कंपनियां अक्सर ढिठाई से मानवाधिकारों का उल्लंघन करती पाई जाती हैं. जिस अन्याय की बुनियाद पर किसी उत्पाद का निर्माण होता है फिर उसी अन्याय का इस्तेमाल उस उत्पाद को बेचने के लिए किया जाता है.
मार्टिन लूथर किंग जूनियर (एमएलके) की हत्या की वर्षगांठ पर, पेप्सी ने एक विज्ञापन जारी करना मुनासिब समझा. इस विज्ञापन का लब्बोलुआब यह था कि सोडा पीने से वर्तमान समय के सबसे महत्वपूर्ण मानवाधिकार के मसले हल होते हैं.
इस विज्ञापन की हुई व्यापक आलोचना के कारण कंपनी को इसे वापस लेना पड़ा. अमेरिकी रियलिटी टेलीविजन स्टार एवं मॉडल केंडल जेनर इस विज्ञापन का हिस्सा थीं.
इस विज्ञापन में वे एक फोटोशूट को छोड़कर न सिर्फ एक बड़े प्रदर्शन में शामिल होती हैं, बल्कि इसके आगे-आगे चलती हैं और प्रदर्शनकारियों को घूर रहे पुलिसकर्मियों से मुकाबला करती हैं.
इस मोड़ पर आकर जेनर एक पुलिसकर्मी को पेप्सी का एक कैन देती हैं. वह धीरे-धीरे इसमें से घूंट भरता है और यह देख कर प्रदर्शनकारी खुशी से ताली बजाने लगते हैं. इस विज्ञापन में कई अश्वेत लोग हैं जो कि विविधता के विचार के प्रति कॉरपोरेट रस्मअदायगी का अच्छा उदाहरण है.
इस विज्ञापन में दो और रंगों के लोग प्रदर्शन में शामिल होते हैं- एक एशियन सेलोवादक और एक हिजाब में ढकी फोटोग्राफर. लेकिन नेतृत्व संभालती हैं जेनर- एक सेलेब्रिटी श्वेत महिला जो हाथ में पेप्सी लहराते हुए बिना किसी प्रयास के पलक झपकते ही प्रदर्शन का नेतृत्व करने लगती है और उन्हें जीत दिलाती है.
इस विज्ञापन की काफी आलोचना हुई है और इसके नकारात्मक फीडबैक ने कथित तौर पर जेनर को सदमे में पहुंचा दिया है.
आलोचकों ने पुलिस से सामना करती जेनर और बेटन रूज (अमेरिकी राज्य लुइसियाना की राजधानी) में रॉयट गियर (बलवे से निपटने के दौरान पहनी जानेवाली खास पोशाक) पहने दो पुलिस अधिकारियों के सामने डटकर खड़ी प्रदर्शनकारी लेशिया इवांस की छवि के बीच आश्चर्यजनक समानता की ओर ध्यान दिलाया है.
इवांस एक अश्वेत व्यक्ति एल्टन स्टर्लिंग पर बेटन रूज पुलिस डिपार्टमेंट के अधिकारियों द्वारा जानलेवा गोली चलाने के विरोध में प्रदर्शन कर रही थीं. इवांस को विरोध करने के इस साधारण से काम के दंडस्वरूप एक रात जेल में बंद रखा गया था.
यह उम्मीद करना गलत नहीं होगा कि जेनर को पेप्सी के विज्ञापन के चमकदार, सजावटी, रंग-रोगन किये नैतिक जगत में ऐसी किसी चीज को नहीं सहना पड़ा होगा.
संभवतः इस विज्ञापन पर सबसे सटीक प्रतिक्रिया मार्टिन लूथर किंग की सबसे छोटी बेटी बर्निस किंग, जो खुद एक एक्टिविस्ट हैं, की तरफ से आयी.
