साक्षात्कार: वर्ष 1988 में पंजाब के प्रसिद्ध लोक गायक अमर सिंह चमकीला की 27 साल की उम्र में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. कहा जाता है कि उनके गीतों की वजह से उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया. उनकी ज़िंदगी पर आधारित फिल्म ‘मेहसमपुर’ रिलीज़ होने वाली है. फिल्म के निर्देशक कबीर सिंह चौधरी से प्रशांत वर्मा की बातचीत.
पंजाब के सबसे प्रसिद्ध लोकगायकों में से एक अमर सिंह चमकीला की ज़िंदगी पर फिल्म बनाने का ख़्याल कैसे आया?
मेरा एक दोस्त अक्षय एक फिल्म लिख रहा था, जिसका नाम ‘लाल परी’ है. यह फिल्म भी पंजाब के लोकगायक अमर सिंह चमकीला की ज़िंदगी पर आधारित एक फिक्शन (काल्पनिक) फिल्म थी. मैं बचपन से ही चमकीला के प्रति आकर्षित था. उनके गाने की शैली आपको मंत्रमुग्ध कर देती है.
स्टेज की ओर जाते हुए उन्हें गोली मार दी गई थी, जिसके बाद उनकी और उनके तीन साथियों की मौत हो गई थी. उनके गीतों की वजह से उन्हें अक्सर जान से मारने की धमकियां मिला करती थीं, लेकिन उन्होंने इस बात पर कभी ध्यान नहीं दिया और ज़िदंगी के आख़िरी पल तक अपना काम करते रहे.
हमने ‘लाल परी’ फिल्म पर काम शुरू किया था. जैसे-जैसे इस फिल्म को लेकर रिसर्च करनी शुरू की मैंने चमकीला से जुड़े लोगों के दर्द को महसूस किया तो मुझे लगा कि उनके दर्द को पर्दे पर दिखाना ज़्यादा बेहतर होगा.
इसी दौरान ही ‘मेहसमपुर’ फिल्म की कहानी का विकास हुआ. इस फिल्म की कहानी दरअसल फिल्मकार का सफ़र है, जो मुंबई से अमर सिंह चमकीला से जुड़े तथ्यों की खोज में पंजाब के गांवों तक पहुंचाता है. इस दौरान वह चमकीला से जुड़े लोगों, उनके दर्द और उनकी हत्या की पृष्ठभूमि से रूबरू होता है.
इस फिल्म में कैमरे का भी बहुत बड़ा किरदार है क्योंकि हमारा मुख्य कलाकार एक फिल्मकार है. ये कैमरा चमकीला से जुड़े लोगों की ज़िंदगी में दखल देता है और उनके दुख-दर्द को फिल्म के लिए क़ैद करता है.
चमकीला के बारे में आपको कैसे पता चला?
मैं पंजाब में पला-बढ़ा हूं. पंजाब की कला-संस्कृति में चमकीला एक आधारभूत तत्व हैं. उनके बिना पंजाबी लोकगायन की बात पूरी नहीं हो सकती. 1990 के दशक के ख़त्म होने और 2000 के दशक की शुरुआत में जब मैं बड़ा हो रहा था तो उनके गीतों के रिमिक्स यूके और कनाडा से भारत आया करते थे.
इन गीतों का इस्तेमाल उस दौर के कुलदीप मानक और सुरिंदर शिंदा जैसे गायक किया करते थे. उन्हें सुनकर मेरी उत्सुकता चमकीला की तरफ़ बढ़ी कि ये कौन है जो एकदम ठेठ अंदाज़ में गा रहा है. ये पेंडू (द्विअर्थी) गाने होते थे.
इसके बाद हमने चमकीला को जानने के क्रम में उनके ओरिजनल गानों की खोज शुरू की और उन्हें सुनने भी लग गए.
