सनातन संस्था एवं हिंदू जनजागृति समिति जैसे ‘आध्यात्मिक’ कहे जाने वाले संगठनों से कथित तौर पर संबद्ध कई लोगों की गिरफ़्तारी इनकी अतिवादी गतिवधियों की ओर इशारा करती है. बीते दिनों सामने आया एक स्टिंग ऑपरेशन बताता है कि अपनी संगठित हिंसक गतिविधियों के बावजूद इन संगठनों को मिले राजनीतिक संरक्षण के चलते उनके ख़िलाफ़ सख्त कार्रवाई से हमेशा बचा गया.
क्या भारत कोई तानाशाही वाला मुल्क है, जहां मौत के दस्ते असहमति रखनेवालों को निशाने पर लेकर चलते हैं. वैसे आज़ादी के सत्तर साल बाद यही हक़ीकत रफ्ता-रफ्ता सामने आ रही है. दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश, फारूक हमीद.
वैसे अपने सबसे ताज़ा नाटक – ‘राक्षस तंगडी, जो विजयनगर के आखिरी शासक अलिया रामराया (1485-1565) की ज़िंदगी पर आधारित है, – की रचना प्रक्रिया के दौरान मशहूर नाटककार, कलाकार एवं बुद्धिजीवी गिरीश कर्नाड ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक अतिवादी संगठन जो हिट लिस्ट तैयार कर रहा है, उसमें उनका नाम सबसे आगे दर्ज हो रहा होगा.
फिलवक्त उनके घर के सामने मौजूद पुलिस की टीम यही कड़वी सच्चाई बयां कर रही है. और महज गिरीश कर्नाड ही नहीं इस सूची में और भी कइयों के नाम हैं.
कर्नाटक पुलिस की स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम ने – जो जुझारू पत्राकार एवं कार्यकर्ती गौरी लंकेश की हत्या की जांच में मुब्तिला थी, उसने यही खुलासा किया है. उसने जिन दो सूचियों को बरामद किया गया है, उसमें कोंकणी उपन्यासकार और लघुकथा लेखक दामोदर मौजो; तर्कशीलवादी और कन्नड लेखक, अनुवादक केएस भगवान और मराठी पत्रकार निखिल वागले, कर्नाटक के ही योगेश मास्टर जैसों के नाम है.
मालूम हो कि हत्या को अंजाम देने के लिए सनातन संस्था एवं हिंदू जनजागृति समिति जैसे ‘आध्यात्मिक’ कहे जाने वाले संगठनों के साथ कथित तौर पर संबद्ध कहे गए लगभग 15 लोगों को उसने गिरफ्तार किया है. इस खुलासे के बाद जिस तरह एक सदमे की स्थिति नुमायां थी वह अब नहीं दिखती.
ऐसा नहीं कि इन अज़ीम शख्सियतों – जो भले ही अलग अलग जुबानों में, अलग अलग रूपों में लिखते हों या उसे प्रकट करते हों, मगर जिनमें एक साझापन यह जरूर है कि वह सभी हर किस्म के धार्मिक कट्टरतावाद की मुखालिफत में हमेशा खड़े रहते आए हैं- की ज़िंदगी के लिए जो आसन्न खतरा दिख रहा था, वह टल गया है.
गिरीश कर्नाड ही नहीं बाकियों को मिली पुलिस की सुरक्षा बरकरार है, (जिसमें निखिल जैसे कुछ गिने-चुने भी हैं, जिन्होंने सुरक्षा लेने से ही इनकार किया है), फर्क महज इतना ही आया है कि कुछ न कुछ तरीकों से यह दोनों संगठन हमेशा सुर्खियों में रहने का इंतज़ाम करते दिखते हैं, भले ही उसकी वजहें बेहद विवादास्पद हों.
मिसाल के तौर पर जिन दिनों इस हिट लिस्ट का खुलासा हो रहा था कि उन्हीं दिनों मुंबई के पास स्थित नालासापोरा में महाराष्ट्र पुलिस ने छापा डालकर किसी वैभव राउत के घर से ढेर सारे बम, जिलेटिन स्टिक्स, तीस से अधिक विस्फोटक, अख़बार में लपेट कर रखी गयी 150 ग्राम सफेद पाउडर आदि को बरामद किया.
