कैसे अखिलेश यादव ने आज्ञाकारी बेटे और आधे सीएम से समाजवादी पार्टी के सबसे शक्तिशाली नेता बनने का सफर तय किया.
बीते अक्टूबर महीने में लखनऊ में समाजवादी पार्टी के सभी विधानसभा सदस्यों, विधान परिषद सदस्यों, पूर्व सांसदों, पूर्व विधायकों, पूर्व विधान परिषद सदस्य और प्रत्याशियों की संयुक्त बैठक में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एक बहुत ही भावुक भाषण दिया था. इस भाषण के जरिये उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की थी कि वह अपने पिता की बात कितना मानते हैं.
भाषण में उन्होंने बताया कि नेताजी ने कहा कि इन्हें मंत्री पद से हटा दो, हमने हटा दिया. नेताजी ने कहा इन्हें फिर से मंत्री बना दो हमने बना दिया. नेताजी ने कहा इन्हें मुख्य सचिव पद से हटा दो, हमने हटा दिया. लेकिन नेताजी इसके बावजूद हमसे नाराज रहे.
सियासी माहौल में पूरे चार साल यह चर्चा रही कि उत्तर प्रदेश में साढ़े चार मुख्यमंत्री काम कर रहे हैं. कहा जाता था कि मुलायम, शिवपाल, रामगोपाल और आज़म खान प्रदेश के चार मुख्यमंत्री हैं. अखिलेश सिर्फ आधे मुख्यमंत्री की भूमिका में हैं.
मगर उसी लखनऊ में इस साल 15 जनवरी को मुलायम सिंह ने पार्टी कार्यकर्ताओं से बातचीत में कहा, ‘अखिलेश मेरी बात नहीं सुन रहे हैं. कई बार बुलाया मगर वो आए नहीं.’
आखिर 2012 में मात्र 38 साल की उम्र में प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने वाले अखिलेश के व्यक्तित्व और राजनीति में 2017 विधानसभा चुनाव के पहले इतना बड़ा परिवर्तन कैसे आ गया?
कैसे छह महीने पहले हर छोटे—बड़े फैसले के लिए पिता और चाचा के आदेश का इंतजार करने वाले अखिलेश ने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाकर पिता को राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से हटा दिया. और खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष बन बैठे. इसके अलावा चाचा शिवपाल को भी उन्होंने पद से हटा दिया. मीडिया समेत सियासी हलकों में इस बात की चर्चा होने लगी कि कैसे एक आज्ञाकारी बेटा औरंगजेब में तब्दील हो गया.
यही नहीं पिता के विरोध के बावजूद भी अखिलेश ने कांग्रेस पार्टी से गठबंधन का फैसला अपने दम पर कर लिया.
कहावत है कि राजनीति में फैसले आपकी ताकत दिखाते हैं . अक्टूबर के बाद से अखिलेश ने जिस तरह के फैसले लिए उनसे उनकी छवि पूरी तरह से बदल गई है. जानकार बताते हैं कि इसके पहले अखिलेश देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री तो बन गए थे पर लगते नहीं थे.
अपनी पार्टी और प्रशासन में जो उनका प्रभाव होना चाहिए था वह नहीं दिखाई पड़ा. कई मौकों पर वह रबर स्टैंप मुख्यमंत्री नजर आए. कई बार पिता मुलायम सिंह यादव समेत पार्टी के अन्य छोटे—बड़े सदस्य अखिलेश के बारे में जब भी बात करते थे तो ऐसा भाव आता कि वह मुख्यमंत्री पद के लायक नहीं है लेकिन सिर्फ नेताजी का पुत्र होने के चलते उन्हें कुर्सी मिल गई है. अखिलेश भी पिछले साढ़े चार साल के कार्यकाल में अपने राजनीतिक व्यवहार से इस बात को सच ठहराते हुए दिखाई दिए.
हालांकि अक्टूबर के बाद से हालात बदल गए. वे पार्टी के सर्वेसर्वा बन गए हैं.
आखिर अखिलेश में इतना साहस कहां से आया? उन्हें इसकी ताकत कहां से मिली? कमोबेश चुप रहने वाला और पिता का हर आदेश मानने वाला कथित आज्ञाकारी बेटा बगावत क्यों कर बैठा?
पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘दरअसल शिवपाल यादव, अमर सिंह, मुलायम सिंह यादव की पत्नी और कुछ अन्य लोगों का एक समूह था जो मुलायम सिंह यानी नेताजी पर हावी रहता था. इस समूह ने ऐसा माहौल बनाया कि अखिलेश को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया जाए. अखिलेश ने भी चार साल मुख्यमंत्री के रूप में कोई काम नहीं किया. फैसले बाकी सारे लोग लेते रहे और अखिलेश बस मुख्यमंत्री बने रहे.’
वे आगे कहते हैं, ‘लेकिन जब अखिलेश को ऐसा लगा कि वे हटा दिए जाएंगे तब उन्होंने फैसले लेने शुरू किए. यह अखिलेश में अचानक हुआ बदलाव नहीं है. जब उन्हें अपने अस्तित्व पर संकट नजर आया तो उन्होंने विद्रोह करना शुरू कर दिया.’
फिलहाल जब अखिलेश ने विद्रोह किया तो बाकी सारे दिग्गज धराशायी होते गए. उन्हें सबसे ज्यादा ताकत तब मिली जब चुनाव आयोग में उनके धड़े को जीत मिल गई. परिवार समेत पार्टी में छिड़ी इस लड़ाई में एक तरफ अखिलेश, रामगोपाल तो दूसरी तरफ मुलायम, शिवपाल और अमर सिंह जैसे नेता थे. इस जीत ने उनकी छवि को बदल दिया.
जानकारों का कहना है कि अखिलेश को इससे पहले राजनीति में सब कुछ तश्तरी में सजा कर मिला था. ‘अखिलेश यादव : बदलाव की लहर’ किताब में सुनीता एरोन लिखती हैं, ‘अखिलेश शादी के बाद देहरादून के एक शॉपिंग कॉम्पलेक्स में घूम रहे थे जब नेताजी मतलब मुलायम सिंह यादव ने साल 2000 के आम चुनाव में कन्नौज से चुनाव लड़ने के लिए कहा.’
किताब में आगे बताया गया है कि कैसे मुलायम सिंह यादव ने कन्नौज से अखिलेश को जिताने के लिए जी-तोड़ मेहनत की थी.
सुनीता एरोन लिखती हैं, ‘अखिलेश ये बात खुले दिल से स्वीकार करते हैं कि वे राजनीति के शुरुआती दिनों में प्रभावशाली वक्ता नहीं थे. वे अधिक से अधिक तीन लाइन बोल पाते थे. इससे ज्यादा नहीं.’
फोटो पत्रकार मनमोहन शर्मा अखिलेश के बचपन को याद करते हुए बताते हैं, ‘1994 में वह मुलायम सिंह यादव से मिलने उनके आवास पहुंचे थे जहां वह पहली बार अखिलेश से मिले. उस दौरान भी अखिलेश बहुत शर्मीले थे और पिताजी को बाकी सबकी तरह ‘नेताजी’ बोला करते थे. अखिलेश-मुलायम का रिश्ता पिता-पुत्र के बजाय बहुत औपचारिक था.’
शरत प्रधान कहते हैं, ‘अखिलेश पहले किसी भी काम में आगे बढ़कर हिस्सा नहीं लेते थे. इसका कारण भी यह था कि इनके पिताजी, चाचा जी हर चीज आगे बढ़कर खुद किया करते थे.’
अपनी एक मुलाकात का जिक्र करते हुए प्रधान बताते हैं, ‘एक बार मैंने अखिलेश से कहा भी कि अपने आपको नेता भी बनाओ, मुख्यमंत्री तो आप बन गए हो नेता नहीं बन पाए. आप सुपर कमांड हो, ये दिखना भी चाहिए. तो उनका जवाब था कि मैं नेताजी के खिलाफ बगावत थोड़े ही कर सकता हूं. मैंने कहा अरे बगावत नहीं, पिताजी को समझाओ आप कि आपने तो राजनीतिक जीवन जी लिया. अब मुझे भी जी लेने दो. तो उनका जवाब था कि आप ही समझा दो. अखिलेश का कहना था कि हमारे और नेताजी के बीच का संबंध ऐसा नहीं है जैसा आप लोग समझते हैं. हम कभी राजनीतिक बातें नहीं करते हैं. नेताजी हमसे कहते हैं कि आप ये काम कर दीजिए और हम कर देते हैं.’
हालांकि सन 2012 के अखिलेश और 2017 के अखिलेश में बड़ा बदलाव आ चुका है. ठीक से अपनी बात न रख पाने वाले अखिलेश ने प्रदेश की जनता से संवाद करना शुरू कर दिया है. इसके अलावा वह यह भी दावा कर रहे हैं कि उनका काम बोलता है. ‘काम बोलता है’ उनके चुनाव प्रचार की टैगलाइन है.
