विशेष रिपोर्ट: मध्य प्रदेश में कांग्रेस के आख़िरी मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह चुनाव प्रचार से पूरी तरह से ग़ायब हैं. क्या उन्हें हाशिये पर धकेला जा चुका है या फिर उन्हें पर्दे के पीछे रखना चुनावी रणनीति का हिस्सा है?
बात साल 1993 की है. मध्य प्रदेश का तब विभाजन नहीं हुआ था. विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो कांग्रेस ने भाजपा से सत्ता छीन ली थी. 320 सीटों वाले तत्कालीन मध्य प्रदेश में कांग्रेस को 174 सीटों पर सफलता मिली थी.
यह वह दौर था जब प्रदेश कांग्रेस में दिग्गजों की भरमार थी, ऐसे दिग्गज जिनका मध्य प्रदेश में ही नहीं बल्कि केंद्रीय राजनीति में भी दख़ल होने के साथ पार्टी के आला नेतृत्व से उनकी नज़दीकियां थीं.
पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, श्यामाचरण शुक्ल, माधवराव सिंधिया, सुभाष यादव, विद्याचरण शुक्ल, मोतीलाल वोरा जैसे बड़े नाम तब प्रदेश कांग्रेस में मौजूद थे.
लेकिन जब बहुमत प्राप्त कांग्रेस के सामने अपने विधायक दल का नेता यानी मुख्यमंत्री के चयन का सवाल आया तो उपरोक्त सभी दिग्गजों में से अधिकांश की महत्वाकांक्षाएं वह पद पाने की थीं. लेकिन, तब इन सभी नामों को पीछे छोड़कर जिस चेहरे पर मुख्यमंत्री की मुहर लगी, वह थे- दिग्विजय सिंह. वे तब पार्टी की प्रदेश इकाई के अध्यक्ष थे.
‘राजनीतिनामा- मध्य प्रदेश’ पुस्तक के लेखक वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी बताते हैं, ‘उस समय श्यामाचरण शुक्ल का भी नाम मुख्यमंत्री बनने की दौर में था. वहीं, अर्जुन सिंह सुभाष यादव को मुख्यमंत्री बनाए जाने के पक्ष में थे. लेकिन, दिग्विजय सिंह ने तब सीधा तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के साथ जोड़-तोड़ कर ली थी और कमलनाथ भी दिग्विजय सिंह के साथ आ गए.
वे आगे कहते हैं, ‘वहीं, एक वर्ग था जो माधवराव सिंधिया को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहता था. उस समय विद्याचरण शुक्ल भी प्रदेश के बड़े नेता थे, उनका भी एक अपना गुट था जो श्यामाचरण के साथ तो नहीं था लेकिन दिग्विजय का विरोधी था. पार्टी में ही बहुत से गुट हुआ करते थे, उन सभी चुनौतियों से पार पाकर दिग्विजय मुख्यमंत्री बने थे.’
एक बार दिग्विजय मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे तो 10 सालों तक वहां जमे रहे.
बकौल दीपक तिवारी, ‘1993-98 का उनका पहला कार्यकाल इन सभी बड़े नामों और पार्टी के अंदर ही अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से जूझने में बीता. लेकिन जब 1998 के चुनावों में फिर से कांग्रेस उनके नेतृत्व में जीती तो प्रदेश और पार्टी में उनका कद बढ़ गया. वर्ष 2000 आते-आते प्रदेश विभाजन के बाद शुक्ला बंधु और मोतीलाल वोरा छत्तीसगढ़ निकल गए. माधवराव सिंधिया का निधन हो गया. इस बीच, अर्जुन सिंह ने भी अपना नया राजनीतिक दल बना लिया था. तो कुल मिलाकर दिग्विजय प्रदेश के एकमात्र बड़े चेहरे थे जो कांग्रेस में बचे रह गए.’
