ग्राउंड रिपोर्ट: भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही मध्य प्रदेश को हिंदुत्व की प्रयोगशाला में तब्दील कर दिया है. विस्थापन, आदिवासी अधिकार, कुपोषण, भुखमरी, खेती-किसानी जैसे मुद्दों पर कोई भी बात नहीं कर रहा है.
मध्य प्रदेश में धर्म की सियासत तेज़ हो गई है, जिसमें विकास के मुद्दे कहीं ग़ुम से हो गए हैं. एक तरफ प्रदेश के दोनों मुख्य राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस हिंदुत्व के एजेंडे पर अपनी राजनीतिक गोटियां फिट करने की कोशिश में लगे हैं तो दूसरी ओर चुनावी मौसम देखते हुए साधु-संत भी चुनावी माहौल में अपना नफा-नुकसान तलाश रहे हैं.
22 अक्टूबर को प्रदेश की राजधानी भोपाल में एक संत सभा का आयोजन किया गया था जिसमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए थे. देश-प्रदेश के कई नामी संतों के साथ उन्होंने मंच साझा किया.
हालांकि, इस आयोजन को संत समाज को साधने की शिवराज, संघ और भाजपा की एक कोशिश क़रार दिया गया. जिसका एक उद्देश्य यह भी था कि राज्य मंत्री का दर्जा पाए कम्प्यूटर बाबा द्वारा अपना पद छोड़ने और शिवराज सरकार पर हमलावर रुख़ अख़्तियार करने से बने संत विरोधी माहौल में संदेश दिया जा सके कि संत समाज शिवराज सरकार के साथ है.
लेकिन, मंच पर एक स्थिति ऐसी भी बनी जब एक संत आयोजन स्थल की व्यवस्थाओं से नाराज़ नज़र आए और मंच से ही शिवराज को सीख देना शुरू कर दिया कि वे पांच साल बाद संतों को याद करते हैं, वैसे पहचानते भी नहीं.
तब आयोजकों को स्पष्ट करना पड़ा कि आयोजनकर्ता शिवराज सिंह या भाजपा नहीं है, यह कार्यक्रम राजाभोज एकता कल्याण समिति के तत्वावधान में हो रहा है और शिवराज तो अतिथि हैं. यह राजनीतिक आयोजन नहीं है, बस संत समाज ने शिवराज को आशीर्वाद देने के लिए आमंत्रित किया है.
लेकिन आयोजन के मायने तब स्पष्ट समझ आते हैं जब मंच पर मौजूद हर संत मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, उनके कार्यकाल और उनकी योजनाओं के कसीदे पढ़ता नज़र आता है.
कोई शिवराज को देश में सबसे अधिक हिंदुत्व को बढ़ावा देने वाली राज्य सरकार का मुखिया होने का श्रेय देता है और उनकी हालिया हिंदुत्ववादी नीतियों जैसे- नर्मदा सेवा यात्रा, शिक्षा में भगवद्गीता का समावेश, एकात्म यात्रा, गो-मंत्रालय बनाने की घोषणा आदि प्रयासों की सराहना करता है तो कोई विकसित मध्य प्रदेश की बात करता है.
आयोजन का मक़सद तब और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है जब मंच से कम्प्यूटर बाबा पर संतों द्वारा हमले किए जाते हैं. हिंदू आचार्य महासभा के अध्यक्ष परमानंद गिरि महाराज कम्प्यूटर बाबा को व्यक्तिगत हित साधने वाला क़रार देते हुए कहते हैं, ‘कम्प्यूटर बीते दौर की बात थी अब लैपटॉप का ज़माना है. कम्प्यूटर बाबा का संत समाज में कोई बड़ा क़द नहीं है.’ साथ ही वे कहते हैं, ‘एक कम्प्यूटर नहीं हुआ तो क्या, 99 तो यहीं है.’ इस दौरान मुख्यमंत्री भी खुलकर हंसते पाए जाते हैं.
मुख्यमंत्री द्वारा अपने व्यस्त चुनावी कार्यक्रम में से क़रीब तीन घंटे से अधिक का समय ‘संत सभा’ को देना चुनावों में हिंदुत्व के कार्ड के महत्व को दर्शाता है.
बीते साल-डेढ़ साल से ऐसा ही देखा जा रहा है कि भाजपा ही नहीं कांग्रेस भी प्रदेश में हिंदुत्व के सहारे अपनी नैया पार लगाने का सपना देख रही है. जिसकी बानगी इस दौरान दोनों ही दलों की कार्यप्रणाली, नीतियों और घोषणाओं में देखी जा सकती है.