उसके साथ उसके चार अन्य साथियों को भी जगह जगह से गिरफ्तार किया. पता चला कि इस आतंकी समूह ने मुंबई, पुणे, सातारा और नालासोपारा के इलाकों में विस्फोटों की योजना बनायी थी ताकि सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ा जा सके, दंगें हों आदि. उनकी यह खास कोशिश थी कि गणेशोत्सव, ईद के इस आसन्न मौसम में इन बमों को इस तरह रखा जाए ताकि अधिक से अधिक जीवित हानि हो सके.
इसमें कोई दोराय नहीं कि कर्नाटक की पुलिस ने जिस पेशेवर तरीके से इस जांच को अंजाम दिया, जिसने यह समूचा आतंकी नेटवर्क उजागर हो सका. उसने महाराष्ट्र के आतंकवाद विरोधी दस्ते को जो जानकारियां प्रदान की, उसके बाद उसे इस मसले पर आगे बढ़ने का मौका मिला और एक तरह से कार्रवाई करने के लिए मजबूर भी होना पड़ा.
फिलवक्त यह मामला सुर्खियों के पीछे चला गया है और आशंका जतायी जा रही है कि जिस तरह विगत दस सालों से अधिक समय से हिंदुत्व आतंक के जिन मामलों को दक्षिणपंथी संगठनों के दबाव और प्रशासन व राज्य में उनके बढ़ते दखल ने हल्का कर दिया, उसके असली मास्टरमाइंड को हमेशा बचाया गया, क्या वही सिलसिला इस विस्फोटक खुलासे के बाद भी दोहराया जाएगा.
‘इंडिया टुडे’ द्वारा पिछले दिनों जिस स्टिंग ऑपरेशन को अपने चैनल पर दिखाया गया, जिसमें सनातन संस्था के दो साधक मंगेश निकम और हरिभाउ दिवेकर – जो दोनों आतंकी गतिविधियों में अपनी संलिप्तता के चलते जेल जा चुके हैं – जिसमें उन्होंने आतंकी घटनाओं में अपनी संलिप्तता, अपने सांगठनिक जुड़ाव आदि के बारे में बताया है, जिसमें घटना की जांच में शामिल रहे पुलिस अधिकारियों के बयान भी दर्ज है – दरअसल इसी बात की ताईद करता दिखता है.
उसमें बताया है कि किस तरह अपनी संगठित हिंसक गतिविधियों के बावजूद इन संगठनों को मिले राजनीतिक संरक्षण के चलते उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई से हमेशा से बचाया गया.
स्टिंग ऑपरेशन न केवल हिंदू राष्ट्र बनाने के सनातन संस्था एवं उनके सहयोगी संगठन हिंदू जनजागृति समिति के इरादों पर रोशनी डालता है बल्कि यह भी बताता है कि किस तरह इसके लिए वह ‘चार लाख योद्धाओं’ की फौज तैयार करना चाहते हैं.
अब जैसी कि आम तौर पर रवायत चली आ रही है सनातन संस्था ने इन आरोपों से इनकार किया है और कहा है कि इन दो साधकों को ‘झूठे बयान देने’ के लिए लालच दिया गया है तथा स्टिंग ऑपरेशन के इन खुलासों को आईटी अधिनियम के तहत सबूत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
अलबत्ता इस मसले पर कम से कम महाराष्ट्र के गृह राज्य मंत्री दीपक केसरकर औपचारिक तौर पर अलग ढंग से सोचते है, जिन्होंने यह कहा है कि इस स्टिंग ऑपरेशन के बाद उनके पास नए सबूत आए हैं और वह इस मामले में ‘केंद्र सरकार को सूचित करेंगे और उचित कार्रवाई करेंगे.’