इसलिए राजनीतिक उठापटक के वही माहिर खिलाड़ी दिग्विजय सिंह आज जब कैमरे के सामने कहते नज़र आते हैं, ‘मैं चुनावों में इसलिए प्रचार नहीं करता क्योंकि मेरे प्रचार करने से पार्टी के वोट कटते हैं’, तो सवाल उठता है कि क्या एक वक़्त राजनीति के चाणक्य, वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु कहे जाने वाले दिग्विजय अब पार्टी में वास्तव में हाशिये पर धकेले जा चुके हैं?
क्या भाजपा के मार्गदर्शक मंडल के नेताओं की तरह ही वे भी बस नाममात्र के लिए कांग्रेस में रह गए हैं?
अगर ऐसा है तो अपनी चपलता और राजनीतिक समझ से बड़े-बड़े दिग्गजों को पछाड़कर मुख्यमंत्री बनने वाले दिग्विजय आख़िर क्यों अब पार्टी में इन हालातों में पहुंच गए हैं? और ऐसी उनकी क्या विवशता है कि हाशिये पर धकेले जाने के अपमान के बाद भी वे पार्टी की गतिविधियों में बढ़-चढ़कर शामिल होने के लिए उतावले दिखाई देते हैं?
वर्ष 2003 के विधानसभा चुनावों में जब मध्य प्रदेश में दिग्विजय के नेतृत्व में कांग्रेस की हार हुई और वह 230 सीटों वाली विधानसभा में केवल 38 सीटों पर सिमट गई तो दिग्विजय सिंह ने ऐलान किया कि वे अगले एक दशक तक कोई चुनाव नहीं लड़ेंगे और न ही प्रदेश की राजनीति में दख़ल करेंगे.
वे ‘द वायर’ के साथ बातचीत में ख़ुद कहते हैं, ‘2003 में मुझ पर आरोप लगा था कि दिग्विजय सिंह की वजह से कांग्रेस चुनाव में हार गई. इसलिए मैंने कहा कि ठीक है, अब आप लोग जिताइए.’
10 साल की यह प्रतिज्ञा लेने के बाद दिग्विजय कांग्रेस की केंद्रीय संगठन की राजनीति में सक्रिय हो गए. 2008 में वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (एआईसीसी) के महासचिव बनाए गए. इस दौरान उन्होंने उत्तर प्रदेश, असम, बिहार, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में पार्टी की नीतियां बनाईं.
उन्हें मीडिया में राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु के तौर पर भी पेश किया जाने लगा. तब राहुल गांधी की सभाओं में वे अक्सर उनके करीब ही नज़र आते थे.
कांग्रेस ने भी उन पर ख़ूब भरोसा दिखाया और गोवा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश व तेलंगाना जैसे राज्यों का उन्हें प्रभार सौंपा जहां कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए उन्हें स्थानीय नेतृत्व के साथ नीतियां बनानी थीं.
2013 में उनका स्वघोषित 10 साल का वनवास ख़त्म हुआ तो उन्होंने कहा कि पार्टी अगर उन्हें लोकसभा के चुनाव में उतारना चाहेगी तो वे उतरेंगे. हालांकि, उन्हें तब लोकसभा का टिकट नहीं मिला था लेकिन 2014 में पार्टी ने उन्हें राज्यसभा का टिकट ज़रूर दे दिया था.
इस बीच, दिग्विजय सिंह अपने बयानों को लेकर हमेशा सुर्ख़ियों में छाए रहते थे, फिर चाहे वह बाटला हाउस मुठभेड़ पर उनके द्वारा सवाल उठाना रहा हो, अमेरिका द्वारा आतंकी ओसामा बिन लादेन का शव समुद्र में फेंकने पर आपत्ति जताना हो या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर उनका हमलावर रुख़ हो.
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के दौर में एक वक़्त ऐसा भी था जब दिग्विजय सिंह की बयानबाज़ी के संबंध में कहा जाता था कि दिग्विजय कांग्रेस के ऐसे हथियार हैं जिसे पार्टी चारों ओर से घिरने पर चलाती है और उनका एक विवादित बयान हर मुद्दे से देश का ध्यान भटका देता है.