अगर क्रमवार आगे बढ़ें तो प्रदेश में हिंदुत्व की चुनावी बिसात दिसंबर 2016 में शिवराज की नर्मदा सेवा यात्रा से बिछनी शुरू हुई थी.
हालांकि, शिवराज इससे पहले भी अनेक धार्मिक पहल करते रहे जिनमें मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना और उनके द्वारा हर महत्वपूर्ण मौके पर उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर पर पूजा अर्चना करना शामिल था. लेकिन, वास्तव में नर्मदा सेवा यात्रा के बाद ही कांग्रेस और भाजपा के बीच हिंदुत्व की होड़ की शुरुआत हुई थी.
शिवराज की नर्मदा सेवा यात्रा का समापन 15 मई 2017 को हुआ, जिसके जवाब में 30 सितंबर को प्रदेश के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी नर्मदा परिक्रमा पदयात्रा पर निकल गए जो 192 दिन तक चली और 9 अप्रैल 2018 को समाप्त हुई.
दिग्विजय ने अपनी यात्रा को धार्मिक क़रार दिया और इसे राजनीति से इतर बताया. लेकिन, कांग्रेस द्वारा इस यात्रा का ख़ूब राजनीतिक लाभ लिया गया.
कांग्रेस समर्थक विभिन्न मंचों से दिग्विजय की नर्मदा यात्रा की तुलना शिवराज द्वारा की गई नर्मदा यात्रा से करते नज़र आए और कहते नज़र आए कि शिवराज ने अपनी यात्रा पर सरकारी ख़ज़ाना खाली किया, हज़ारों रुपये एक-एक आरती में लुटाए जबकि दिग्विजय की यात्रा शालीन तरीके से संपन्न हुई. इस दौरान दिग्विजय को सच्चा सनातनी बताने वालों की कमी नहीं थी.
हालांकि, दिग्विजय अंत समय तक अपनी यात्रा को धार्मिक बताते रहे लेकिन उनकी फेसबुक और ट्विटर टाइमलाइन उनकी यात्रा में पार्टी की राजनीतिक शख़्सियतों और राजनीति में हस्तक्षेप रखने वाले प्रदेश के साधु-संतों के जमावड़े की तस्वीरों से भरी पड़ी थी.
साथ ही उनकी और उनकी पत्नी अमृता राय की टाइमलाइन यात्रा के दौरान नर्मदा से लगे क्षेत्रों में मिले लोगों की समस्याओं की कहानियों से भी पटी पड़ी रहती थी. जो इशारा करता था कि 2003 में 10 सालों के लिए प्रदेश की चुनावी राजनीति से संन्यास की घोषणा करने वाले दिग्विजय सिंह अब चुनावी सक्रियता दिखाने के मूड में हैं, वो भी हिंदुत्व के रास्ते.
यात्रा की समाप्ति के कुछ माह बाद दिग्विजय ने अपनी नर्मदा यात्रा को चुनावी सक्रियता से जुड़ा होना स्वीकारा भी.
बहरहाल, जब शिवराज के सामने अपनी हिंदुत्व की छवि खड़ी करने के लिए दिग्विजय यात्रा पर निकले और उन्हें साधु-संतों का समर्थन मिला तो शिवराज जवाब में दिसंबर 2017 में ‘एकात्म यात्रा’ पर निकल पड़े.
आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत के सिद्धांत के प्रचार के नाम पर शिवराज ने एक माह तक प्रदेश भर में घूमकर सभाएं कीं. प्रदेशभर के संतों को अपने मंच पर जुटाया और उन्हें विभिन्न ज़िम्मेदारियां दीं. मंच से शिवराज को महान सनातनी बताने वाले नारे लगे.
जिस प्रकार वर्तमान में कम्प्यूटर बाबा के शिवराज की ख़िलाफ़त में खड़े होने पर ‘संत सभा’ के माध्यम से संतों को अपने पक्ष में दिखाने की कवायद हुई है, उसी प्रकार तब दिग्विजय के लिए समर्थन दिखाने वाले संतों को एकात्म यात्रा में संतों की भीड़ जुटाकर शिवराज ने अप्रत्यक्ष जवाब दिया था.
