अगर बेग़म जान या पाकिस्तान के बाहर विभाजन पर बनी कोई भी फिल्म सरकार को इतना डरा देती है कि उसे बैन करने से पहले देखना तक ज़रूरी नहीं समझा जाता, तो यह दिखाता है कि ये मुल्क किस कदर असुरक्षा और डर में जी रहा है.
एक बड़े पाकिस्तानी नेता ने एक बार मुझसे कहा था, ‘पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जो बचाव की स्थिति में ही रहता है. जब तक हम इसे नहीं बदलते, तब तक हम इसी असुरक्षा के साथ जिएंगे.’ इसके दो साल बाद मैंने लाहौर में एक कर्नल साहब का इंटरव्यू लिया,उन्होंने भी कुछ ऐसी ही बात कही.
उन्होंने कहा कि आज तक हमने जितनी भी जंग लड़ी हैं, 1947 की हो, 65 की या 71 की, हम हमेशा दुश्मनों से अपना मुल्क बचा रहे थे. उन्होंने इसकी वजह बताते हुए कहा, ‘आखिरकार पाकिस्तान एक डिफेंसिव मुल्क है और हमने हमेशा ख़ुद को बचाए रखने के लिए ही कोई कदम उठाया है.’
सुरक्षा और बचाव के नाम पर बहुत-सी बातों को सही ठहराया जा सकता है. जो लोग अलग सोच रखते हों, उन्हें धमकाया जा सकता है, सेकुलर संस्थाओं और कार्यकर्ताओं से उदार फासीवाद और ईशनिंदा के नाम पर छुटकारा पाया जा सकता है, सेना के बजट को बढ़ाया जा सकता है, जंग को मुल्क के लिए सबसे ज़रूरी बताया जा सकता है.
सुरक्षा के नाम पर इतिहास के कुछ पन्नों को ज़रूरत से ज़्यादा तवज्जो दी जा सकती है तो कुछ को गुमनामी के अंधेरे में दफ़न किया जा सकता है.
पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जो इतिहास की सबसे भीषण हिंसा और खूनखराबे के बाद बना और आज तक इसके वो घाव नहीं भरे हैं. आज़ादी के नाम पर मिली जीत और ग़ुरूर के साथ यह मुल्क बेचैन, असुरक्षित और डरा हुआ भी है. यह बिल्कुल ऐसा है जैसे बच्चा पैदा होने पर ज़ोर से रोता है, उसे बाहर की दुनिया के बारे में कोई अंदाज़ा नहीं होता.
वैसा ही कुछ ब्रिटिश साम्राज्य के ख़त्म होने पर हुआ. मुल्क तो बन गया पर उसे अपने पैरों पर खड़ा करने जैसे बड़ा काम के बारे में किसी को कोई अंदाज़ा ही नहीं था. उसे अपनी पिछली ज़िंदगी के बौद्ध, हिंदू, सिख, जैन जैसे कुछ पन्नों से छुटकारा भी पाना था, जिससे एक ‘पाक़’ ज़मीन पर नई शुरुआत हो सके.
चूंकि इस मुल्क की पैदाइश ही तक़सीम (विभाजन) से हुई थी, इसलिए 1947 के बारे में लोगों की सोच, उनके बयानों को अनसुना कर देना मुमकिन नहीं था. फिर भी देश को मज़बूत बनाने के इतने ज़रूरी काम के बीच, 1947 से जुड़ी यादों, तजुरबों और भावनाओं को याद करने की इजाज़त नहीं दी गई. ऐसा कैसे होने दिया जा सकता था?
अगर यहां के रहने वाले अपने अतीत के ‘नापाक़’ वक़्त, जिसे वे पीछे छोड़ आए थे, को ही याद करते रहते तो उनमें देशभक्ति कैसे उपज सकती थी? अगर मुल्क का हर एक आदमी अपने गुज़रे हुए कल से ही नहीं निकलता तो कैसे इस नए मुल्क को अपनाता?
इन सब से बचने के लिए सरकार ने विभाजन की बस चुनिंदा यादों को ही सामने लाने के लिए काम करना शुरू किया. बाकी सबको ख़ामोश कर दिया गया. विभाजन को बस एक तरह से समझाया जाता गया कि उससे जुड़ी यादें सिर्फ कड़वी हो सकती थीं, जहां सिर्फ खून-खराबे की ही बात होगी.
खून-ख़राबे की भी वो तस्वीर जहां इस क़त्लेआम में ‘ख़ूनी’ और ‘बुरे’ हिंदू और सिखों से मुस्लिमों के जान बचाने की कहानी ही दिखाई और बताई जाती. सामान्य बहसों और स्कूली किताबों से लेकर मीडिया में यही बातें सुनी-सुनाई गईं. इतिहास का एकतरफ़ा बखान हुआ और अचानक सरहद के उस पार की उस ज़मीन पर जहां आप पैदा हुए थे, उसे याद करने, वहां अपने दोस्तों-रिश्तेदारों से मिलने जाना मुल्क की खिलाफ़त या यूं कहें कि देशद्रोह समझा जाने लगा.