बहरहाल, पार्टी में दिग्विजय के बुरे दौर की शुरुआत तब हुई जब 2017 में गोवा प्रभारी के तौर पर वे गोवा में कांग्रेस की सरकार बनवाने में ऐसे वक़्त में असफल हुए जब चुनावी नतीजों में कांग्रेस को भाजपा से अधिक सीटें मिली थीं.
नतीजतन कुछ ही समय बाद उनसे गोवा के साथ-साथ चुनावी मुहाने पर खड़े कर्नाटक राज्य का प्रभार भी वापस ले लिया गया. दो माह बाद उनकी तेलंगाना के प्रभारी के तौर पर भी छुट्टी कर दी गई.
अब वे केवल राज्यसभा सांसद रहे और पार्टी में उनके पास आंध्र प्रदेश का प्रभार बचा था और पार्टी महासचिव थे. लेकिन, 2018 में केंद्रीय राजनीति में दिग्विजय की भूमिका तब पूरी तरह से ख़त्म हो गई जब उन्हें पार्टी के नवनिर्वाचित अध्यक्ष राहुल गांधी की एआईसीसी में महासचिव के पद से हटा दिया गया और आंध्र प्रदेश का भी प्रभार ले लिया गया. केरल के पूर्व मुख्यमंत्री ओमान चंडी को यह दोनों ज़िम्मेदारियां सौंप दी गईं.
कांग्रेस को लगी गोवा की चोट के बाद धीरे-धीरे पार्टी ने पूरी तरह से दिग्विजय से किनारा कर लिया. वर्तमान में वे केवल मध्य प्रदेश कांग्रेस समन्वय समिति के अध्यक्ष हैं. जहां उन्हें पार्टी की ओर से पार्टी की प्रदेश इकाई में व्याप्त गुटबाज़ी से निपटने का काम सौंपा गया है.
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हालांकि, समन्वय समिति के अध्यक्ष के तौर पर उनकी नियुक्ति भी विवादित रही. ऊपरी तौर पर यह समिति गुटबाज़ी समाप्त करने की कांग्रेस की एक कवायद है लेकिन सत्यता यह है कि यह दिग्विजय को साधने की एक कोशिश मात्र थी. गुटबाज़ी दूर करने के लिए बनाई गई यह समिति स्वयं गुटबाज़ी की ही देन थी.
वाकया यूं था कि नर्मदा परिक्रमा यात्रा समाप्त करने के बाद दिग्विजय सिंह ने घोषणा की कि वे हर विधानसभा क्षेत्र में जाएंगे और कार्यकर्ताओं एवं नेताओं को एकजुट कर आगामी चुनाव के लिए पार्टी को तैयार करेंगे. उनका कहना था कि प्रदेश के नेताओं में इस हद तक गुटबाज़ी है कि कोई किसी की नहीं सुनता.
इस बीच कांग्रेस का एक अंदरूनी सर्वे मीडिया में सामने आया जिसमें कहा गया कि दिग्विजय का जनता के बीच जाना कांग्रेस को नुकसानदेह हो सकता है और कांग्रेस ने उन्हें यात्रा पर जाने से रोक दिया.
इस दौरान कमलनाथ की ताजपोशी भी बतौर अध्यक्ष हो गई. उन्होंने 12 मई को निर्देश जारी किए कि बिना पार्टी की अनुमति कोई भी यात्रा नहीं निकाली जाएगी.
फिर अचानक 22 मई को पार्टी ने दिग्विजय सिंह की अध्यक्षता में समन्वय समिति का गठन करके दिग्विजय को वही काम आधिकारिक तौर पर सौंप दिया जो कि वे पहले निजी यात्रा के माध्यम से करना चाहते थे. लेकिन यहां भी उनके पर काटने में कोई कमी नहीं रखी.
निजी समन्वय यात्रा में पहले जहां दिग्विजय हर विधानसभा का दौरा करना चाहते थे लेकिन कांग्रेस की औपचारिक समन्वय यात्रा में उन्हें ज़िला स्तर पर ज़िम्मेदारी सौंपी गई. साथ ही पार्टी में उनके कट्टर प्रतिद्वंद्वी सत्यव्रत चतुर्वेदी को भी समिति का सदस्य नियुक्त कर दिया.