उन्होंने ट्विटर पर लिखा: ‘इफ ओनली डैडी वुड हैव नोन अबाउट द पॉवर ऑफ़ #पेप्सी.’ (काश डैडी को #पेप्सी की ताकत के बारे में पता होता!).
If only Daddy would have known about the power of #Pepsi. pic.twitter.com/FA6JPrY72V
— Be A King (@BerniceKing) April 5, 2017
इस ट्वीट के साथ उन्होंने अपने पिता की एक तस्वीर लगायी है जिसमें एक प्रदर्शन के दौरान एक श्वेत पुलिस अधिकारी उन्हें शारीरिक रूप से धक्का दे रहा है.
पेप्सी पहली कंपनी नहीं है जिसने अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए प्रदर्शन के चित्र का इस्तेमाल किया है, न वह ऐसा करने वाली आखिरी कंपनी है.
जैसा कि एलेक्स होल्डर ने द गार्जियन में आये अपने एक लेख में ध्यान दिलाया है, ‘पहले वे कहा करते थे कि सेक्स बेचता है; अब ऐसा दिख रहा है कि सेक्स की जगह एक्टिविज्म ने ले ली है.’
उनकी दलील है कि ब्रांड सामाजिक न्याय के विचार को हृदय की अच्छाई के कारण गले नहीं लगा रहे हैं, वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि यह एक अच्छा निवेश है, जो अच्छे मुनाफे का वादा करता है.
उदाहरण के तौर पर वे दिखाते हैं कि यूनिलीवर- डव (जिसके बारे में होल्डर कहते हैं कि इसने डव के विज्ञापन में आत्मप्रशंसात्मक भाव से एक साधारण स्त्री को असली सुंदरता प्रतीक के तौर पर दिखा कर अपनी ख्याति खुद स्वीकार कर ली है) और एक्स (जो सुंदरता के उन्हीं पितृसत्तामक मानकों को स्थापित करता है और जिसकी तीखी मुखालफत डव के कैंपेन में की गयी है) दोनों की बिक्री करता है.
लेकिन समस्या कहीं गहरी है. सार्वजनिक तौर पर ‘लोक-कल्याणकारी मकसदों’ की हिमायत करके फायदा कमाने वाली कंपनियां अपने कामों के दौरान अक्सर ढिठाई से मानवाधिकारों का उल्लंघन करती पायी जाती हैं.
जिस अन्याय की बुनियाद पर किसी उत्पाद का निर्माण होता है उसी अन्याय का इस्तेमाल फिर उस उत्पाद को बेचने के लिए किया जाता है.
मसलन, यूनिलीवर ने कोडाइकनाल में जहरीला पारा डंप किया और पूर्व मजदूरों को मुआवजा देने से भी इनकार दिया, जिनकी सेहत पर इससे नकारात्मक असर पड़ा था.
मजदूरों और एक्टिविस्टों की 15 वर्षों की अनवरत कोशिशों और एक बहुप्रसारित अभियान के बाद, जिससे कंपनी की साख पर खतरा पैदा होने लगा था, कहीं जाकर कंपनी ने मजदूरों को मुआवजा देने की दिशा में पहला कदम बढ़ाया.
कंपनी ने नगर के पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचाया है, उसकी भरपाई करने के लिए उसे तैयार करने की कोशिशें अब भी जारी हैं.
इसी तरह के कॉरपोरेट दिखावे का एक दूसरा उदाहरण टाटा टी का विज्ञापन अभियान है. इस विज्ञापन में एक जज्बे से भरी युवती टाटा के शब्दों में ‘प्री एक्टिविज्म एंथेम’ गा रही है. यह विज्ञापन फरवरी महीने में चल रहे अभियान के तहत जारी किया गया था.
अपने पीछे नाटकीय ढंग से खर्राटे भरते लोगों बीच वह चार घटनाओं की पहचान करती है, जो अभी तक घटी नहीं है- एक पुल अभी तक नहीं गिरा है, एक किसान ने अभी तक खुदकुशी नहीं की है, एक एथलीट अभी तक हारा नहीं है, एक स्त्री के साथ अभी तक दुष्कर्म नहीं हुआ है.