यह अलग बात है कि इतने विस्फोटक खुलासे के बाद भी न महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और न ही हुर्रियत और पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया के खिलाफ कार्रवाई करने की बात करनेवाले केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह बिल्कुल मौन हैं. फिर ऐसी ‘उचित कार्रवाई’ से क्या उम्मीद की जा सकती है?
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ध्यान रहे कि सनातन संस्था का नाम देश के पैमाने पर मालेगांव बम विस्फोट (सितंबर 2008) के चंद माह पहले पहली बार तब सुर्खियां बना था, जब वाशी, ठाणे आदि स्थानों पर हुए बम विस्फोटों को लेकर महाराष्ट्र एंटी टेररिस्ट स्क्वॉड के प्रमुख हेमंत करकरे ने इस संगठन के कथित तौर पर संबद्ध कार्यकर्ताओं को पकड़ा था, जिनमें से दो को बाद में बंबई सत्र न्यायालय ने (रमेश हनुमन्त गडकरी उम्र 53 और विक्रम विनय भावे उम्र 29) को विस्फोटक पदार्थ रखने एवं उसके इस्तेमाल का दोषी पाया तथा दस साल की सज़ा भी सुनायी थी.
दरअसल 31 मई 2008 को वाशी के विष्णुदास भावे ऑडिटोरियम में एक नाटक शो के दौरान विस्फोट हुआ था और उसके महज चार रोज बाद ठाणे के गडकरी रंगायतन आडिटोरियम के बेसमेंट में भी दूसरा बम विस्फोट हुआ था.
विस्फोट के वक्त एक चर्चित नाटक ‘आम्ही पाचपुते’ का वहां प्रदर्शन हो रहा था. इसे इत्तेफाक कहा जा सकता है कि वाशी में बम को पहले ही निष्क्रिय किया गया था, वहीं ठाणे में इस बम विस्फोट से लोगों को मामूली चोटें ही आयी थीं.
मंगेश निकम और हरिभाउ दिवेकर जैसे साधक इसी आतंकी कार्रवाई में संलिप्त पाए गए थे. इन लोगों की आपत्ति इस नाटक एवं ठाणे के सिनेमाघर में दिखाए जा रहे सिनेमा पर थी क्योंकि उनका मानना था कि वह ‘‘हिंदू संस्कृति के खिलाफ’ हैं.
गौरतलब है कि इन गिरफ्तारियों ने महाराष्ट्र और गोवा में चुपचाप फैलते जा रहे उग्रवादी हिंदू संगठनों के विस्तृत तानेबाने को इस कदर उजागर किया कि जबरदस्त हड़कंप मच गया था. यह प्रश्न विचारणीय हो उठा था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंदू धर्म के प्रचार प्रसार के आड़ में, आध्यात्मिकता के प्रसार की आड़ में, जगह-जगह आश्रमों का निर्माण करके इस काम को अंजाम दिया जा रहा है!
अधिक पड़ताल करने पर पता चला कि ‘सनातन संस्था’ जिसका गठन 1999 में हुआ है, वह बंबई से पचास किलोमीटर दूर पनवेल के पास एक आश्रम का संचालन करती है, जहां ये अभियुक्त भी रहते थे.
जांच में पुलिस के सामने यह तथ्य भी आए थे कि उपरोक्त संस्था एक तरफ जहां ‘आध्यात्मिक मुक्ति’ की बात करती है ‘सदाचार/धार्मिकता की जागृति’ की बात करती है, एक ऐसी दुनिया जो ‘साधकों और जिज्ञासा रखनेवालों के सामने धार्मिक रहस्यों को वैज्ञानिक भाषा में पेश करने का मकसद रखती है’ और ‘जो साप्ताहिक आध्यात्मिक बैठकों, प्रवचनों, बाल दिशानिर्देशन वर्गों, आध्यात्मिकता पर कार्यशालाओं’ आदि का संचालन करती है, मगर दूसरी तरफ वहां ‘शैतानी कृत्यों में लगे लोगों के विनाश’ को ‘आध्यात्मिक व्यवहार’ का अविभाज्य हिस्सा समझा जाता है. [देखें: ‘साइन्स ऑफ स्पिरिच्युआलिटी’ जयन्त आठवले, वॉल्यूम 3, एच- सेल्फ डिफेंस ट्रेनिंग, चैप्टर 6, पेज 108-109] और यह विनाश ‘शारीरिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर’ करना है.