उस दौर में मैंने देखा था कि पंजाब में तमाम ट्रक डाइवर चमकीला के गाने ही सुना करते थे. चमकीला के साथ उनकी दूसरी पत्नी अमरजोत भी गीत गाती थीं. अमरजोत उनकी सिंगिंग पार्टनर थीं और हर गीत में उनका साथ देती थीं. इन गानों में कुछ ऐसा होता था जो उन्हें दिन हो या रात ट्रक चलाने के दौरान सोने नहीं देता था, उन्हें जगाए रखता था.
शायद ट्रक डाइवर चमकीला के गानों को ओपियम (अफ़ीम) की तरह इस्तेमाल किया करते थे. उनके गानों के कैसेट को चालू किया और ट्रक लेकर लंबे सफ़र पर निकल पड़े.
कहा जा सकता है कि उनके गीतों में एक तरह का नशा होता था जो आपको अपनी गिरफ़्त में ले लेता था. उनके गीतों के इसी जादू ने मुझे उन पर फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया.
ये गीत गाने जैसा नहीं था बल्कि चमकीला और अमरजोत के बीच एक लयात्मक संवाद होता था. मतलब चमकीला गाकर कुछ कहते या कोई सवाल उठाते थे तो अमरजोत उसी लय में गाकर उन्हें जवाब देती थीं. और जब अमरजोत कुछ कहती थीं तो चमकीला भी उसी अंदाज़ में जवाब देते थे. सुनने वाले दोनों के गीत गाने के इस अंदाज़ को काफी पसंद करते थे और इसकी काफी प्रशंसा भी किया करते थे.
फिल्म मेहसमपुर को मॉक्यूमेंट्री श्रेणी का बताया जा रहा है. ये मॉक्यूमेंट्री क्या चीज़ है और डॉक्यूमेंट्री से किस तरह अलग है?
मॉक्यूमेंट्री मतलब हमने इसे बायोपिक और डॉक्यूमेंट्री दोनों शैलियों को मिलाकर बनाया है. जैसे इस फिल्म में वास्तविक ज़िदंगी में चमकीला से जुड़े लोग नज़र आएंगे. एक हैं लाल चंद जो उस वक़्त स्टेज पर थे, जब चमकीला की हत्या की गई.
जालंधर ज़िले के मेहसमपुर में चमकीला की लगभग पूरी टीम की मौत हो गई थी. उस हमले में सिर्फ़ लाल चंद ही बच पाए थे. उन्हें एक गोली लगी थी. तो जब फिल्म के लिए कलाकारों को चुनने का समय आया तो हमने ऐसे ही लोगों को फिल्म का किरदार बना दिया जो वास्तव में चमकीला से जुड़े हुए थे.
इस फिल्म में इन लोगों ने अपने वास्तविक ज़िंदगी के काल्पनिक किरदार निभाए हैं. मतलब उनकी असल ज़िंदगी में थोड़ी फेरबदल कर उन्हें फिल्म की कहानी में जगह दे दी गई है.
इसी तरह से चमकीला के मैनेजर केसर सिंह टिक्की, कभी चमकीला की सिंगिंग पार्टनर रहीं सुरिंदर सोनिया और चमकीला के साथ ढोलक बजाने वाले लाल चंद आदि इस फिल्म में नज़र आएंगे. मतलब ये लोग फिल्म में अपना ही किरदार निभा रहे हैं, जो उनकी वास्तविक ज़िंदगी के काफी क़रीब है.
इस तरह से ये फिल्म मुझे इसी कैटेगरी की नज़र आई, इसीलिए हमने इसे डॉक्यूमेंट्री नहीं मॉक्यूमेंट्री नाम दिया.
फिल्म के लिए रिसर्च के दौरान इन लोगों से मिलने के बाद उनके बारे में जैसा हमने महसूस किया उन किरदारों को फिल्म की स्क्रिप्ट में शामिल किया. उन्हें इस बारे में जानकारी दी तो उन्हें ये पसंद आया. ये किरदार उन्हें अपनी ज़िंदगी के काफी नज़दीक नज़र आए.