इसी तरह शिवराज ने अप्रैल माह में अपने ख़िलाफ़ मुखर होते संतों को साधने के लिए पांच संतों को राज्यमंत्री का दर्जा तक दे दिया था. नर्मदानंद महाराज, हरिहरानंद महाराज, कम्प्यूटर बाबा, भय्यूजी महाराज और पंडित योगेंद्र को पहले तो नर्मदा किनारे के क्षेत्रों में वृक्षारोपण, जल संरक्षण और स्वच्छता के विषयों पर जन जागरूकता अभियान चलाने के लिए गठित विशेष समिति में शामिल किया गया और बाद में राज्यमंत्री बना दिया गया.
गौरतलब है कि कंप्यूटर बाबा ने तब योगेंद्र महंत के साथ मिलकर नर्मदा बचाओ के काम में भ्रष्टाचार को सामने लाने के लिए नर्मदा घोटाला रथ यात्रा निकालने का ऐलान किया था और नर्मदा किनारे सरकार द्वारा लगाए गए छह करोड़ पौधों के दावे को खुले तौर पर चुनौती दी थी, जिसकी प्रतिक्रिया में उन्हें राज्यमंत्री बना दिया गया.
हालांकि, कांग्रेस ने तब इसकी आलोचना की थी और इसे धर्म और धर्म गुरुओं के नाम पर राजनीति क़रार दिया था लेकिन आज वही कांग्रेस भी धर्म की राजनीति में ताल ठोंक रही है.
चुनाव नज़दीक आते-आते भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों ने चुनावी मैदान को हिंदुत्व के अखाड़े का रूप दे दिया है.
दोनों ही दलों के नेता मंदिर-मंदिर मत्था टेक रहे हैं, हिंदू मतदाता को रिझाने के लिए नई-नई घोषणाएं कर रहे हैं. दोनों ही दलों की कोई राजनीतिक यात्रा या किसी बड़े केंद्रीय नेता का प्रदेश आगमन हो, उसकी शुरुआत स्थान विशेष के मंदिर पर पूजा-अर्चना के बाद ही होती है.
शिवराज की जन आशीर्वाद यात्रा उज्जैन के महाकालेश्वर से, दिग्विजय सिंह की समन्वय यात्रा ओरछा के राम राजा मंदिर से, ज्योतिरादित्य सिंधिया के चुनाव अभियान की शुरुआत भी महाकालेश्वर मंदिर पर पूजा अर्चना और अभिषेक करने के बाद हुई थी. जब कमलनाथ की प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर नियुक्ति हुई तो सबसे पहले वे दतिया के पीतांबरा पीठ मंदिर दर्शन को पहुंचे.
राहुल गांधी की कैलाश मानसरोवर यात्रा को भी भाजपा ने खूब भुनाया. जगह-जगह राहुल गांधी को शिवभक्त बताया. तो वहीं, दिग्विजय ने भी कैलाश मानसरोवर जाने की इच्छा जता दी.
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने पिछले दिनों सरकार बनने पर 23000 पंचायतों में गोशाला निर्माण की घोषणा की तो शिवराज ने जबाव में ‘गो-मंत्रालय’ बनाने का तीर दाग दिया.
कांग्रेस के पास प्रदेश को आगे ले जाने के लिए क्या नीति है उसका खुलासा तो उसने किया नहीं लेकिन चित्रकूट में ‘राम गमन पथ मार्ग’ बनाने की घोषणा ज़रूर कर दी है.
कांग्रेस प्रवक्ता रवि सक्सेना का कहना है कि प्रदेश के लिए जारी कांग्रेस के वचन पत्र (घोषणा पत्र) में भी वे गोशाला और रामगमन पथ मार्ग निर्माण को मुख्य बिंदु के तौर पर पेश करेंगे. साथ ही कांग्रेस ‘राम गमन पथ मार्ग’ यात्रा भी निकाल रही है जहां धर्म की आड़ में प्रदेश की 35 उन विधानसभा सीटों पर जनसंपर्क करना लक्ष्य रखा है जहां से भगवान राम अपने वनवास के दौरान गुजरे थे.
पूरे चुनावी दौर में दोनों ही पार्टियां संतों की शरण में ख़ुद को दिखा रही हैं. एक तरफ़ भाजपा उन्हें राज्यमंत्री बना रही है तो दूसरी ओर कांग्रेस से शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की नज़दीकियां भी छिपी नहीं हैं.
वे लगातार भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ बयान तो दे ही रहे हैं, साथ ही दिग्विजय सिंह के गुरु माने जाने वाले स्वरूपानंद के बारे में कहा जाता है कि वे पार्टी में इतना क़द रखते हैं कि उनके इशारों पर संगठन में नियुक्तियां होती हैं.
