विशेष रिपोर्ट: छत्तीसगढ़ की उन 18 विधानसभा सीटों का गणित, जिन पर पहले चरण में 12 नवंबर को मतदान होने वाले हैं.
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के लिए 12 नवंबर को पहले चरण का मतदान होना है. पहले चरण में उन 18 विधानसभा सीटों पर मतदान होना प्रस्तावित है जो कि सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील मानी जाती हैं. इनमें बस्तर संभाग की 12 सीटें और राजनांदगांव ज़िले की छह सीटें शामिल हैं.
कोंटा, बीजापुर, दंतेवाड़ा, चित्रकोट, बस्तर, जगदलपुर, नारायणपुर, केशकाल, कोंडागांव, अंतागढ़, भानुप्रतापपुर, कांकेर, खेरागढ़, डोंगरगढ़, राजनांदगांव, डोगरगांव, खुज्जी और मोहल्ला मानपुर सीटों पर होने वाले मतदान के लिए दोनों प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने उम्मीदवार मैदान में उतार दिए हैं.
वर्तमान विधानसभा में इन 18 सीटों में से 12 पर कांग्रेस का क़ब्ज़ा है जबकि सत्तारूढ़ भाजपा के पास केवल छह सीटें हैं. कोंटा, दंतेवाड़ा, चित्रकोट, बस्तर, केशकाल, कोंडागांव, भानुप्रतापपुर, कांकेर, खेरागढ़, डोंगरगांव, खुज्जी, मोहल्ला-मानपुर सीटें कांग्रेस के क़ब्ज़े में हैं जबकि बीजापुर, जगदलपुर, नारायणपुर, अंतागढ़, डोंगरगढ़, राजनांदगांव पर भाजपा का क़ब्ज़ा है.
लेकिन, 2013 के पिछले विधानसभा चुनावों के पहले तक इन 18 सीटों पर भाजपा मज़बूत हुआ करती थी. 2008 में उसने इन 18 में से 15 सीटें जीती थीं, तो वहीं 2003 में बस्तर, अंतागढ़ और मोहल्ला-मानपुर सीटें अस्तित्व में नहीं थीं, तब बाकी बची 15 सीटों में से भाजपा को 10 पर सफलता मिली थी, जबकि कांग्रेस को 5 सीटों से संतोष करना पड़ा था.
2003 में इन सीटों पर 65.68 प्रतिशत मतदान हुआ था, 2008 में 67.14 प्रतिशत. लेकिन, 2013 में मतदान का प्रतिशत लगभग 9 फीसद बढ़ा और 75.93 प्रतिशत हो गया.
इस बढ़े हुए मत प्रतिशत का कारण भाजपा सरकार से स्थानीय जनता की नाराज़गी माना गया जिसके चलते जनता ने भाजपा के विधायकों को हटाने के लिए खुलकर मतदान किया जिससे कांग्रेस को सफलता मिली.
वहीं, कांग्रेस की बढ़त को सुकमा ज़िले की झीरम घाटी में कांग्रेसी नेताओं पर हुए नक्सली हमले के चलते मिली सहानुभूति से जोड़कर देखा गया.
बहरहाल, 18 सीटों में 11 सीटें अनुसूचित जनजाति और एक सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. कांग्रेस ने इन सीटों पर अपने 12 विधायकों में से तीन का टिकट काट दिया है जबकि भाजपा ने पिछले चुनाव में जीते अपने सभी छह विधायकों पर फिर से भरोसा जताया है.
गौरतलब है कि अंतागढ़ से 2013 विधानसभा चुनावों में विक्रम उसेंडी ने जीत दर्ज की थी. लेकिन 2014 में वे लोकसभा सांसद चुन लिए गए थे जिसके कारण इस सीट पर उपचुनाव हुए जिसमें भोजराज नाग ने जीत दर्ज की.
भोजराज को इस बार टिकट न देकर वापस विक्रम उसेंडी को ही पार्टी ने आज़माया है जो दिखाता है कि कहीं न कहीं अपना गढ़ खोने का डर भाजपा के अंदर है.
कांग्रेस की तरह ही पिछले चुनावों में भाजपा ने भी अपने चार विधायकों का टिकट काटा था लेकिन भाजपा को उसका कोई फायदा नहीं हुआ था. जिन चार नए चेहरों पर उसने दांव खेला था, उनमें से तीन की हार हुई थी.
इसलिए भाजपा ने इस बार ऐसा जोख़िम नहीं उठाया और बीते चुनाव के विजेता सभी विधायकों को फिर से मैदान में उतार दिया जिसके तहत सांसद विक्रम उसेंडी को भी फिर से विधायकी लड़ाने वापस बुलाया गया.