फिल्म के एक पोस्टर में एक जोड़ी जूतों में दांत लगे हुए नज़र आ रहे हैं. इसके ज़रिये आप क्या दिखाना चाहते हैं?
दरअसल वो लाल चंद के जूते हैं. जब चमकीला पर हमला हुआ और उनकी जान चली गई तो सिर्फ लाल चंद ही बचकर भाग निकले थे. उन जूतों के माध्यम से यह दिखाने की कोशिश की गई है. इसके अलावा लाल चंद के दांत नहीं थे वो नकली दांत लगाते थे, इस वजह से प्रतीक स्वरूप जूतों पर दांत लगाए गए हैं. वो जूते लाल चंद को दर्शाते हैं.
फिल्म बनाने का अनुभव कैसा रहा?
इस फिल्म की रिसर्च बहुत आसान नहीं थी. 90 के दशक के पंजाब के बारे में जानकारी जुटाना काफी मुश्किल रहा. इस दौरान उन लोगों से मिलना, जो पुलिस प्रताड़ना के शिकार हुए, उन माताओं से मिलना जिन्हें आज भी अपने बेटों के वापस आने का इंतज़ार है, क्योंकि उन्हें अपने बेटों की लाशें तक देखने का मौका नहीं मिला.
ये काफी परेशान कर देने वाला अनुभव था. पंजाब में जब अलगाववादी आंदोलन चल रहा था तब मैं पैदा भी नहीं हुआ था. यह काफी कठिन था और भावनात्मक रूप से मुश्किल. हां, लेकिन मेहसमपुर की रिसर्च के दौरान काफी कुछ सीखने को मिला.
ऐसा लगता है जैसे बंटवारे के बाद से ही पंजाब को तोड़ने की साज़िश चल रही है. खालिस्तान आंदोलन के बाद आज युवाओं में नशे की समस्या जारी है.
इस फिल्म की रिसर्च के लिए मुझे क़रीब छह से सात महीने का वक़्त लगा. मैंने पंजाब में खालिस्तान आंदोलन के बारे में पढ़ा और संगीत के इतिहास की मालूमात की थी. रिसर्च के लिए तीन महीने तरनतारन के एक गुरुद्वारे में भी रहा. तरनतारन उस समय खालिस्तान आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र हुआ करता था.
कहा जाता है कि चमकीला को उनके गानों की वजह से जान से मारने की धमकियां मिला करती थीं?
मुख्य रूप से इन धमकियों की कोई एक वजह नहीं थी. वो द्विअर्थी गाने गाते थे और उस दौर में ऐसा करना काफी मुश्किल भरा होता था. अपने गानों में वे उन घटनाओं को ज़िक्र करते थे जो उस वक़्त में पंजाब में हो रहे थे. या कहें तो वे अपने गानों में उन समस्यों को बताते थे जिनसे पंजाब उस वक़्त जूझ रहा था.
जैसे- मर्दानगी, शराब पीने की लत, विवाहेत्तर संबंध और द्विअर्थी बोल उनके गीतों का हिस्सा थे. उस दौर के लिहाज़ से ये काफी जोख़िमभरे होते थे. यह जोख़िम इसलिए था क्योंकि खालिस्तानी आंदोलन चलाने वाले पंजाब को लेकर पवित्रता का विचार रखते थे. उन्हें लगता था कि ये गुरुओं की भूमि है इसलिए यहां हर क्षेत्र में पवित्रता ज़रूरी है.
ये भी एक कारण था कि चमकीला को धमकियां मिला करती थीं. दूसरी वजह चमकीला की अन्य गायकों से राइवलरी (प्रतिद्वंद्विता) थी. उस दौर में चमकीला और उनके गाने इतने लोकप्रिय थे कि लोग किसी दूसरे गायक को सुनना पसंद ही नहीं करते थे.