गौरतलब है कि इस ‘धर्मक्रांति’ को सुगम बनाने के लिए साधकों को हथियारों- राइफल, त्रिशूल, लाठी और अन्य हथियारों का प्रशिक्षण भी दिया जाता रहता है.
अक्टूबर 2009 में इस संगठन से कथित तौर पर संबद्ध दो आतंकी- मालगोंडा पाटील और योगेश नायक – मडगांव बम विस्फोट में तब मारे गए थे जब वे दोनों नरकासुर दहन नाम से समूचे गोवा में लोकप्रिय कार्यक्रम के पास विस्फोटकों से लदे स्कूटर पर जा रहे थे और रास्ते में ही विस्फोट हो जाने से न केवल उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा बल्कि उनकी समूची साजिश का भी खुलासा हुआ.
वे पुलिस को भी गुमराह करना चाह रहे थे ताकि सारा दोष मुसलमानों के माथे जाए. इस हमले के लिए उनके स्कूटर से बरामद हुई दिल्ली के खान मार्केट से खरीदा बैग, अल्पसंख्यकों में प्रयोग में आने वाला पारंपरिक किस्म का इत्र और बासमती चावल का एक खाली झोला जिसमें सब उर्दू में लिखा था, इन सामानों से वे अपना यह लक्ष्य हासिल करना चाह रहे थे.
बाद में यह बात भी पता चली कि सनातन संस्था एवं उसके सहयोगी संगठन हिंदू जनजागृति समिति के कार्यकर्ता दिवाली के वक्त नरकासुर बनाने और उसके दहन की लम्बी परंपरा के खिलाफ लंबे समय से अभियान चलाते रहे हैं. उनका कहना रहा है कि इस तरह एक राक्षस की झांकी तैयार करना शैतान का महिमामंडन करना है और यह हिंदू संस्कृति का अपमान है.
ख़बरों के मुताबिक सनातन संस्था से कथित तौर पर संबद्ध अतिवादी उसी दिन मडगांव से 20 किलोमीटर दूर वास्को बंदरगाह के पास स्थित सान्काओले में एक अन्य बम विस्फोट की कोशिश में भी शामिल थे. ट्रक में बैग में रखे टाइमबम की तरफ उसमें सवार लोगों की निगाह गयी थी, जिन्होंने उसे अचानक बाहर खेतों में फेंक दिया था.
अगर बम विस्फोट होता तो ट्रक में सवार चालीस से अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ता, जो नरकासुर प्रतियोगिता में भाग लेने जा रहे थे. राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा इस मामले में दायर आरोपपत्र में जहां इस बात को साफ लिखा गया है कि उपरोक्त आतंकी ‘सनातन संस्था’ से जुड़े थे, वह इस बात का भी विशेष उल्लेख करती है कि आश्रम में ही बम विस्फोट की साजिश रची गयी.
बाद में जब मारे गए इन साधकों – मालगोंडा पाटील और योगेश नायक – जैसों के साथ अपने सम्बन्ध से ‘सनातन संस्था’ ने इनकार किया, उस वक्त डॉ. नरेंद्र दाभोलकर ने पणजी में आयोजित एक जनसभा में यह प्रश्न उठाया था:
…आखिर ऐसा क्यों होता है कि संस्था के कार्यकर्ता अक्सर उसी किस्म का ‘गलत रास्ता’ अपनाते हैं और अधिक विचारणीय यह है कि आखिर इस तर्क को किस तरह स्वीकार किया जाता है और एक संस्था के तौर पर कोई कार्रवाई हुए बिना ही संस्था बेदाग छूटती है? यह बात भी अविश्वसनीय लगती है कि सनातन संस्था से संबद्ध कुछ स्वच्छंद/स्वेच्छाचारी कार्यकर्ता, एक बेहद अनुशासित एवं गोपनीय संगठन से स्वतंत्र होकर विस्फोटों को अंजाम दें तथा इस पूरे प्रसंग की संगठन के किसी वरिष्ठ नेता को कोई जानकारी तक न हो.’