बीजापुर से वन मंत्री महेश गागड़ा, जगदलपुर से संतोष बाफना, नारायणपुर से उच्च शिक्षा मंत्री केदार कश्यप, अंतागढ़ से पूर्व मंत्री और सांसद विक्रम उसेंडी, राजनांदगांव से मुख्यमंत्री रमन सिंह 2008 के चुनावों से ही अपनी-अपनी सीटें भाजपा को जिता रहे हैं.
इनमें विक्रम उसेंडी तो 2003 में भी नारायणपुर से जीते थे. डोगरगढ़ से विधायक सरोजनी बंजारे पर भी भाजपा ने भरोसा दिखाया है. पहले चरण के चुनाव में डोंगरगढ़ एकमात्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट है.
वहीं, भाजपा का उम्मीदवार न बदलने का कारण यह भी है कि राजनांदगांव और बीजापुर को छोड़ दिया जाए तो बाकी चार सीटें भाजपा की परंपरागत सीट हैं जिन पर वह अब तक नहीं हारी है. वहीं, राजनांदगांव से रमन सिंह का चुनाव लड़ना जीत की गारंटी है.
कांग्रेस के लिए इन सीट को भाजपा से छीनना चुनौती है. इसलिए पिछली बार के चार चेहरों को इस बार दोबारा नहीं आज़माया गया है. इनमें एक नाम मंतुराम पवार का भी है जो अंतागढ़ विधानसभा उपचुनाव के दौरान हुई ख़रीद-फ़रोख़्त में शामिल रहे थे और बाद में भाजपा में शामिल हो गए थे.
बीजापुर और नारायणपुर में कांग्रेस के पिछले ही प्रत्याशी मैदान में हैं जबकि जगदलपुर में 2003 में हारे रेखचंद जैन को फिर से मौका दिया गया है. अंतागढ़ में पूर्व पुलिस अधिकारी अनूप नाग को आज़माया है.
राजनांदगांव भी मुख्यमंत्री रमन सिंह के कारण भाजपा का मज़बूत गढ़ बन गया है और इस बार कांग्रेस उनके सामने भाजपा से कांग्रेस में शामिल हुईं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी सांसद करुणा शुक्ला को मैदान में लेकर आई है.
कांग्रेस ने जिन तीन सीटों पर अपने विधायकों के टिकट काटे हैं वे कांकेर, खुज्जी और मोहल्ला मानपुर हैं. खुज्जी में कांग्रेस के लिए दो बार से जीत दिला रहे भोलाराम साहू का भी टिकट काटा गया है.
सत्तारूढ़ भाजपा के लिए इन 18 सीटों में से कोंटा और मोहल्ला मानपुर की सीटें चुनौती की तरह हैं. कोंटा में कवासी लखमा नाम की चुनौती से भाजपा कभी पार नहीं पा सकी है.
2003 से 2013 के बीच तीन-तीन अलग-अलग उम्मीदवार उतारकर भी उसे जीत नहीं मिली है. इसलिए इस बार 2013 में केवल 6,000 मतों से हारे धनीराम बरसे को पार्टी ने फिर से मौका दिया है.
जबकि मोहल्ला मानपुर की सीट 2008 में अस्तित्व में आने के बाद से ही कांग्रेस के पास है. दिलचस्प यह है कि इस सीट पर कांग्रेस और भाजपा दोनों ही हर बार अपने प्रत्याशी बदल देती है.
2008 में कांग्रेस के लिए शिवराज उसारे जीते तो 2013 में उनका टिकट काटकर तेजकुंवर नेताम को मिला. अब तेजकुंवर का भी टिकट कट गया है और इस बार इंद्र शाह मंडावी मैदान में हैं. भाजपा ने भी परंपरा निभाते हुए अपना प्रत्याशी बदला है.
वैसे तो खुज्जी सीट का गणित भी भाजपा के लिए चिंता का सबब हो सकता है. 2003 में जीती यह सीट भाजपा 2008 और 2013 में हार गई. 2013 में तो वह तीसरे स्थान पर रही. कारण था, पूर्व विधायक रजिंदर पाल सिंह भाटिया की बगावत. वे निर्दलीय मैदान में उतरे और 42000 से अधिक वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे.
इस बार भी जातीय समीकरण साधने भाजपा ने उनका टिकट काटकर हिरेंद्र साहू को दिया है तो वहीं कांग्रेस ने भी अपने दो बार के विधायक भोलाराम का टिकट काटकर महिला प्रत्याशी छन्नी साहू को मैदान में भेजा है.