विभाजन पर की गई मेरी रिसर्च में मुझे पता चला कि विभाजन पर सरकार की इस सोच से आम लोगों की इससे जुड़ी निजी यादें भी प्रभावित हुई थीं. सरकार की इस सोच के चलते ही विभाजन के पीड़ितों की ज़बान पर बस खून-ख़राबे के ही किस्से रहते, थोड़ी मेहनत के बाद ही आप उनसे इससे अलग कुछ और अनुभव निकलवा सकते थे.
यहां तक कि मैंने अपने पूरे बचपन में विभाजन के नाम पर अपनी दादी से सिर्फ खून से सनी ट्रेन, कटी हुई लाशों के बारे में ही सुना था, पर जब मैंने उनसे बहुत पूछा तब जाकर उन्होंने मुझे अपने हिंदू और सिख दोस्तों की कहानियां सुनाईं. एक पूरी पीढ़ी शायद इसी ग़लतफ़हमी के साथ हिंदू, सिख या किसी भारतीय को सिर्फ धोखेबाज़ या ख़ूनी के रूप में देखती आई है.
इसी के चलते 2017 में श्रीजित मुखर्जी की फिल्म बेग़म जान को पाकिस्तान में बैन कर दिया गया. ये फिल्म श्रीजित की बांग्ला फिल्म ‘राजकहिनी’ का हिंदी रीमेक है. फिल्म की टीम को कहा गया कि पाकिस्तान विभाजन पर बनी फिल्में आयात नहीं करता.
हालांकि पाकिस्तान ने ख़ुद विभाजन पर कुछ फिल्में बनाई हैं जैसे करतार सिंह या 2015 में आई मंटो, पर सेंसर बोर्ड ने बेग़म जान देखने तक से ही मना कर दिया. उनका फैसला साफ है- विभाजन पर सरकार की मर्ज़ी के अलावा किसी और बयान को कहने की अनुमति नहीं है.
ज़ाहिर-सी बात है कि विभाजन के दो पक्ष हैं, पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी. और उनके लिए हिंदुस्तानी वर्ज़न को सीमा पर रोक देना ही सही है. दिलचस्प बात यह है कि राजकहिनी या उसका हिंदी रीमेक इन दोनों में से किसी का पक्ष नहीं लेते. फिल्म में एक कोठे की कहानी है, जो अविभाजित भारत में है. विभाजन में वो दोनों देशों की सरहद पर आ जाता है.
फिल्म विभाजन की लकीर खींचे जाने पर लोगों और ज़मीन के टुकड़े हो जाने पर हुए उनके संघर्ष को बताती है. ये उन औरतों की कहानी है जिन्हें सरहद के दोनों ओर ही कोई घर नसीब नहीं होता. सोचने वाली बात है कि भारत और पाकिस्तान के इस विभाजन का मकसद लोगों को, खासकर हाशिये पे रह रहे लोगों को एक सुरक्षित आसरा देना था पर सरहदों के इस तरह बंटने से बेघर होने का ख़तरा ही सबसे ज़्यादा बढ़ा.
पाकिस्तान का इस तरह फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाना दिखाता है कि ‘बचाव’ की यह स्थिति आने वाले कई सालों तक ऐसी ही रहने वाली है. अगर बेग़म जान या पाकिस्तान के बाहर विभाजन पर बनी कोई फिल्म इतना डरा देती है कि उसे बैन करने से पहले देखना तक ज़रूरी नहीं समझा जाता, तो यह दिखाता है कि ये मुल्क किस कदर असुरक्षा और डर में जी रहा है.
उनके इस फिल्म को न देखने और न ही प्रदर्शित करने देने के रवैये ने मुझे लाहौर में एक छठी क्लास की बच्ची से हुई मुलाकात याद दिला दी. उस बच्ची को जब मैंने एक हिंदू देवी की तस्वीर बना पोस्टकार्ड दिया तो उसने रोना शुरू कर दिया. उसने कहा कि उसने जो देखा उससे उसकी आंखें नापाक हो गई हैं.
शायद सेंसर बोर्ड का दिल-दिमाग भी छठी क्लास के बच्चे की तरह काम करता है : उन्हें लगता है कि अगर फिल्म के 2 घंटों के लिए उन्होंने अपनी इस सुरक्षा में कोई कमी छोड़ी तो उनकी दुनिया तबाह हो जाएगी और सुरक्षा के नाम पर जो किला उन्होंने तैयार किया है, वो ढह जाएगा.
(अनम पाकिस्तानी लेखिका हैं, जो लाहौर में रहती हैं. उन्होंने विभाजन पर ‘फुटप्रिंट्स ऑफ पार्टीशन : नैरेटिव्स ऑफ फोर जनरेशन ऑफ पाकिस्तानीज़ एंड इंडियन्स’ किताब लिखी है.)
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