ठाणे, वाशी, मडगांव, सन्कोले, इन संगठनों की विवादास्पद गतिविधियों को लेकर अन्य ढेर सारी बातें की जा सकती हैं.
उपरोक्त संस्था द्वारा मराठी, अंग्रेजी आदि भाषाओं में प्रकाशित अख़बार ‘सनातन प्रभात’ भी अक्सर सुर्खियों में रहता आया है क्योंकि उसमें अन्य समुदायों के खिलाफ बहुत अपमानजनक बातें लिखी गयी होती हैं. एक बार ऐसे ही लेख के प्रकाशन के बाद मिरज शहर में दंगे की नौबत तक आ गयी थी.
महाराष्ट्र के अग्रणी दैनिक लोकसत्ता में लिखे लेख में उपरोक्त संस्था द्वारा मराठी में प्रकाशित पुस्तिका ‘क्षात्रधर्म’ के अंश दिए गए हैं, जो इस संस्था के चिन्तन और कार्यप्रणाली पर और रोशनी डालते हैं.
उन्हीं दिनों ‘मुंबई मिरर’ नामक अख़बार को दिए साक्षात्कार में संस्था के एक मैनेजिंग ट्रस्टी ने खुल्लमखुल्ला कहा था कि हम ‘हथियारों का प्रशिक्षण देते हैं’. सवाल उठता है कि अपने आप को आध्यात्मिक संस्था कहलाने वाली संस्था को हथियारों का प्रशिक्षण देने की जरूरत क्यों पड़ती है?
आस्था की दुहाई देते हुए उपरोक्त संगठन छद्म विज्ञान के प्रचार में भी मुब्तिला दिखते हैं. पिछले साल उनके इस विज्ञान विरोधी प्रचार के चपेट में खुद महाराष्ट्र का शिक्षा विभाग भी आया.
दरअसल पिछले साल महाराष्ट्र के उच्च शिक्षा विभाग की तरफ से एक परिपत्र/सर्कुलर जारी हुआ, जिसकी तरफ से पुणे की मशहूर सावित्रीबाई फुले विद्यापीठ और उससे आनुषंगिक संगठनों को यह निर्देश दिया था कि उनके छात्र गणेशों के पर्यावरण अनुकूल विसर्जन की मुहिमों से जुड़ने से दूर रहें क्योंकि उससे लोगों की ‘धार्मिक भावनाएं’’ आहत होती हैं.
पुणे विश्वविद्यालय में पहुंचे इस परिपत्र से इतना हंगामा हुआ कि राज्य सरकार को इस मामले में अपना आपत्ति दर्ज करानी पड़ी तथा खुद शिक्षा मंत्री ने जांच के आदेश दिए.
अधिक पड़ताल करने पर यह तथ्य उजागर हुआ कि हिंदू जनजागृति समिति ने शिक्षा विभाग को लिखा था और इन ‘नकली पर्यावरणवादियों’ निशाना बनाया था और उनके ‘उथले पर्यावरणीय सरोकारों’ की भर्त्सना की थी.
सार्वजनिक जलाशयों में मूर्तियों के विसर्जन को लेकर उनके विरोध तथा उन्हें कृत्रिम जलाशयों/टैंकों में विसर्जित करने की मुहिम को उन्होंने ‘हिंदू परंपराओं का उल्लंघन’ बताया था.
और विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने भी उनकी बातों पर गौर किए बिना कि किस तरह मूर्तियों के विसर्जन से पानी में धातुओं की मात्रा बढ़ती है और घुले हुए ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है और जिसके चलते जलाशयों के मरने की नौबत आती है, झट से आदेश जारी किया था.
