राजस्थान में राजे से राजपूतों की नाराज़गी का खामियाज़ा भाजपा को भुगतना पड़ सकता है

विशेष रिपोर्ट: वसुंधरा राजे के कारण राजपूत राजस्थान चुनाव में भाजपा का चुनावी खेल उसी तरह बिगाड़ सकते हैं, जैसे 2013 में जाटों की अशोक गहलोत के ख़िलाफ़ नाराज़गी ने कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया था.

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Barmer: Women take selfie with Rajasthan Chief Minister Vasundhara Raje during 'Rajasthan Gaurav Yatra' at Baytu, near Barmer on Sunday, Sept 2, 2018. (PTI Photo) (PTI9_2_2018_000122B)
Barmer: Women take selfie with Rajasthan Chief Minister Vasundhara Raje during 'Rajasthan Gaurav Yatra' at Baytu, near Barmer on Sunday, Sept 2, 2018. (PTI Photo) (PTI9_2_2018_000122B)

विशेष रिपोर्ट: वसुंधरा राजे के कारण राजपूत राजस्थान चुनाव में भाजपा का चुनावी खेल उसी तरह बिगाड़ सकते हैं, जैसे 2013 में जाटों की अशोक गहलोत के ख़िलाफ़ नाराज़गी ने कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया था.

Barmer: Women take selfie with Rajasthan Chief Minister Vasundhara Raje during 'Rajasthan Gaurav Yatra' at Baytu, near Barmer on Sunday, Sept 2, 2018. (PTI Photo) (PTI9_2_2018_000122B)
एक चुनावी रैली के दौरान मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे (फोटो: पीटीआई)

जयपुर: आगामी विधानसभा चुनाव में राजपूत करणी सेना समेत विभिन्न राजपूत संगठनों ने भाजपा और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की चिंता बढ़ा दी है. हाल ही में राजपूत करणी सेना के प्रधान संरक्षक लोकेंद्र सिंह कलवी ने झालरापाटन से कांग्रेस उम्मीदवार मानवेंद्र सिंह को समर्थन का ऐलान किया है.

झालरापाटन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का विधानसभा क्षेत्र है. राजे के साथ मतभेद के कारण भाजपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल होनेवाले मानवेंद्र उनके खिलाफ खड़े हैं, जिसने इसे राजस्थान विधानसभा चुनाव का सबसे दिलचस्प मुकाबले में तब्दील कर दिया है.

राजस्थान के मुख्यमंत्री के तौर पर राजे का दूसरा कार्यकाल राजपूतों के साथ कई संघर्षों से भरा रहा है, जिसका कुरुक्षेत्र मुख्यतौर पर पश्चिमी राजस्थान रहा, जहां आज भी राजपूतों का दबदबा है. इसलिए इस समुदाय के लिए झालरपाटन में राजपूती सम्मान दांव पर है.

शुद्ध संख्या के लिहाज से, राजपूत राज्य की जनसंख्या का 8-10 प्रतिशत हैं, लेकिन अपने क्षेत्र में वे दूसरे समुदायों के मतदान व्यवहार पर अच्छा-खासा प्रभाव डालते हैं.

मानवेंद्र ने द वायर  को बताया, ‘एक प्रत्यक्ष गुस्सा है और इसकी जड़ 2014 के चुनावों में है और चूंकि उसके बाद कई घटनाएं हुई हैं, जिन्होंने इस गुस्से को साथ ही साथ इसके दायरे को बढ़ाने का काम किया है. इसलिए जिस भावना का जन्म पश्चिमी राजस्थान में हुआ, उसकी अनुगूंज राज्यभर में सुनाई दे रही है.’

वास्तव में राजपूत संगठन इस हद तक आ गए हैं कि उन्होंने इसे राजपूत बनाम गैर राजपूत की लड़ाई करार दिया है.