समाजवादी पार्टी में पिछले कुछ महीनों से चल रही कलह से निपटकर अखिलेश एक लड़ाई जीत चुके हैं. मनमोहन शर्मा इस पूरी लड़ाई के दौरान अखिलेश की भूमिका को विनम्र बागी की तरह देखते हैं.
मनमोहन कहते हैं, ‘अखिलेश पुत्र और भतीजा होने के साथ-साथ प्रदेश के मुख्यमंत्री भी हैं. उन्होंने अपने इसी कर्तव्य का निर्वाह किया है. जब तक वह अनुभवहीन थे तब तक उन्होंने अपने पिता और चाचा की सारी बातें मानीं लेकिन जब उनके अंदर समझदारी आई और उन्हें लगा कि पिता-चाचा की बात मानने से उनकी छवि खराब हो रही है तो उन्होंने मानना बंद कर दिया. हालांकि इस दौरान उन्होंने पिता और चाचा के खिलाफ कुछ नहीं बोला है और न ही किसी को बोलने दिया है. साथ में उन्होंने प्रदेश की जनता को किया गया वादा भी पूरा करने की कोशिश की.’
हालांकि अगर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल देखा जाए तो वह खुद को बेहतर मुख्यमंत्री साबित करने में नाकाम रहे हैं. प्रदेश में इस दौरान कानून-व्यवस्था को लेकर लगातार हंगामा होता रहा लेकिन चुनाव से ठीक पहले उन्होंने अपनी छवि विकास करने वाले एक नेता के रूप में बनाने की कोशिश की है.
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी बताते हैं, ‘समाजवादी पार्टी में मचे इस घमासान ने अखिलेश की छवि को और मजबूत किया है. आज की स्थिति यह हो गई है कि लोग मान रहे हैं कि 2012 के बाद से कानून-व्यवस्था समेत सरकार की जो दूसरी ख़ामियां थीं उसके लिए शिवपाल समेत दूसरे नेता जिम्मेदार थे और अखिलेश प्रदेश को विकास के पथ पर ले जाना चाहते थे. हालांकि उनकी यह छवि चुनाव में उनके लिए कितनी कारगर होगी यह देखने वाली बात होगी.’
वैसे जानकारों का एक तबका मानता है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव विकास के मुद्दे पर नहीं होता. हर राजनीतिक दल अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत विकास के दावे के साथ करता है लेकिन अंतिम नतीजा जाति और मजहब की गोलबंदी से तय होता है. अब अखिलेश की आगे की राह क्या होगी?
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘अखिलेश पहली लड़ाई जीत चुके हैं. यह उनकी बड़ी सफलता है लेकिन यह सिर्फ सैद्धांतिक थी. असली चुनौती उनके सामने चुनाव की है. अखिलेश के सितारे इन दिनों बुलंदी पर हैं. उनका हर दांव सटीक पड़ रहा है. मुख्यमंत्री के रूप में युवाओं को जोड़ने की उनकी शैली और कांग्रेस के साथ गठबंधन ने उन्हें फिर से लड़ाई में ला दिया है.’
कांग्रेस के साथ गठबंधन के बाद विश्लेषक अखिलेश में मुलायम की छवि देख रहे हैं. उनका कहना है कि मुलायम अपनी ताकत को पहचानने में माहिर रहे हैं. कांग्रेस के साथ गठबंधन करके अखिलेश ने साबित किया कि उन्होंने अपने पिता से राजनीति का यह दांव अब सीख लिया है.
वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी कहते हैं, ‘इस गठबंधन को हम अखिलेश का मास्टर स्ट्रोक कह सकते हैं. इस गठबंधन के बाद प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं के सामने विकल्प चुनने की आसानी हो गई. यह ऐसा वोट बैंक था जिस पर भाजपा छोड़कर बाकी सबकी निगाहें थीं.’
हालांकि प्रधान कहते हैं कि अखिलेश ने पिता से सिर्फ राजनीतिक दांव-पेंच ही नहीं एक बुरी आदत भी सीखी है. मुलायम की तरह अखिलेश के इर्द-गिर्द चाटुकारों की एक फौज रहती है. लंबे रेस का घोड़ा बनने के लिए अखिलेश को इनसे थोड़ी दूरी बरतनी होगी.