विशेषज्ञ मानते हैं कि यात्रा से रोके जाने के बाद दिग्विजय की नाराज़गी दूर करने के लिए केवल उन्हें सांत्वना देने हेतु उनकी अध्यक्षता में समन्वय समिति बनाई गई.
राजनीतिक विशेषज्ञ गिरिजा शंकर कहते हैं, ‘यदि चुनाव के ठीक पहले किसी राजनेता को उसकी पार्टी चार-छह महीने की निजी यात्रा (नर्मदा यात्रा) करने के लिए छुट्टी देती है तभी साफ हो जाता है कि उस नेता के होने न होने से पार्टी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है. इसलिए दिग्विजय के मामले में पार्टी ने सितंबर 2017 में ही संकेत दे दिया था कि वे जो करना चाहें करें, अब पार्टी को उनकी ज़रूरत नहीं है.’
नर्मदा यात्रा की बात करें तो दिग्विजय सिंह 30 सिंतबर 2017 को नर्मदा परिक्रमा यात्रा पर निकले थे. इसे उन्होंने अपनी निजी धार्मिक यात्रा क़रार दिया था. लगभग छह माह चली यह यात्रा प्रदेश में नर्मदा नदी से लगी 90 विधानसभा सीटों से होकर गुज़री थी.
यात्रा भले ही धार्मिक थी लेकिन दिग्विजय की फेसबुक और ट्विटर टाइमलाइन बताती थी कि उस दौरान ख़ूब राजनेताओं का जमावड़ा उनकी यात्रा में देखा गया. राजनीति में दख़ल रखने वाले साधु-संतों से वे आशीर्वाद लेते दिखाई दिए. साथ ही यात्रा के दौरान लोगों से मिलते-जुलते और उनकी समस्याओं के बारे में सोशल मीडिया पर लिखते रहे.
इसलिए तब उनकी यात्रा राजनीतिक सक्रियता से जोड़कर देखी गई. हालांकि वे तब तो इनकार करते रहे लेकिन बीते दिनों ‘द वायर’ को दिए साक्षात्कार में उन्होंने यात्रा के राजनीतिक सक्रियता से जुड़े होने की बात स्वीकारी थी.
तब कहा गया कि नर्मदा यात्रा चुनावों को देखते हुए दिग्विजय की प्रदेश में अपनी खोई ज़मीन वापस पाने की और ख़ुद को शिवराज के सामने एक दमदार चेहरे के रूप में पेश करने की एक कवायद है. उन्हें इस दौरान प्रदेश में कांग्रेस की ओर से फिर से मुख्यमंत्री के दावेदार के तौर पर देखा जाने लगा था.
हां, उनकी महत्वाकांक्षाएं भी कुछ बड़ी थीं, तभी तो यात्रा समाप्त होते ही वे हर विधानसभा में जाकर समन्वय यात्रा निकालने के इच्छुक थे. लेकिन कांग्रेस उनको लेकर अलग ही सोच रखती थी. पहले तो उनकी समन्वय यात्रा रोकी और फिर उन्हें एआईसीसी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
इस पूरे घटनाक्रम के बाद दिग्विजय स्पष्टीकरण देते नज़र आए कि वे प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे. लेकिन, इस बीच उनके समर्थक उन्हें मुख्यमंत्री बनाने संबंधी कैंपेन भी चलाते नज़र आए. हालांकि, दिग्विजय ने उस कैंपेन से किनारा कर लिया.
लेकिन, कहीं न कहीं प्रदेश की राजनीति में महत्व पाने की छटपटाहट तो उनमें देखी ही गई है. जिसकी बानगी मिलती है जब वे अगस्त माह में ‘द वायर’ से कहते हैं, ‘प्रदेश में कांग्रेस पिछले दो विधानसभा चुनाव इसलिए हारी क्योंकि मैं नहीं था. लेकिन, अब मैं पूरी तरीके से सक्रिय हूं. मैंने नर्मदा जी की 3100 किलोमीटर की परिक्रमा की है. शिवराज के विधानसभा क्षेत्र में मैं 11 दिन पैदल चला हूं और अब मैं ज़िले-ज़िले जा रहा हूं, गांव-गांव जाऊंगा और चुनौती देता हूं शिवराज को कि इस बार सरकार बनाकर दिखा दे. इस बार दिग्विजय सिंह हर जगह जाएगा. पहले कांग्रेस जहां बुलाता थी सिर्फ़ वहां जाता था. इस बार दृढ़ता से मैं कांग्रेस पार्टी की ही सरकार बनवाऊंगा.’