करणी सेना के नेता लोकेंद्र सिंह कलवी ने कहा, ‘निश्चित तौर पर ऐसा है. 1998 में जयभान सिंह पवैया ने ग्वालियर में सिर्फ इसी मुद्दे पर माधवराव सिंधिया को चुनौती दी थी और सिंधिया किसी तरह से वह चुनाव जीत पाए थे. उसके बाद से सिंधिया परिवार ने ग्वालियर से चुनाव नहीं लड़ा है. झालरापाटन में भी, मुद्दा असली राजूपत बनाम गैर-राजपूत का है और राजे को इस बार वहां धूल चाटनी पड़ेगी.’

राजे के खिलाफ राजपूतों की नाराजगी का बीज 2014 के संसदीय चुनाव में बोया गया था, जब मानवेंद्र के पिता, जसवंत सिंह- भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता- को उनके गृह जिले बाड़मेर से टिकट देने से इनकार कर दिया गया था.

उस समय टिकट जाट नेता सोनाराम चौधरी को मिला, जो कांग्रेस से भाजपा में आए थे. जसवंत सिंह ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और चुनाव हार गए.

दो मुठभेड़

दो साल बाद, जून, 2016 में कुख्यात अपराधी चतुर सिंह के जैसलमेर में कथित तौर पर फर्जी एनकाउंटर ने राजपूतों को सरकार के खिलाफ सड़क पर ला दिया- वे इस मामले की सीबीआई जांच की मांग कर रहे थे. विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व करनेवालों में जैसलमेर से भाजपा के विधियक छोटू सिंह भी शामिल थे.

लेकिन, वह एनकाउंटर जिसने वास्तव में इस समुदाय को राजे के खिलाफ खड़ा कर दिया, एक साल बाद होना था.

जून, 2017 को पुलिस द्वारा मारा गया गैंगस्टर आनंद पाल सिंह एक राजपूत नहीं था. सिंह का समुदाय, रावण राजपूत, सांस्कृतिक तौर पर राजपूतों से मिलता-जुलता है, लेकिन ऐतिहासिक तौर पर उन्हें जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा है.

आनंद पाल सिंह की मृत्यु के खिलाफ कई दिनों तक चलनेवाले विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करणी सेना जैसे राजपूत संगठनों द्वारा किया गया. लेकिन इस मसले ने विपक्षी कांग्रेस और भाजपा के बागी विधायक घनश्याम तिवाड़ी जैसे उन तमाम लोगों को एक साथ लाने का काम किया, जिनके मन में राजे के प्रति खुन्नस थी.

इस मुद्दे पर राजपूतों की लामबंदी- सड़कों पर साथ ही साथ सोशल मीडिया में- कितनी बड़ी थी इसका अंदाजा इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि मध्य प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने इस मामले में राजे को कठघरे में खड़ा कर दिया और इस मामले में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के हस्तक्षेप की मांग की.

जिस समय तक राजे समुदाय द्वारा की जा रही सीबीआई जांच की मांग पर तैयार हुईं, तब तक यह संभावना मजबूत धारणा में बदल चुकी थी कि विधानसभा चुनावों में उन्हें समुदाय के कोप का सामना करना पड़ेगा.

राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को झालरापाटन सीट से कांग्रेस की ओर से भाजपा नेता जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह विधानसभा चुनाव में चुनौती देंगे. (फोटो: पीटीआई)
राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को झालरापाटन सीट से कांग्रेस की ओर से भाजपा नेता जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह विधानसभा चुनाव में चुनौती देंगे. (फोटो: पीटीआई)

दूसरा अपमान

आनंद पाल की मृत्यु से एक साल पहले हुई एक और घटना पहले ही राजे को राजपूतों के साथ संघर्ष के रास्ते पर ले आई थी.

सितंबर, 2016 में जयपुर विकास प्राधिकरण ने जयपुर के पूर्व शाही परिवार के स्वामित्व वाले भव्य राजमहल पैलेस होटल के फाटक को सील कर दिया.

इस घटना से राजस्थान के सियासी गलियारों में कई लोगों की भौंहें तन गईं, खासतौर पर इसलिए कि होटल का स्वामित्व रखनेवाले परिवार की सदस्य राजकुमारी दीया कुमारी उस समय भाजपा की विधायक थीं.

