मुस्लिमों को यह कहना होगा कि वे यहां हैं और यहीं रहेंगे. उन्हें यह कहना होगा कि किसी को भी उन्हें इस देश को छोड़ कर जाने के लिए कहने का हक़ नहीं है. उन्हें यह कहना होगा कि वे यहां अपने मुस्लिमपन के साथ वैसे ही रहेंगे जैसे हिंदू अपने हिंदूपन के साथ रहते हैं.
मुस्लिमों को अपनी हत्या होने देने से इनकार करना होगा. मुझे पता है कि मैं जो कह रहा हूं वह बेहद अजीब है लेकिन, दरअसल समय की ज़रूरत यही है.
पुलिस और नागरिक प्रशासन की कोई दिलचस्पी उनकी हत्या रोकने मे नहीं दिखाई देती. बल्कि इसके उलट वे ऐसी हत्याओं को दोतरफा मामले का रंग देने में ज्यादा मशगूल नज़र आते हैं.
हालांकि वे अपने सामने पड़े एक क्षत-विक्षत शरीर की सच्चाई से इनकार नहीं कर सकते और इसी कारण उन्हें एफआईआर दर्ज करने के लिए मजबूर होना पड़ता है. लेकिन वे उसी क्षण अपनी इस मजबूरी को एक जवाबी एफआईआर से संतुलित करते हैं जिसमें मृत व्यक्ति को अपनी ही हत्या का कसूरवार ठहराया जाता है.
ऐसे मामलों में जहां हत्या को अब तक अंजाम नहीं दिया गया है, वे मूक तमाशबीन बने रहते हैं.
अगर निशाने पर आया कोई व्यक्ति किसी तरह से जान बचाकर भाग जाए, जो वे क़ानून से मिली अपनी ताक़त का इस्तेमाल शिकार को शिकारी के सामने पेश करने के लिए करते हैं.
हमने हाल ही में जयपुर में यह देखा है, जहां होटल मे काम कर रहे एक कर्मचारी को फिर से होटल लाया गया, ताकि सब उसे मिलकर पीट सकें.
निचली अदालतों की दिलचस्पी उनका पक्ष सुनने में नज़र नहीं आती और अगर उनकी जान नहीं गई है तो बहुत मुमकिन है तो वे एक ख़ास प्रकार के मीट के साथ पाए जाने के आरोप में ख़ुद को पुलिस या न्यायायिक हिरासत में पाएं.
इस बात का कोई मतलब नहीं कि ऐसे किसी क़ानून का अस्तित्व ही न हो! अब सुप्रीम कोर्ट के सामने फ़रियाद की गई है, लेकिन इस बात पर संदेह है कि वहां बैठे हुए जज मुस्लिमों के जीवन पर बन आई आपातकालीन स्थिति के तक़ाज़े को समझ पाएं.
इसीलिए मुझे लगता है कि मुस्लिमों को मिलकर एक आवाज़ में घोषणा करनी होगी कि वे दूसरों को उनके भाग्य का फ़ैसला करने का अधिकार अब और नहीं देने वाले.
उन्हें ऐलान करना होगा कि वे राजस्थान के पहलू ख़ान और अब्दुल गफ़्फ़ार क़ुरैशी, जम्मू के ज़ाहिद ख़ान, झारखंड के मज़लूम अंसारी और इम्तियाज़ ख़ान, उत्तर प्रदेश के मोहम्मद अख़लाक़ और हरियाणा के मुस्तैन अब्बास जैसी मौत मारे जाने से इनकार करते हैं.
मुस्लिमों के पास कोई और चारा नहीं बचा है क्योंकि उनके ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा ने ऐसे किसी सामूहिक सामाजिक या राजनीतिक आलोचना को जन्म नहीं दिया है, जिसकी उम्मीद हम एक क़ानून से शासित होने वाले समाज से कर सकते हैं.
भारत के किसी भी राजनीतिक दल के पास, उन राजनीतिक दलों के पास भी जो धर्मनिरपेक्षता की क़समें खाते हैं, आज इतना साहस नहीं कि वे हत्यारों को उनके नामों से पुकार सकें या यह कह सकें कि मुस्लिमों की हत्या सिर्फ़ उनके मुस्लिम होने के कारण की जा रही है.
रात को होने वाली बहसों में राजनीतिज्ञ और अफ़सोसजनक ढंग से मीडिया का एक तबका भी चोर रास्ते खोज रहा है.
यह कहा जा रहा है कि बेक़ाबू भीड़ बिना किसी पूर्वयोजना के ‘स्वतःस्फूर्त ढंग से’ मुस्लिमों पर हमले कर रही है, या कहा जा रहा है कि हिंसा ग़लतफ़हमी का नतीजा थी, या यह कहा जा रहा है कि यह हिंसा न्यायोचित ऐतिहासिक ग़ुस्से की अभिव्यक्ति थी, जिसने एक दुर्भाग्यपूर्ण मोड़ ले लिया.
लेकिन किसी राजनीतिक दल के पास आज यह कहने की क़ुव्वत नहीं है कि ये हत्याएं या हमले स्वतःस्फूर्त नहीं हैं. उनमें यह कहने की ताक़त नहीं कि इस हत्यारी भीड़ के निर्माण के पीछे एक सुनियोजित, मानवद्वेषी नफ़रत फैलाने वाले अभियान का हाथ है.