इसलिए जब राहुल गांधी के भेल मैदान में आयोजित सभा हो या दूसरे आयोजन, विभिन्न मंचों पर उनकी अनुपस्थिति रही, जहां कांग्रेसी के चुनाव प्रचार में प्रदेश के सभी बड़े नेताओं के बड़े-बड़े कटआउट लगाए जाते थे, लेकिन दिग्विजय वहां से गायब थे. यही कारण रहा कि अपनी उपेक्षा से व्यथित वे कैमरे के सामने अपना दर्द बयां कर बैठे.
गिरिजा शंकर कहते हैं, ‘दिग्विजय कोई जनता के मसीहा नहीं हैं और न ही जनता उनकी गुलाम कि 10 साल उन्होंने प्रदेश की राजनीति में कुछ नहीं किया, अब आप जैसे ही आएंगे तो लोग आपके पीछे पागल हो जाएंगे. ये बड़ी-बड़ी डींगें हांकना कि मैं नहीं था तो कांग्रेस हारी, केवल और केवल अपनी उपेक्षा से त्रस्त दिग्विजय की ख़ुद को महत्वपूर्ण, उपयोगी साबित करने की एक कोशिश कहिए या ख़ुद को दिलासा देना मानिए.’
वे आगे कहते हैं, ‘किसी भी पार्टी में हर नेता को अपनी उपयोगिता साबित करनी पड़ती है. मीडिया ने बोल दिया कि बड़े नेता हो तो पार्टी भी मान लेगी, ऐसा नहीं है. बड़े नेता हैं आप तो आपको यह साबित करना पड़ेगा. 15 सालों से दिग्विजय सिंह ने ऐसा क्या काम किया कि पार्टी में उनकी उपयोगिता बनी रहे? इस दौरान उनकी क्या उपलब्धियां रहीं? बस मीडिया का प्रचार रहा कि वे राहुल के गुरु हैं, बड़े नेता हैं. राहुल के गुरु के तौर पर उन्हें उन्होंने ख़ुद या पार्टी ने नहीं, मीडिया ने पेश किया था.’
गिरिजा शंकर की बात तार्किक तब लगने लगती है जब हम देखते हैं कि वर्तमान में समन्वय समिति के अध्यक्ष के तौर पर भी वे पार्टी की गुटबाज़ी दूर नहीं कर सके हैं. उन्होंने ज़िले-ज़िले दौरे किए लेकिन ज़मीनी स्थिति यह है कि विधानसभा स्तर से लेकर प्रदेश कांग्रेस के उच्च नेतृत्व तक गुटबाज़ी इस क़दर व्याप्त है कि कांग्रेस जो कि 15 अगस्त तक चुनावों के लिए टिकट आवंटन ख़त्म करने वाली थी, वह अक्टूबर समाप्त होने तक इस काम को अंजाम नहीं दे सकी.
एक तरफ एक सीट से दस-दस उम्मीदवारों की दावेदारी रही तो दूसरी ओर कमलनाथ, सिंधिया, दिग्विजय, अजय सिंह जैसे बड़े दिग्गज अपने-अपने चहेतों को टिकट दिलाने में एक-दूसरे की काट में लगे रहे जिसके चलते टिकट किसे दिया जाये, इस पर आसानी से सहमति ही नहीं बन सकी.
वहीं, गुटबाज़ी दूर करने वाले दिग्विजय ख़ुद के ख़िलाफ़ हो रही गुटबाज़ी भी दूर नहीं कर सके हैं. दिग्विजय की समन्वय यात्रा को सिंधिया के वर्चस्व वाले ग्वालियर-चंबल संभाग में नहीं होने दिया गया. यहां 32 विधानसभा सीटें हैं.