परिवार ने जयपुर विकास प्राधिकरण के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की धमकी थी और इस घटना ने विवाद का रूप ले लिया. एक विरल घटना में, जयपुर की पूर्व राजमाता पद्मिनी देवी ने करणी सेना समेत कई राजपूत समूहों के साथ एक सार्वजनिक विरोध मार्च का नेतृत्व किया.

अब विधानसभा चुनाव में राजकुमारी दीया को टिकट न देने को उस प्रकरण के अंजाम के तौर पर देखा जा रहा है, हालांकि खुद दीया ने यह स्पष्टीकरण दिया है कि वे चुनाव नहीं लड़ना चाहती थीं.

गजेंद्र सिंह शेखावत

पिछले साल फरवरी में लोकसभा और विधानसभा के उपचुनाव में पार्टी को मिली शिकस्त के बाद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी के इस्तीफे के साथ समुदाय और राजे के बीच लड़ाई का एक और मसला निकल आया.

परनामी के उत्तराधिकारी के तौर पर जिन नामों की चर्चा हो रही थी, उनमें जोधपुर के सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत का दावा सबसे मजबूत था. पार्टी स्रोतों का कहना है कि उनके पास पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का समर्थन था.

लेकिन आखिरकार यह पद मदनलाल सैनी के पास, जो अपेक्षाकृत अनजान चेहरे थे. कहा गया कि यह राजे के कहने पर हुआ है. रिपोर्टों में कहा गया कि मुख्यमंत्री ने शेखावत की उम्मीदवारी का विरोध किया था. इसने राजपूत समुदाय को भाजपा से और दूर लेकर जाने का काम किया.

कलवी ने कहा, ‘अमित शाह ने काफी साफ तौर पर कहा था कि वे सरकार के किसी ऐसे युवा सदस्य को राज्य अध्यक्ष बनाना चाहते हैं, जो सीमावर्ती जिलों में काम कर रहा हो. इस योग्यता को सिर्फ शेखावत पूरी करते थे. लेकिन राजे ने इसका विरोध किया. यह बात हर किसी को मालूम है.’

हालांकि,, समुदाय में ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें लगता है कि राजपूत अब राजे या भाजपा के खिलाफ नहीं हैं.

राजपूत नेता और राजे मंत्रिमंडल के एक महत्पूर्ण सदस्य नेता गजेंद्र सिंह खिमसर का कहना हैं, ‘दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से एक-एक के बाद ऐसी व्यक्तिगत घटनाएं सिलसिलेवार ढंग से हुईं, जिनसे राजे के राजपूत विरोधी होने की धारणा बनी. यह बाड़मेर में जसवंत सिंह जी के प्रकरण से शुरू हुआ. पार्टी जाट उम्मीदवार को इसलिए खड़ा करना चाहती थी, क्योंकि परिसीमन ने भौगोलिक स्थिति को बदल दिया था.’

उनका कहना है कि अब वह धारणा पूरी तरह से बदल गई है.

खिमसर कहते हैं, ‘क्यों? क्योंकि भाजपा ने चुनाव में 28 राजपूत उम्मीदवारों को उतारा है, जबकि कांग्रेस ने सिर्फ 13 राजपूतों को टिकट दिया है. स्थिति पलट गई है. अब समुदाय की धारणा में आमूलचूल बदलाव आया है और उनका यह विश्वास है कि भाजपा वास्तव में राजपूतों की पार्टी है. मानवेंद्र सिंह को कांग्रेस द्वारा बलि का बकरा बनाया जा रहा है और वे बुरी तरह से हारेंगे.’

राजस्थान में चुनावों पर निगाह रखनेवाले हालांकि सवाल पूछ रहे हैं कि क्या राजे के कारण राजपूत भाजपा का चुनावी खेल उसी तरह से बिगाड़ सकते हैं जैसे जाटों ने 2013 में अशोक गहलोत के खिलाफ गुस्से के कारण कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया था.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)