उन्हें इस बात पर गौर करना चाहिए था कि आम दिनों में किस तरह पानी में धातु की मात्रा न्यूनतम होती है और त्योहारों के दिनों में जब मूर्तियां विसर्जित की जाती हैं, अचानक बढ़ती है, और किस तरह लोगों द्वारा पानी में फूल, प्लास्टिक, राख आदि डालने से भी उसका प्रदूषण का स्तर बढ़ता है.
इन तमाम बातों पर ध्यान दिए बिना उन्होंने उच्च शिक्षा विभाग के आदेश को सिर-आंखों पर लिया और इतना ही नहीं अपनी तरफ से उसमें यह भी जोड़ा कि जो छात्र ग्रीन गणेश या हरित गणेश की मुहिम में लगे हैं, उन पर निगरानी रखी जाए.
यह विडंबनापूर्ण था कि डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, जो महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक सदस्य थे तथा उनकी हत्या पुणे में ही की गयी थी, वह पर्यावरण अनुकूल गणेश विसर्जन की मुहिम में अग्रणी भूमिका में थे.
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कोई भी न्यायप्रिय व्यक्ति यही उम्मीद करेगा कि मुल्क का कानून – जो आस्था, धर्म, जाति, नस्ल आदि किसी भी आधार पर भेदभाव का विरोध करता है – उसे इस मामले में भी काम करने दिया जाएगा और उस पर कोई अतिरिक्त दबाव नहीं आएगा.
वैसे अब तक का सरकारी रिकॉर्ड – फिर भले केंद्र में सत्तासीन हुकूमत का हो या राज्य में सत्तासीन सरकारों का हो – कम से कम सनातन संस्था एवं उसके सहोदर संगठनों के बारे में रुख तय करने के मामले में, उत्साहित करने वाला नहीं है.
अगर हम पीछे मुड़ कर देखें तो ढेर सारे मासूमों का खून बहने से बचा जा सकता था, अगर महाराष्ट्र सरकार ने – जब वहां कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की साझा सरकार थी – और केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्ववाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार थी, तत्कालीन एटीएस के प्रमुख हेमंत करकरे के प्रस्ताव पर गौर किया होता (26 नवंबर 2008 के आतंकी हमले में जिनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हुई थी) जिन्होंने खुद पनवेल, थाने बम विस्फोटों की जांच की थी और इसमें कथित तौर पर मुब्तिला सनातन संस्था पर पाबंदी लगाने की मांग की थी.
अगर हम उस पूरे प्रसंग पर इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट को पलटें – जिसमें सनातन तथा उसके सहयोगी संगठन हिंदू जनजागृति समिति की कार्यप्रणाली की विस्तृत समीक्षा की थी – तो आज भी पता चलता है कि किस तरह की तैयारी तभी से चल रही थी.
इसमें लिखा गया था कि यह संगठन किस तरह ‘रामराज्य, हिंदू धर्म और ‘धर्म क्रांति’ के घोल/कॉकटेल’ पर हिंदुओं को लामबंद करते हैं. इसमें उन दिनों ही गठित ‘धर्मक्रांति सेना’ का भी जिक्र था, जिसकी स्थापना महाराष्ट्र के 16 जिलों में गुड़ी पाड़वा के दिन की गयी थी और यह भी बताया गया था कि किस तरह उसका प्रमुख विस्फोटक भाषण देता है.
पुणे की किसी बैठक में उसके प्रमुख ने कहा था कि ‘किस तरह हिंदुओं को चारों तरफ से घेरा गया है, मगर उनकी तरफ से प्रतिकार नहीं दिखता.’ ठाणे में आयोजित दूसरी किसी सभा में उसने कहा था कि ‘भविष्य का युद्ध धर्मयुद्ध होगा और धर्मक्रांति सेना उसका दिशा निर्देशक संगठन बन सकता है.’