जैसे ही सुबह होती है और अलार्म बजता है, वह पूर्वानुमान लगाती है कि सोए हुए लोग जागेंगे और सुबह के अखबार में पढ़ेंगे कि उनके सोए हुए में ये चारों घटनाएं घट गयी.
हम देखते हैं कि इन लोगों का गुस्सा फूट पड़ता है- कोई विरोध प्रदर्शन पर निकलता है, कोई भूख हड़ताल पर बैठता है, दूसरे लोग न्याय की मांग करनेवाले नारे लगाते हैं.
इसके बाद विजयी मुस्कान लिए वह युवती कहती है, ‘मगर अलार्म अब तक बजा नहीं है’, और लोग सोने के लिए चले जाते हैं. वह टाटा टी (जाहिर है) से भरे हुए मग से घूंट लेटी हुए अंतिम प्रहार करती है, और दर्शकों को झकझोरते हुए कहती है, अलार्म के बजने से पहले ‘जागो रे’.
इस विज्ञापन में ऐसा बहुत कुछ है, जिसके कारण इस पर ठसपन के वैसे ही आरोप लगाए जा सकते हैं, जैसे पेप्सी के विज्ञापन पर लगाए गये थे.
पहली बात, यह मनमाने ढंग से चार जटिल सामाजिक मुद्दों का चुनाव करता है और उन्हें एक घटना में सीमित कर देता है. लेकिन, किसान आत्महत्या और यौन हिंसा को एक खौफनाक व्यक्तिगत घटना मात्र नहीं माना जा सकता.
ये प्रणालीगत समस्याएं हैं और इन्हें इतनी आसानी से ‘पहले’ और बाद में नहीं बांटा जा सकता.
दूसरी बात ये एक्टिविस्टों के कामों को बदनाम करता है और इसे महज किसी अन्याय के सामने आने पर लोगों द्वारा प्रदर्शित किये जाने वाले गुस्से और क्षोभ में सीमित कर देता है.
इसका निहितार्थ यह है कि वास्तव में एक्टिविज्म का सामाजिक मूल्य बेहद कम है, और यह बस उस क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया है, जिसे दुरुस्त नहीं किया जा सकता. देश में चल रहे मजबूत जाति-विरोधी, जेंडर और श्रम आंदोलन इस दावे में छिपे फरेब का प्रमाण हैं.
असहमति की अभिव्यक्ति या दुनिया के बारे मे संवाद किसी भी लोकतंत्र में केंद्रीय महत्व रखता है. यह विज्ञापन इस अभिव्यक्ति और संवाद का ही मखौल उड़ाता है.
यह लोगों को ‘बात बनाने वाले’ और ‘करने वाले’ में रिड्यूस करता है जो गंभीरता से विचार किये जाने की मांग करने वाले मुद्दे की सहज और नैतिक रूप से न्यायोचित पाठ की संभावना को खत्म करता है. साथ ही यह उन लोगों पर व्यंग्यबाण चलाता है जो वास्तव में किसी समस्या से लड़ रहे हैं.
भारतीय दर्शक गजेंद्र चैहान को एफटीआईआई का निदेशक नियुक्त किये जाने के खिलाफ वहां के छात्रों की हड़ताल के दौरान पेप्सी द्वारा जारी किये गये ऐसे ही एक घटिया विज्ञापन को नहीं भूले होंगे.
तीसरी और सबसे खतरनाक बात, यह बेहद गंभीर मानवाधिकार अन्याय के टाटा के रिकॉर्ड की अनदेखी करता है.
टाटा द्वारा एक्टिविस्टों के कार्यों को खारिज यहां तक कि उस पर हमला क्यों किया जा रहा है, यह जानने के लिए असम के चाय बगानों में टाटा टी के मानवाधिकार रिकॉर्ड को देखना उपयोगी होगा.