अगर बात करें इन सीटों की तो लगातार कांग्रेस 2013 के झीरम घाटी कांड को मतदाताओं को याद दिला रही है ताकि पिछली बार की तरह इस बार भी वह सहानुभूति के सहारे इसका लाभ उठा सके.
वहीं, इन सीटों पर तीसरी ताक़त की बात हो तो अब तक कोई भी पार्टी यहां से सम्मानजनक वोट नहीं बटोर पाई है. केवल कोंटा सीट से ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) मुक़ाबले में नजर आई है.
बाकी जगह कांग्रेस और भाजपा के अलावा अन्य सभी दल के प्रत्याशी अपनी ज़मानत तक नहीं बचा पाते हैं और राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय दल उनकी झोली में एक-दो प्रतिशत मत ही जा पाते हैं.
राष्ट्रीय दलों में यहां बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तथा क्षेत्रीय दलों में समाजवादी पार्टी (सपा) जैसे बड़े नाम चुनाव लड़ते हैं लेकिन स्थिति यह है कि पिछले चुनावों में 8 सीटों पर नोटा तीसरे पायदान पर रहा.
कांग्रेस और भाजपा को छोड़कर कोई भी दल दूसरे नंबर पर नहीं पहुंचा. जबकि एक निर्दलीय उम्मीदवार तक ने दूसरे नंबर पर उपस्थिति दर्ज कराई.
हालांकि इस बार कांग्रेस से अलग होकर छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (छजकां) बनाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी को भरोसा है कि उनका आदिवासी होना इन सीटों पर उनकी पार्टी को लाभ पहुंचाएगा क्योंकि यह सीटें आदिवासी बहुल मानी जाती हैं.
लेकिन पहले चरण की 18 सीटों में से 8 सीटें डोंगरगढ़, डोगरगांव, अंतागढ़, कांकेर, केशकाल, कोंडागांव, दंतेवाड़ा, और कोंटा अजीत जोगी ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से गठबंधन करके उसे दे दी हैं. छजकां केवल 10 सीटों पर चुनाव लड़ रही है.
2013 के विधानसभा चुनावों में बसपा को डोंगरगढ़ से 2753, डोंगरगांव से 1713, अंतागढ़ से 2009, कांकेर से 4197, केशकाल से 4378, कोंडागांव से 3347 और कोंटा से 2579 मत मिले थे जबकि अंतागढ़ में उसने अपना प्रत्याशी नहीं उतारा था. पार्टी का कुल मत प्रतिशत करीब दो रहा था.
इस लिहाज़ से देखें तो तीसरे विकल्प के तौर पर बसपा ही नहीं अजीत जोगी की छजकां भी मुक़ाबले में कहीं दिखती, यह छजकां के नीति निर्धारण से पता चलता है कि जो पार्टी जिन सीटों पर कभी दो प्रतिशत मत नहीं पा सकी, गठबंधन की स्थिति में वह सीटें उसे सौंप दी गईं जो कि सीधे तौर पर अपनी हार को स्वीकारने समान है.
बेहतर होता कि अपने आदिवासी चेहरे के बूते अजीत जोगी अपनी ही पार्टी के प्रत्याशी मैदान में उतारते. वहीं, अजीत जोगी जो कि अपने पार्टी गठन के समय से ही राजनांदगांव से मुख्यमंत्री रमन सिंह के सामने चुनाव लड़ने की बात कह रहे थे, ऐन मौके पर नाटकीय तरीके से मुकर गए.
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि तीसरी शक्ति के तौर पर जोगी की पार्टी कांग्रेस और भाजपा को टक्कर देती नज़र नहीं आती है और उसके पास कोई मज़बूत नीति नहीं है.
इस बार एक अन्य विकल्प के तौर पर आम आदमी पार्टी (आप) ने भी ताल ठोकी है और सोनी सोरी जैसे नामों को साथ लेकर वह इन नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाने के लिए प्रयासरत रही है.
पिछले दिनों कोंटा के नुलकातोंग गांव में हुई नक्सली मुठभेड़ में ग्रामीण बच्चों के मारे जाने का मुद्दा आप की ओर से उठाया गया था.
बहरहाल, कांग्रेस-भाजपा के मुकाबले में अन्य राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और पंजीकृत दलों का ऊंट किस करवट बैठता है, यह तो 11 दिसंबर को ही स्पष्ट होगा जब चुनावी परिणाम घोषित किए जाएंगे.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)