कोई यह नहीं पूछ रहा कि आख़िर यह कैसे मुमकिन है कि भारत की भाषायी और सांस्कृतिक विविधताओं के परे हर जगह मुस्लिमों को ही चुन कर हमले का निशाना बनाया जा रहा है.
हमारे समय का कटुसत्य यह है कि भारत के क़ानून निर्माताओं और सांसदों ने देश के मुस्लिमों को बीच मझधार में अकेला छोड़ दिया है.
सच यह है कि मुस्लिमों की हत्या और उन पर किये जा रहे अत्याचारों के बावजूद हमारे क़ानून निर्माताओं के रोज़ाना के कामकाज बिना किसी व्यवधान के चल रहे हैं.
भारत के लोकतंत्र में मुस्लिमों ने अपना काफ़ी कुछ लगाया है. जब वे कहते हैं कि उन्हें संसाधनों, सुरक्षा, प्रतिनिधित्व या न्याय से सिर्फ़ उनके धर्म के कारण महरूम रखा जा रहा है, तो उन पर सांप्रदायिक या अलगाववादी भाषा बोलने का आरोप लगाया जाता है.
जबकि ऐसा करते हुए वे एक आम भारतीय की तरह ही बोल रहे होते हैं, न कि सिर्फ़ मुस्लिम की तरह.
भारत में मुस्लिम एकमात्र समुदाय हैं, जिन्हें अपनी संतान के जन्म पर अपमान सहना पड़ता है क्योंकि उस नवजात को देश की संस्कृति और यहां तक कि सुरक्षा के लिए भी एक संभावित ख़तरे के तौर पर देखा जाता है.
हर जनगणना के बाद अच्छी भावना रखने वाले विश्लेषक और जनसंख्याविद भी हिंदुओं को यह यक़ीन दिलाते हुए देखे जाते हैं कि आबादी में मुस्लिम उनसे आगे नहीं निकलने वाले.
यह कैसा देश है जिसमें मुस्लिम शिशु के जन्म पर जश्न नहीं मनाया जाता, बल्कि उसे हमेशा शक़ की निगाहों से देखा जाता है? वह दिन दूर नहीं जब मीडिया और उसे चलाने वाले मुस्लिमों पर हो रही हिंसा में दिलचस्पी लेना बंद कर देंगे.
चूंकि इन दिनों भारत के मुस्लिम नागरिकों को लगातार भीड़ की हिंसा का शिकार होने की आदत पड़ती जा रही है, इसलिए बहुत मुमकिन है कि मीडिया के संपादक और मालिक यह कहना शुरू कर दें कि एक ही तरह की मृत्यु की बार-बार रिपोर्टिंग करना बेहद उबाऊ है.
इसलिए मुस्लिमों को यह कहना होगा कि वे यहां किसी की दया पर नहीं हैं, बल्कि वे यहां इसलिए हैं कि भारत उनका मादरे-वतन है. उसी तरह जिस तरह हिंदुओं, इसाइयों, सिखों, बौद्धों या जैनियों और दूसरों का है.
उन्हें यह घोषणा करनी होगी कि किसी को, किसी राज्य को भी, यह कहने का अधिकार नहीं है कि वे क्या खाएं, किस तरह इबादत करें. किसी को भी उनका अपमान करने और उन्हें नीचा दिखाने का अधिकार नहीं है.
उन्हें यह कहना होगा कि संविधान के द्वारा उनसे जीवन को मानवीय और गरिमापूर्ण बनाने वाले सारे अधिकार देने का वादा किया गया था और इस वादे से मुकरना एक अपराध है.
मुस्लिमों को हिंदुओं से- धर्मपरायण साधारण हिंदुओं से, और राजनेताओं से, जो यह कहते हैं कि हिंदू अल्पसंख्यकों के सहृदय बड़े भाई की तरह हैं, यह कहना होगा कि जब एक या दूसरे बहाने से उन पर हमले होते हैं, तब वे उनसे मदद की, साथ खड़े होने की उम्मीद करते हैं न कि मुंह फेर लेने की.
मुस्लिमों को यह कहना होगा कि वे यहां हैं और यहीं रहेंगे. उन्हें यह कहना होगा कि किसी को भी उन्हें इस देश को छोड़ कर जाने के लिए कहने का हक़ नहीं है.
उन्हें यह कहना होगा कि वे यहां अपने मुस्लिमपन के साथ वैसे ही रहेंगे जैसे हिंदू अपने हिंदूपन के साथ रहते हैं और जिन्हें लगता है कि उनकी जीवन पद्धति ही एकमात्र भारतीय जीवन पद्धति है.
उन्हें यह कहना होगा कि वे इस बात से कतई शर्मिंदा नहीं हैं कि उनका मुक़द्दस स्थान इस धरती पर नहीं है. उन्हें यह सब करना होगा, लेकिन उन्हें शुरुआत इस घोषणा से करनी होगी कि वे अपनी हत्या होने देने से इनकार करते हैं.
वे संसद और न्यायपालिका से कहें कि सुनो, हमारे इस संकल्प को दर्ज करो.
(अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)
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