जो कई सवाल खड़े करता है. जैसे- क्या स्वयं समन्वयकर्ता दिग्विजय के चुनाव प्रबंधन समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य के साथ संबंध समन्वयपूर्ण नहीं हैं? क्या पार्टी को उनकी समन्वयकर्ता की क्षमता पर शक है? या फिर वास्तव में समन्वय समिति का गठन केवल दिग्विजय को साधने की एक कोशिश मात्र थी जिसका कि हमने ऊपर विश्लेषण किया.
इनमें से कुछ सवालों के जवाब तब मिल गए जब 31 अक्टूबर को दिल्ली में राहुल गांधी के समक्ष चुनाव समिति की बैठक में सिंधिया और दिग्विजय आपस में भिड़ गए. दोनों ही अपने-अपने समर्थकों के लिए टिकट की मांग कर रहे थे. दोनों का झगड़ा सुलझाने कांग्रेस अध्यक्ष को तीन सदस्यीय समिति का गठन तक करना पड़ा.
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई दिग्विजय सिंह के पराभव के कारणों पर बात करते हुए कहते हैं, ‘वे अपनी उम्र और अपने राजनीति के तरीके की वजह से हाशिये पर आ गए. पहला तो पार्टी चाहती थी कि उनके उम्र समूह के नेता सक्रिय राजनीति से धीरे-धीरे किनारे हो जाएं और राहुल गांधी की युवा पीढ़ी को मौका दें. लेकिन 2014 की शर्मनाक हार के बाद पार्टी अपना वह फॉर्मूला लागू नहीं कर पाई. फिर इस दौरान देश की राजनीति में भाजपा की जीत और नरेंद्र मोदी के उदय से एक बड़ा बदलाव आया.’
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वे आगे कहते हैं, ‘कांग्रेस का वो पुराना फॉर्मूला जिसमें उच्च जाति का व्यक्ति अल्पसंख्यक और दलितों के हित की बात करे तो एक अच्छा संयोजन बन जाता था, वो ख़त्म हो गया. बहुसंख्यकवाद फैल गया. जिसमें अल्पसंख्यकों की बात करने वालों और उनके मसीहा का राजनीतिक स्पेस बहुत कम हो गया. दिग्विजय सिंह इन्हीं बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों के हिसाब से कांग्रेस के लिए अनुपयोगी हो गए. उनका राजनीतिक मॉडल बदली परिस्थितियों के अनुकूल नहीं था और उनकी सबसे बड़ी कमी या कमज़ोरी रही कि वे बदलते हुए हालातों में ख़ुद को बदल नहीं पाए.’
वहीं, मध्य प्रदेश के चुनावों में दिग्विजय को सामने न लाना दीपक तिवारी कांग्रेस की रणनीति भी मानते हैं और साथ ही कहते हैं कि दिग्विजय अब कांग्रेस के लिए बोझ से हो गए हैं.
वे कहते हैं, ‘भाजपा ने दिग्विजय को मध्य प्रदेश में इतना बड़ा राक्षस साबित कर दिया है कि उनकी प्रदेश में चुनावी छवि पूरी तरह से ख़त्म हो गई है. दिग्विजय ने भी उस छवि को ठीक करने की कोशिश नहीं की.’
वे आगे कहते हैं, ‘दिग्विजय सिंह को मध्य प्रदेश की समझ बहुत अच्छी है. प्रदेश में पार्टी में किसकी क्या हैसियत है ये वे बहुत अच्छे से जानते हैं. इसलिए वे पर्दे के पीछे तो कांग्रेस के लिए फायदेमंद हैं लेकिन अगर वे सामने आते हैं तो जैसा वे कह रहे थे कि पार्टी मानती है कि उनके बोलने से वोट कटते हैं, तो यह पार्टी ही नहीं मानती हर कोई मानने लगा है. इसलिए उनका पर्दे के पीछे रहना पार्टी की रणनीति भी है और साथ ही उन्हें पार्टी इसलिए भी किनारे कर रही है कि वे अब एक तरह के बोझ ज़्यादा बन गए हैं, इस तरह कांग्रेस दिग्विजय के मामले में दोतरफ़ा नीति अपना रही है.’