चमकीला इतने लोकप्रिय होते जा रहे थे कि लोग उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा सुनना चाहते थे. लोगों ने दूसरे पंजाबी लोकगीतों को सुनना बंद कर दिया था. ऐसा भी कहा जाता है कि उस दौर में चमकीला की वजह से बेरोज़गार गायक और संगीतकारों ने भाड़े के हत्यारों को उनकी हत्या की सुपारी दे दी.
मतलब बहुत से कारण थे जिनकी वजह से उन्हें धमकियां मिला करती थीं और जिनकी वजह से उनकी जान गई, हालांकि आज 30 साल बाद भी कोई एक कारण स्पष्ट नहीं हो सका.
चमकीला की हत्या के बाद क्या हुआ? इस हत्याकांड को लेकर पुलिस ने क्या किया?
इस सिलसिले में मैं पुलिस स्टेशन भी गया था, लेकिन वहां पता चला कि 1988 में जब चमकीला की हत्या हुई उसके बाद से कभी कोई रिपोर्ट ही नहीं लिखी गई.
08 मार्च, 1988 को दिनदहाड़े हुए इस हत्याकांड में चार लोग मारे गए थे. अमर सिंह चमकीला, उनकी दूसरी पत्नी और सिंगिंग पार्टनर अमरजोत, हारमोनियम बजाने वाले और मटका बजाने वाले.
चमकीला की टीम में ढोलक बजाने वाले लालचंद को भी गोली लगी थी, लेकिन वो बच निकले. उस दौर में खेतों में अखाड़े लगते थे. जालंधर ज़िले के मेहसमपुर में अखाड़ा लगा हुआ था.
उस दिन अपनी टीम के साथ एक गाड़ी से चमकीला मेहसमपुर पहुंचे थे और एनाउंसर उन्हें स्टेज पर आने के लिए आवाज़ दे रहा था. स्टेज की ओर बढ़ते समय उन पर हमला हुआ था. तीन हथियारबंद लोगों ने उनकी टीम पर ताबड़तोड़ गोली चलानी शुरू कर दी थी.
चमकीला की हत्या के बाद उनके परिवारवालों ने भी केस दर्ज नहीं कराया?
इस बारे में मैं ठीक से कुछ कह नहीं सकता. मैंने उनके परिवारवालों से मिलने की कोशिश की थी, लेकिन ऐसा हो नहीं सका. उनसे मेरी मुलाकात नहीं हो पाई. हालांकि मुझे ऐसा लगता है कि इस मामले में बहुत बड़े-बड़े लोग शामिल थे. ये एक वजह हो सकती है कि लोग सामने नहीं आए और किसी ने केस दर्ज नहीं कराया.
इसके अलावा उसी समय खालिस्तान आंदोलन से जुड़े लोगों के ख़िलाफ़ बहुत बड़े पैमाने पर केपीएस गिल के नेतृत्व में पुलिस ने अभियान चलाया हुआ था. मुझे लगता है कि इस वजह से भी चमकीला का मामला कहीं दब सा गया.
ऐसा कहा जाता है कि आप चमकीला की हत्या में शामिल एक संदिग्ध से मिले थे.
मेरी एक आदमी से मुलाकात हुई थी, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह चमकीला की हत्या में शामिल था, बाकी दो लोग तो मर गए हैं. मुझे किसी तरह से उसके बारे में पता था तो मैं जैसे-तैसे उसके गांव पहुंचा था.
उस आदमी से मेरी मुलाकात भी हुई लेकिन मैं चमकीला के बारे में उससे बात नहीं कर सका. ये बहुत ही अजीबोग़रीब स्थिति थी. मुझे उसके बारे में किसी तरह से पता चला था तो मैं उसके पास जाकर ये नहीं कह सकता था कि आपने चमकीला को मारा है या क्यों मारा था.
उस आदमी से केवल मिला था और बहुत ही अप्रिय स्थिति थी. हम तुरंत वहां से निकल आए. वहां स्थितियां बहुत ख़तरनाक नज़र आ रही थीं.