एमलगेमेटेड प्लांटेशन प्राइवेट लिमिटेड (एपीपीएल), जिसमें टाटा ग्लोबल बीवरेजेज़ की 41 फीसदी हिस्सेदारी है, असम में चाय की दूसरी सबसे बड़ी उत्पादक है.
1 लाख 55 हजार से ज्यादा श्रमिक इसके चाय बागान में काम करते हैं. 2009 में विश्व बैंक की निजी क्षेत्र की संस्था- द इंटरनेशनल फाइनेंस कारपोरेशन (आईएफसी) ने 19.9 फीसदी हिस्से के लिए कंपनी में 7.8 मिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया.
पिछले नवंबर में, वर्ल्ड बैंक की संस्था द कंप्लायंस एडवायजर ओम्बड्समैन (लोकपाल), जिसका काम बैंक को उसकी ही नीतियों के प्रति जवाबदेह बनाना है, ने पाया कि एपीपीएल असम के चाय बागानों के श्रमिकों और उनके परिवारों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में नाकाम रही है.
इस रिपोर्ट में दिये गये ब्यौरे टाटा टी को मानवाधिकार उल्लंघन के कई मामलों से सीधे जोड़ते हैं.
इस रिपोर्ट में पाया गया कि इन बागानों में काम कर रहे मजदूर खराब गुणवत्ता वाले पीने के पानी, खराब आवास और बदहाल सैनिटेशन सुविधाओं के कारण तो बीमार पड़ ही रहे हैं, उनके बीमार पड़ने का एक और कारण कीटनाशक दवाइयों का सही तरीके से इस्तेमाल न किया जाना भी है, जो मजदूरों को खतरनाक रसायनों के सामने अरक्षित छोड़ देता है.
इस रिपोर्ट में पाया गया कि यहां के मजदूर कुपोषित हैं और इतनी कम दैनिक मजदूरी पा रहे हैं जिससे अच्छा पोषक आहार खरीद पाना संभव नहीं है.
एपीपीएल, आईएफसी और टाटा ग्लोबल बीवरेजेज़ सभी ने इस रिपोर्ट के निष्कर्षों पर अलग-अलग वक्तव्य जारी किया.
थॉमस रॉयटर्स फाउंडेशन को ई-मेल से भेजे गये एक जवाब में टाटा ने कहा, ‘टाटा ग्लोबल बीवरेजेज़ (टीजीबी) अपनी पूरी आपूर्ति चेन में लोगों के साथ न्यापूर्ण और नैतिक व्यवहार करने के प्रति प्रतिबद्ध है. एक चिंतित अंशधारक के तौर पर टीजीबी मजदूरों की जीवन और कार्य-स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए एपीपीएल के प्रबंधन के साथ है.’
ऑल आदिवासी स्टुडेंट्स एसोसिएशन ऑफ़ असम के अध्यक्ष स्टीफन लाकरा ने वायर से कहा कि टाटा टी का विज्ञापन ‘अस्वीकार्य और निर्लज्जता से भरा है’.
लाकरा ने यह भी कहा, ‘उनकी कथनी और करनी में अंतर है. असम में टाटा टी के रास्ते काफी शोषण हो रहा है… वे दावा करते हैं कि मजदूर और कंपनी व्यवसाय में बराबर के भागीदार हैं, मगर वे किसी भी दूसरी कंपनी से अलग नहीं हैं. वे कम मजदूरी देते हैं, बच्चों को दी जानेवाली स्कूल की सुविधा भी अच्छी नहीं है, वे डरावने अस्वास्थ्यकर स्थितियों में रह रहे हैं. आवासीय सुविधाओं का भी ऐसा ही बुरा हाल है. वे अपने विज्ञापन में भले कुछ कहें, मगर वे असम में वैसा कुछ नहीं कर रहे हैं… हम उनके दावों का विरोध करते हैं.’