प्रदेश में पिछले तीन चुनाव देखें तो वे बिजली, पानी और सड़क जैसे विकास के मुद्दों पर लड़े गए थे तो इस बार धर्म की सियासत विकास पर भारी है.
प्रदेश में आदिवासी अधिकारों के लिए आवाज उठा रहे जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) के संरक्षक डॉ. हीरालाल अलावा कहते हैं, ‘भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों मूल मुद्दों पर बात कर ही नहीं रहे हैं. उदाहरण के लिए प्रदेश के पश्चिम निमाड़ इलाके, आदिवासी ज़िले, आदिवासी ब्लॉक, ख़ासकर कि झाबुआ, अलीराजपुर, धार, बड़वानी, खरगौन, खंडवा ज़िलों में सबसे ज़्यादा कुपोषण है. लोग भुखमरी और कुपोषण से मर रहे हैं. बेरोज़गारी के चलते सबसे ज़्यादा पलायन हो रहा है इन इलाकों से. कई गांवों में बिजली नहीं है, स्वास्थ्य की बदतर सेवाएं हैं, स्कूल नहीं हैं. जो स्कूल हैं, वे बंद किए जा रहे हैं. कॉलेज हैं, पर वहां कोर्सेस नहीं हैं, इन मुद्दों पर दोनों दल कोई बात नहीं कर रहे हैं.’
साथ ही वे कहते हैं, ‘आदिवासी इलाकों में पेसा कानून, वनाधिकार, संविधान की पांचवीं अनुसूची लागू होने जैसे मुद्दों पर भी दोनों दलों को अपनी बात रखना चाहिए. प्रदेश में किसान परेशान है, आत्महत्या कर रहा है. मज़दूर के पास पेट भरने लायक काम नहीं है. राज्य में 78000 अतिथि शिक्षकों को अचानक हटा दिया गया, संविदा शिक्षाकर्मियों पर कोई बात नहीं हो रही.’
अलावा आगे कहते हैं, ‘युवाओं को रोजग़ार देने के लिए क्या करना चाहिए, कोई नीति पेश नहीं हो रही. सरकारी नौकरी में प्रमोशन में आरक्षण की बात पर कोई नहीं कह रहा कि क्या नई सरकार बनने के बाद नई नियमावली बनाकर एससी/एसटी कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण का फायदा देंगे? बस विकास के मुद्दों, ग़रीब जनता, किसान, दलित, आदिवासी के मूल मुद्दों को भटकाने के लिए धर्म की राजनीति कर रहे हैं और कुछ नहीं.’
वहीं, सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत दुबे को भी लगता है कि चुनावी गहमागहमी में बच्चों के मुद्दों पर कोई बात नहीं हो रही है, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, कुपोषण आदि की चुनावी माहौल में कोई चर्चा नहीं है.
तो, वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई मानते हैं कि दोनों ही दलों के पास कोई स्वस्थ एजेंडा नहीं है. भाजपा को अपनी असफलता से जनता का ध्यान भटकाना है इसलिए आस्था का सहारा ले रही है तो कांग्रेस ख़ुद की हिंदू विरोधी छवि बदलने के प्रयास में है.
वे कहते हैं, ‘भाजपा को उम्मीद है कि आस्था के आवेश में लोग उसे एक बार फिर मौका दें. कांग्रेस की समस्या ये है कि वह अब कुछ भी छोड़ना नहीं चाहती है. उसे लगता है कि पहली बार ऐसा मौका है कि वो अपने बलबूते पर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार बना सकती है और भाजपा के एक मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में ख़ुद को पेश कर सकती है. उसके पास आखिरी मौका है दिखाने का कि भाजपा का कांग्रेस ही एकमात्र विकल्प है जिससे कि लोकसभा चुनावों के लिए संभावित महागठबंधन की स्थिति में वह सभी क्षेत्रीय दलों में स्वीकार्य हो सके.’
रशीद कहते हैं, ‘ये तमाम चीज़ें कांग्रेस रक्षात्मकता में अपना रही है ताकि भाजपा उसे हिंदू विरोधी पार्टी साबित न कर सके. बाकी जनता के मुद्दों पर उसे लगता है कि भाजपा की असफलता या एंटी इनकम्बेंसी के चलते जनता उनकी सरकार बनवा ही देगी, उसे इन मुद्दों पर बोलने की ज़रूरत नहीं है.’