इन संस्थाओं की कारगुजारियों को लेकर सरकार के स्तर पर चिंताएं हमेशा बरकरार रहीं. 2011 में महाराष्ट्र के आतंकवाद विरोधी दस्ते ने इन संगठनों की कार्रवाइयों पर एक और विस्तृत रिपोर्ट तैयार की और इसी रिपोर्ट के आधार पर तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने इन संगठनों पर पाबंदी लगाने की मांग दोहरायी, मगर यह प्रस्ताव ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.
वर्ष 2015 में भाजपा के नेतृत्ववाली गोवा सरकार ने श्रीराम सेने पर पाबंदी लगा दी, उन दिनों भाजपा विधायक विष्णु वाघ ने खुद सनातन संस्था पर पाबंदी लगाने की मांग की.
उन्होंने कहा कि प्रमोद मुतालिक की अगुआई वाली श्रीराम सेने, जिसने खुद गोवा के अन्दर उत्पात नहीं मचाया है, उसकी गतिविधियों पर अगर गोवा में पाबंदी लगायी जा सकती है, फिर सनातन संस्था जिसके कार्यकर्ता कई आतंकी घटनाओं में लिप्त पाए गए हैं, उनके प्रति इतना मुलायम रवैया क्यों?
फिलवक्त जैसे की हालात मौजूद हैं स्थिति बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं दिखती.
जुझारू पत्राकार एवं कार्यकर्ती गौरी लंकेश की हत्या पर ‘द वायर’ में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया था कि किस तरह गोवा में भाजपा की निर्णायक जीत के बाद सनातन संस्था और हिंदू जनजागृति समिति को मिले सियासी समर्थन से उनकी गतिविधियों ने नए सिरे से जोर पकड़ा था और वह अधिकाधिक आग्रही बनी थीं.
वर्ष 2012 से ही उन्होंने ‘हिंदू राष्ट्र की स्थापना’ के लिए इन संगठनों की तरफ से अखिल भारतीय हिंदू कन्वेन्शन की शुरुआत की गयी थी, जो सिलसिला आज भी यथावत जारी है. बहुत कम लोग इस बात से वाकिफ हैं कि वर्ष 2013 में इन संगठनों के स्थापना महोत्सव के दिन उन्हें शुभकामनाएं देते हुए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें बधाई संदेश भी दिया था.
Every organisation that works, based on the inspiration of nationalism, patriotism and tradition of loyalty, is the identity of our people’s strength. Closeness to love, humanity and divinity, giving priority to non-violence, truth and sattvikata are the principles followed by Hindus in leading their life but to have to resist brutal, inhuman tendencies seems to be the destiny of Hindus. It has been our tradition to be alert every moment and raise voice against oppression.
इस बधाई संदेश को लेकर कई प्रश्न पूछे जा सकते हैं.
मिसाल के तौर पर इस बात का क्या औचित्य था कि एक राज्य का मुख्यमंत्री – जो संविधान की शपथ लेकर पद पर आसीन हुआ है – एक ऐसे सम्मेलन को संदेश भेज रहा है, जो भारत को सेकुलर राज्य से हिंदू राष्ट्र बनाने की बात ऐलानिया करते हैं?
फिलवक्त इस बात का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि क्या केंद्र एवं राज्य सरकारें अपनी शीतनिद्रा से जागेंगी और महाराष्ट्र के गृह राज्यमंत्री के कहे अनुसार ‘आवश्यक कार्रवाई’ करेगी!
जाने माने पत्रकार निखिल वागले ने अपने एक लेख में उठाया प्रश्न अधिक गौरतलब है.
उन्होंने पूछा था,
‘अगर भारत सरकार ‘सिमी’ या जाकिर नाइक के संगठन पर पाबंदी लगा सकती है तो आखिर क्या बात उसे हिंदुत्व अतिवादी समूहों पर पाबंदी लगाने से रोक रही है?
क्या इस संगठन को दंडमुक्ति इसी वजह से मिली है क्योंकि वह हिंदू समूह हैं?’
निःस्सन्देह यह ऐसा सवाल है जिसका जवाब हुक्मरानों को देना होगा जो संविधान के प्रति प्रतिबद्धता का दावा करने से नहीं चूकते.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं.)