बात सही भी है कि क्योंकि दिग्विजय सिंह आज जब कांग्रेस के मुख्य प्रचार से दूर हैं तब भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और भाजपा का कैंपेन उनके ही नाम के इर्द-गिर्द घूम रही है. शिवराज हों या भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, हर सभा में वे दिग्विजय के 10 साल के कार्यकाल का ज़िक्र करना नहीं भूलते.
हर सभा में वे दिग्विजय के लिए ‘श्रीमान बंटाधार’ शब्द को प्रयोग करके जनता को उनका कार्यकाल याद कराते हैं. इसलिए यदि दिग्विजय को कांग्रेस सामने करती तो भाजपा का हमला कांग्रेस पर तेज़ तो होता ही, साथ ही वह पूरे चुनाव को शिवराज बनाम दिग्विजय में तब्दील करने में सफल हो जाती जो कि भाजपा के लिए फायदे और कांग्रेस के लिए नुकसान का सौदा होता.
यहां इस बात का भी ज़िक्र करना ज़रूरी हो जाता है कि मंदसौर में किसानों के साथ हुए गोलीकांड को शिवराज सरकार के ख़िलाफ़ भुनाने में जुटी कांग्रेस अगर दिग्विजय को साथ लेकर चलती तो दिग्विजय के शासनकाल में किसानों पर हुए मुलताई गोलीकांड की परछाई भी उसे सताती. जिससे कि मंदसौर कांड पर शिवराज को घेरने की उसकी मुहिम कहीं न कहीं प्रभावित होती. शायद इसलिए ही 6 जून 2018 की राहुल गांधी की मंदसौर सभा के मंच पर प्रदेश के सभी बड़े कांग्रेसी नेता मौजूद थे, सिवाय दिग्विजय के.
दीपक तिवारी कहते हैं, ‘मध्य प्रदेश में इस बार चुनाव भाजपा बनाम कांग्रेस नहीं, भाजपा बनाम जनता है और कांग्रेस उम्मीद लगाए बैठी है कि एंटी इनकम्बेंसी के चलते जनता उसकी सरकार बनवाएगी. इसलिए वे किसी चेहरे को आगे नहीं कर रहे कि जैसे ही कांग्रेस के नेता सामने आते हैं तो जनता कांग्रेस के नेताओं से भाजपा के नेताओं की अपेक्षा अधिक चिढ़ने लगती है और बात दिग्विजय की हो तो सीधे-सीधे भाजपा फायदे में चली जाती है.’
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वहीं, रशीद मानते हैं कि दिग्विजय उस कांग्रेसी कल्चर की बलि गए जहां असफलताओं के लिए पार्टी आला नेतृत्व पर अंगुली नहीं उठाई जाती और नीचे वालों पर सारी गलती थोपकर बलि का बकरा बना दिया जाता है.
वे कहते हैं, ‘कांग्रेस अधिकांश राज्यों में हारी है. उनमें से ही एक गोवा था. गोवा में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद भी सरकार न बनने के पीछे कई कारण थे. लेकिन केवल दिग्विजय सिंह को दोष देना उचित नहीं था. हमने देखा कि कांग्रेस को आंध्र प्रदेश में भी समस्याएं हुईं, कर्नाटक में भी अपने बूते सरकार बनने की उम्मीद थी लेकिन बन न सकी.’
वे आगे कहते हैं, ‘ऐसे मामलों में कांग्रेस का एक कल्चर चला आ रहा है राहुल गांधी और सोनिया गांधी को दोष नहीं दिया जाता है. प्रधानमंत्री होता है, उनको दोष दिया जाता है. अन्य नेता और पदाधिकारियों को दोष दिया जाता है. उत्तर प्रदेश या अन्य किसी भी राज्य में देखें, भाजपा अगर आगे आई है तो कांग्रेस को ही हराकर आगे आई है. ये तथ्य है. लेकिन कभी राहुल और सोनिया पर उंगुली नहीं उठी. इस कल्चर का ख़ामियाज़ा भी दिग्विजय सिंह को भुगतना पड़ रहा है.’