राजनीतिक विश्लेषक लोकेंद सिंह भी कुछ ऐसा ही मानते हैं. उनका कहना है, ‘कांग्रेस की छवि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस कथन कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ मुसलमानों का है और 2014 लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस की हार की समीक्षा पर एके एंटनी की अध्यक्षता वाली रिपोर्ट के बाद हिंदू विरोधी की बन गई थी. बस कांग्रेस उसी छवि को बदलने में जुटी है.’
वे आगे कहते हैं, ‘हालांकि ऐसा भी नहीं है कि विकास के मुद्दों पर बिल्कुल बात नहीं हो रही है. कांग्रेस ने प्रयास किए थे, जैसे कि दिग्विजय सिंह ने ट्वीट के माध्यम से एक फोटो शेयर करके बताया कि भोपाल का ब्रिज निर्माण के दौरान ही ढह रहा है तो कमलनाथ ने एक सड़क का फोटो साझा किया कि देखो भोपाल की सड़कें कितनी ख़राब हैं. हालांकि, वो बात अलग है कि दिग्विजय के ट्वीट में फोटो पाकिस्तान के किसी ब्रिज का लगा था तो कमलनाथ के ट्वीट में बांग्लादेश की सड़कों का.’
बहरहाल, राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर का मानना है कि विकास की बातें भाजपा तो कर रही है. अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाना विकास की ही तो बात है.
वे कहते हैं, ‘इसलिए भाजपा तो विकास के मुद्दे पर कायम है लेकिन कांग्रेस को करना चाहिए था कि जो दावे अपनी उपलब्धियों के भाजपा कर रही है, उनका भंडाफोड़ करते. ऐसा करने के बजाय वे राम मंदिर पर चले गए. लगता है मानो कांग्रेस भाजपा के जाल में फंस गई हो.’
साथ ही वे कहते हैं, ‘भाजपा तो अपने एजेंडे पर क़ायम है. उनके लिए तो हिंदुत्व की बात आम है. लेकिन कांग्रेस ने जो शुरू किया है उससे उसकी भद्द पिट रही है. प्रतीत होता है कि उसे समझ नहीं आ रहा है कि क्या करे तो भाजपा की नकल करने पर उतारू है.’
गिरिजा शंकर कहते हैं, ‘वैसे कांग्रेस की प्राथमिक छवि धर्मनिरपेक्ष है. गांधी जी ने ‘राम राज्य’ का नारा देकर कभी मंदिर के राम की बात नहीं की थी, उनका ‘राम राज्य’ का मतलब ‘ग्राम स्वराज्य’ था. इसलिए इस तर्क से कांग्रेस को कोई लाभ नहीं होता. जब आप जनता के मुद्दों से ख़ुद की पहचान बनाते हैं तब आपकी स्वीकार्यता बनती है, अपने एजेंडे को पब्लिक पर थोपने से नहीं. उसे बात करनी थी तो 15 साल के भाजपा के कथित कुशासन पर करनी थी.’
इस बीच, कहावत है कि हर चीज़ की अति नुकसानदेह होती है तो भाजपा को कम्प्यूटर बाबा की नाराज़गी उसी नुकसान की ओर इशारा करती है. इसी माह की शुरुआत में उन्होंने राज्यमंत्री के पद को त्याग दिया और शिवराज सरकार पर आरोप लगाया कि उसने नर्मदा संरक्षण और अवैध खनन के मुद्दे पर वादाख़िलाफ़ी की है इसलिए वे यह क़दम उठा रहे हैं. इसके बाद उन्होंने सरकार के ख़िलाफ़ संत समागम की घोषणा की जो कि 23 अक्टूबर से इंदौर से शुरू होकर प्रदेश भर में नर्मदा के मुद्दे पर शिवराज सरकार के ख़िलाफ़ प्रचार करेगा.
गौरतलब है कि बीते दिनों कम्प्यूटर बाबा ने विधानसभा चुनाव लड़ने की ओर इशारा किया था. इसलिए ऐसा माना जाता है कि भाजपा की ओर से उनके नाम पर विचार न किए जाने से वे ख़फ़ा हो गए और राज्यमंत्री का पद छोड़कर शिवराज के ख़िलाफ़ ताल ठोंकने लगे.
वहीं, हिंदुत्व के फॉर्मूले पर चल पड़ी कांग्रेस को भी तब अकल आई जब चारों तरफ़ से उसकी आलोचना हुई, उसकी धर्मनिरपेक्ष छवि पर सवाल खड़े हुए.
