोटे काम-धंधे करके, ठेले वगैरह चलाकर या सिक्योरिटी गार्ड और फैक्ट्रियों में मजदूर बनकर अपनी जीविका अर्जित करते हैं.
लेकिन अपने खून पसीने की खाने वाले ये लोग इतने बेगाने या परजीवी नहीं कि वे रहें या भाग जायें, गुजरात और उसकी सरकार को कोई फर्क ही न पड़े. इसलिए पूछना ही होगा कि रूपाणी सरकार ने क्यों पहले तो उपद्रवियों को उनके खिलाफ खुलकर खेलने दिया, फिर सोशल मीडिया की मार्फत फैलाई जा रही अफवाहों पर भी अंकुश नहीं लगाया और अब डैमेज कंट्रोल के लिए वह सारे बवाल का ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ रही है.
बहरहाल, इतना तो साफ है कि उत्तर भारतीयों के खिलाफ साबरकांठा के हिम्मतनगर से शुरू हुआ अभियान जितनी तेजी से साबरकांठा, मेहसाणा, गांधीनगर और अहमदाबाद के चांदखेड़ा, अमराईवाड़ी, बापुनगर और ओढव जैसे इलाकों में पहुंचा और जिसमें सबसे ज्यादा कहर ऐसे निर्दोष मजदूरों पर टूटा, जिनका मामले से कोई लेना देना ही नहीं था, वह किसी दबी-ढकी साजिश के बगैर मुमकिन नहीं था.
लेकिन इस बात का क्या तुक है कि रूपाणी सरकार ने पहले तो पीड़ितों को उनके हाल पर ठोड़ दिया और अब कह रही है कि वह क्या करे कांग्रेस के अल्पेश ठाकोर की ठाकोर सेना के कारण चीजें नियंत्रण से बाहर चली गईं.
समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि उस सरकार को एक पल भी सत्ता में रहने का अधिकार नहीं है, जो यह कहे कि उससे परिस्थितियों के आकलन में चूक हो गई या कि वह वक्त पर उपयुक्त प्रतिक्रिया नहीं दे सकी.
लेकिन लगता नहीं कि गुजरात सरकार इस कथन के आईने में अपना मुंह देखेगी. देश के दुर्भाग्य से जब भी कोई संकट उपस्थित होता है, भाजपा व कांग्रेस के रूप में उसकी दोनों पार्टियां उससे उत्पन्न समस्याओं के समाधान के प्रति समर्पित होने के बावजूद एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप में व्यस्त हो जाती हैं.
इसी की मिसाल पेश करते हुए कांग्रेस नेता संजय निरुपम यह कहने की हद तक चले गये हैं कि जो लोग गुजरात में उत्तर भारतीयों को मारपीट रहे हैं, उनको याद रखना चाहिए कि नरेंद्र मोदी को फिर वाराणसी जाना है, जो उत्तर भारत में ही है.
कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी चाहें तो अपना यह बयान भी दोहरा सकते हैं कि यह प्रधानमंत्री का नया क्रूर भारत है. भाजपा चाहे तो उन्हें उनकी पार्टी के सत्ताकाल के इससे बड़े उपद्रवों की ओर इंगित कर सकती है.
लेकिन इस वक्त देश की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसके पास एक भी ऐसा नेता नहीं है, जो इस बड़े देश को आसेतु हिमालय संबोधित कर आइडिया आॅफ इंडिया की दिशा में प्रेरित कर सकता हो.
प्रायः सारे नेता और पार्टियां नाराज भीड़ खड़ी करने और उनके कारण फैलने वाले उद्वेलनों का लाभ उठाने में लगी रहती हैं. इस कदर कि कहना मुश्किल है कि उनमें कौन कम है और कौन ज्यादा?
यही कारण है कि जब इस किस्म की घटनाएं होती हैं तो अपराधी के पूरे समुदाय को निशाना बनाया जाता है और नेता भी ‘स्थानीय बनाम बाहरी’ की भावना को हवा देते हैं. सवाल है कि इन हालात में बदलाव के लिए बिल्ली के गले में घंटी कब और कौन बांधेगा?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)