वहीं, उपेक्षा के बाद भी पार्टी के साथ खड़े दिखाई देना दिग्विजय की मजबूरी इसलिए है क्योंकि उन्हें अपने बेटे जयवर्धन सिंह को राजनीति में सेट करना है, जो कि राघोगढ़ से विधायक हैं.
रशीद कहते हैं, ‘उन्हें अपने हाशिये पर जाने का इतना मलाल नहीं है. वे अपने विधायक बेटे, जो अगर दूसरी बार जीत जाते हैं और कांग्रेस की सरकार बनती है तो उन्हें एक अच्छा मंत्रालय मिलने की उम्मीद है, की परवाह में हैं. वहीं, दिग्विजय सिंह के समर्थक पूरे राज्य में फैले हुए हैं. उन्हें उन समर्थकों के लिए भी सियासत करनी है. उनकी भी सेटिंग करनी है.’
यही कारण है कि दिग्विजय की पार्टी से रुसवाई कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगी, इस बात से रशीद किनारा करते हैं.
वहीं, गिरिजा शंकर मानते हैं, ‘दिग्विजय हों या कमलनाथ या फिर सिंधिया, ये लोग अगर प्रदेश के इतने ही बड़े नेता होते तो तीन बार कांग्रेस चुनाव क्यों हारती? मतलब कि तीनों प्रदेश में कोई बड़े नेता नहीं हैं. इसलिए मध्य प्रदेश कांग्रेस में ऐसा कोई नेता नहीं दिखता जो नाराज़ होने पर पार्टी को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में हो.
वे कहते हैं, ‘दिग्विजय 15 सालों से प्रदेश से दूरी बनाए रखे. सिंधिया और कमलनाथ मध्य प्रदेश में रहे ही नहीं कभी. प्रदेश में इन लोगों की वास्तव में कोई ज़मीन ही नहीं है. इसलिए वे किसी भी प्रकार का नुकसान पहुंचाने की हालत में नहीं हैं.’
बहरहाल, विशेषज्ञ मानते हैं कि दिग्विजय का फायदा कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने में नहीं, जिताने में अधिक है. क्योंकि इस स्थिति में एक तो उनका बेटा राजनीति में सेटल हो सकता है और दूसरा यदि कमलनाथ मुख्यमंत्री बनते हैं तो कहीं न कहीं दिग्विजय को उनसे नज़दीकी का फायदा मिल सकता है.
इसके साथ ही उन्हें अपनी राज्यसभा की सीट भी बचानी है. लेकिन, साथ ही वे स्वीकराते हैं कि यह फायदा भी दिग्विजय के अस्त होते सूरज का फिर से उदय नहीं करा सकता है.
हालांकि, इतना तो तय है कि कांग्रेस ने दिग्विजय को पीछे करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और शिवराज सिंह चौहान से कांग्रेस को टारगेट करने का एक मुद्दा छीन लिया है.
रशीद कहते हैं, ‘इससे कांग्रेस को थोड़ा राजनीतिक लाभ मिलने की उम्मीद है और ये बात दिग्विजय स्वयं जानते हैं. अर्जुन की तरह कांग्रेस का निशाना मछली की आंख पर है क्योंकि अगर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में से वह दो राज्य नहीं जीती तो उसके अस्तित्व के ऊपर एक बड़ा संकट आने वाला है. इसलिए दिग्विजय के मामले में पार्टी ने कोई जोख़िम नहीं लिया.’
बहरहाल, इस बीच दिग्विजय सिंह का सोनिया गांधी को लिखा एक पत्र भी सोशल मीडिया पर वायरल हुआ है जिसमें वे अपने 57 समर्थकों को टिकट दिलाने की गुहार कर रहे हैं. साथ ही पत्र में उन्होंने पार्टी में अपनी उपेक्षा का भी ज़िक्र किया है. हालांकि, दिग्विजय ने इस पत्र को फ़र्ज़ी ठहराया है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)