मेरे साथ मेरा एक दोस्त भी था. उसकी कलाई में फ्रैक्चर था और हमने बताया था कि हम खालिस्तान आंदोलन के समय की जानकारी लेने आए हैं. हमारी और हमारे पूरे सामान को चेक किया गया कि कहीं कोई रिकॉर्डर तो नहीं रखा.
उन लोगों ने मेरे दोस्त की कलाई में लगा प्लास्टर भी काटकर चेक किया कि कहीं कोई रिकॉर्डर तो नहीं रखा गया. ये शायद हमें भयभीत करने के लिए था. क्योंकि उसके बाद हमारे दिमाग में यही ख़्याल आया कि इससे पहले स्थितियां और ख़राब हों, यहां से निकल लेते हैं.
आपके हिसाब से क्या चमकीला की हत्या के पीछे खालिस्तान आंदोलन से जुड़े लोगों का हाथ था?
हां, वो आदमी खालिस्तान आंदोलन से जुड़े थे, लेकिन ऐसा नहीं कहा जा सकता. मेरे ख़्याल से चमकीला की हत्या की कोई एक वजह नहीं है.
उस दौर में चमकीला गोल्डन टेंपल भी गए थे और उन लोगों से माफ़ी मांगी थी, उन्हें पैसे भी दिए थे. उन लोगों ने उन्हें माफ़ भी कर दिया था. ये अभी भी रहस्य है कि चमकीला की हत्या के पीछे की वजह क्या थी. मेरा मानना है कि किसी एक घटना के पीछे बहुत से कारण होते हैं.
अपनी अब तक की यात्रा के बारे में बताइए? फिल्म बनाने का सिलसिला कैसे शुरू हुआ?
मैं अमृतसर में पला-बढ़ा हूं लेकिन पढ़ाई-लिखाई मुंबई में हुई है. यहां मैंने एंथ्रोपोलॉजी (मानव विज्ञान) की पढ़ाई की है. फिर मैंने एमए किया और मैंने सोचा था कि विज़ुअल एंथ्रोपोलॉजी की पढ़ाई करूंगा, लेकिन ये सब होता चला गया.
मैं ड्रॉइंग बनाता था, कहानियां और कविताएं भी लिखता था. मुझे लगता है कि ये सारे माध्यम जिस एक जगह मिलते हैं वो सिनेमा है. मैंने आर्ट डायरेक्शन किया है और कई सारी शॉर्ट फिल्में बनाई हैं, उन्हें लेकर कई फिल्म समारोहों में शामिल भी हुआ हूं. अब मेहसमपुर में मेरी पहली फीचर फिल्म है.
आप ‘लाल परी’ नाम की भी एक फिल्म बना रहे थे, उसका क्या हुआ?
चमकीला के दौर में ‘लाल परी’ नाम की एक देसी शराब बिका करती थी. पंजाब में यह बहुत ही मशहूर थी. खालिस्तान आंदोलन से जुड़े लोग भी इसको पीते थे और चमकीला ख़ुद भी इसे पिया करते थे. यहां तक कि पुलिसकर्मी भी इसी शराब को पसंद करते थे.
तो लाल परी इन लोगों में एक कॉमन फैक्टर थी, इन लोगों के बीच की कड़ी थी तो मैंने ये नाम दे दिया. लाल परी नाम से चमकीला का एक गाना भी है.
लाल परी एक अलग फिल्म है उसकी कहानी और स्क्रिप्ट अलग है. लाल परी फिक्शन आधारित एक पीरियड फिल्म है और पीरियड फिल्म बनाने के लिए ज़्यादा पैसे की ज़रूरत पड़ती है.
उस वक़्त एक प्रोड्यूसर मिले थे जो शॉर्ट फिल्म बनाना चाहते थे और मैं चमकीला की कहानी को लेकर काफी मंत्रमुग्ध था, इस वजह से उसी कहानी के इर्द-गिर्द कोई फिल्म बनाना चाहता था उन्होंने हामी भरी तो मैं लाल परी को छोड़ मेहसमपुर बनाने लगा.