नतीजतन, ग्वालियर-चंबल के अपने हालिया दौरे में राहुल गांधी का एक नया रूप देखने मिला. पहले केवल मंदिरों पर दस्तक देने वाले राहुल ग्वालियर पहुंचे तो रोड शो की शुरुआत उन्होंने मंदिर से की तो समापन मस्जिद पर और ग्वालियर से रुख़सत होते वक़्त गुरुद्वारे पर भी मत्था टेक आए और दिखाने की कोशिश की कि सिर्फ हिंदुत्व नहीं, कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता पर चल रही है.
हालांकि, इससे पहले राहुल प्रदेश में जहां भी दौरे पर जा रहे थे तो केवल उस स्थान विशेष के प्रसिद्ध किसी मंदिर से ही अपना प्रचार शुरू करते थे. इस दौरान शिव भक्त राहुल, राम भक्त राहुल, नर्मदा भक्त राहुल के नारों से कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने ख़ूब प्रचार किया, लेकिन ग्वालियर में कांग्रेस ने प्रयास किया कि वह अत्यधिक हिंदुत्व की ओर अपना झुकाव प्रदर्शित न करे.
इस बीच दोनों ही दलों में हिंदुत्व को लेकर लगातार आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है. हर मंच से भाजपा के छोटे-बड़े नेता कहते नज़र आ रहे हैं कि कांग्रेस वह पार्टी है जो राम के अस्तित्व को सुप्रीम कोर्ट में नकार चुकी है, वह आज राम गमन पथ मार्ग बनाने की बात कर रही है, राहुल गांधी को रामभक्त बता रही है.
प्रदेश भाजपा प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल कहते हैं, ‘कांग्रेस राजनीतिक स्वार्थ साधने में राम का सहारा ले रही है. इसे न राम से कोई वास्ता है और न गाय से. दिग्विजय की सरकार में तो उन्होंने गोवंश से गोचर की भूमि तक छीन ली थी.’
वहीं, कांग्रेसी नेता भी हर मंच में कहते नज़र आते हैं कि अगर कांग्रेस हिंदुत्व की बात करती है तो भाजपा को क्यों चिढ़ मचती है? क्या राम पर या धर्म पर केवल उसका अधिकार है?
कांग्रेस प्रवक्ता रवि सक्सेना कहते हैं, ‘हम तो राम को गांधी के समय से मानते हैं. सबसे पहले राम की बात कांग्रेस के महात्मा गांधी ने ही की थी. हमने ही राम मंदिर का ताला खुलवाया था. भाजपा की बदौलत तो आज राम टाट में पड़े हैं.’
बहरहाल, भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों ने भविष्य के चुनाव प्रचार की रूपरेखा तैयार कर ली है जिसमें तय है कि फिर चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह या कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सभी प्रदेश के जिस भी क्षेत्र में प्रचार के लिए क़दम रखेंगे, वहां के प्रसिद्ध स्थानीय मंदिर के दर्शन के बाद ही प्रचार शुरू करेंगे.
वहीं, राजनीति के जानकारों का मानना है कि आगे भी बहुसंख्यक बहुल आबादी वाले मध्य प्रदेश में चुनावों तक हिंदू मतदाता को प्रभावित करने के लिए दोनों दल और भी ऐसे क़दम उठा सकते हैं.
लेकिन, इस सबके बीच अगर बात नहीं हो रही है तो वह है विकास के मुद्दों की. भाजपा केवल अपनी सरकार की उपलब्धियां गिना रही है लेकिन भविष्य के लिए उसकी क्या योजना है, यह पेश नहीं कर पा रही है तो दूसरी ओर कांग्रेस का भी यही हाल है, क़र्ज़ माफ़ी के अलावा अब तक वह किसी भी विकास या जनहित के मुद्दे पर कोई स्पष्ट नीति प्रस्तुत नहीं कर पाई है.
मध्य प्रदेश में रेत खनन, व्यापमं घोटाला, कुपोषण, महिला सुरक्षा, किसानों की बदहाली अहम मुद्दे हैं. वहीं, विभिन्न क्षेत्रों में बांध परियोजनाओं के चलते विस्थापित हुए लोगों के पुनर्वास का भी मुद्दा है. रोज़गार तो समस्या है ही, साथ ही लचर स्वास्थ्य सेवाएं भी अहम मुद्दा हैं.
आदिवासियों का पलायन हो या फिर औद्योगिक विकास की बात भाजपा और कांग्रेस के मंचों से कोई भी नेता इन पर बात नहीं कर रहा है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)