मणिपुर और जम्मू कश्मीर में सशस्त्र कार्रवाई में शामिल सैनिकों के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज किए जाने को चुनौती देते हुए 300 से अधिक सैन्यकर्मियों ने शीर्ष अदालत में याचिका दायर की थी.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को मणिपुर और जम्मू कश्मीर में सशस्त्र कार्रवाई में शामिल सैनिकों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज किये जाने को चुनौती देने वाली 300 से अधिक सैन्यकर्मियों की याचिका खारिज कर दी. इन राज्यों में सशस्त्र बल विशेष अधिकार (आफ्सपा) कानून लागू है.
इस मामले में केंद्र की दलील थी कि इसका इन राज्यों में आतंकवाद से मुकाबला कर रहे सैनिकों पर ‘हतोत्साहित करने वाला प्रभाव’ होगा.
शीर्ष अदालत ने केंद्र की इस संबंध में की अपील को दरकिनार कर दिया. केंद्र ने कहा कि इस विषय पर चर्चा की जानी चाहिए ताकि एक ऐसी व्यवस्था बनायी जाये जिसमे आतंकवाद का मुकाबला करते हुये हमारे सैनिक कांपे नहीं.
सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून अशांत इलाकों में विभिन्न अभियानों के लिये सुरक्षा बलों को विशेष अधिकार और छूट प्रदान करता है.
मालूम हो कि सेना के 356 सेवारत जवानों ने ‘उत्पीड़न और मुकदमा चलाने’ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. यह कदम सुप्रीम कोर्ट के उस निर्देश के बाद उठाया गया, जिसमें उसने सीबीआई की एसआईटी को मणिपुर में गैर-न्यायिक हत्याओं में शामिल होने के आरोपी सेना के जवानों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए कहा था.
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में हो रही सुनवाई में केंद्र सरकार ने कहा कि सशस्त्र बल गड़बड़ी वाले इलाकों में एकदम अलग किस्म के माहौल में अभियान चलाते हैं और इसलिये संतुलन बनाने की आवश्यकता है, जिस पर शीर्ष अदालत ने कहा कि आंतरिक व्यवस्था बनाना न्यायालय का नहीं सरकार का काम है ताकि इस तरह से यदि किसी की जान जाती है तो उसके मामले में उसे देखना चाहिए.
जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस उदय यू ललित की पीठ ने सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता से कहा, ‘इस तरह की व्यवस्था तैयार करने से आपको किसने रोका है? आपको हमारे हस्तक्षेप की आवश्यकता क्यों है? ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर आपको ही चर्चा करनी होगी, न्यायालय को नहीं.’
पीठ ने टिप्पणी की, ‘जब जीवन की हानि हो, भले ही मुठभेड़ में, तो क्या मानवीय जीवन में यह अपेक्षा नहीं की जाती कि इसकी जांच होनी चाहिए.’
शीर्ष अदालत ने जैसे ही कहा कि वह याचिका खारिज कर रही है, सॉलिसीटर जनरल ने कहा कि उन्हें सुना जाना चाहिए क्योंकि केंद्र चाहता है कि इस मुद्दे पर बहस हो.
मेहता ने कहा, ‘ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है जिसमे आतंकवाद से संघर्ष के दौरान हमारे जवानों के हाथ नहीं कांपे. उन्होंने कहा कि मानव जीवन मूल्यवान होता है और इसे लेकर कोई विवाद नहीं हो सकता.’
उन्होंने कहा, ‘यह तथ्य कि हमारे देश के तीन सौ से अधिक सैनिकों का इसके लिये अनुरोध करना अपने आप में ही दुर्भाग्यपूर्ण है. इसका हतोत्साहित करने वाला असर होगा. देश यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि हमारे जवान हतोत्साहित हों. कृपया बहस को मत रोकिये.’
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पीठ ने उन्हें ध्यान दिलाया कि न्यायालय ने इन सैन्यकर्मियों की याचिका पर केंद्र को अभी तक नोटिस जारी नहीं किया है.
सॉलिसीटर जनरल ने जब यह कहा कि इस मामले में शीर्ष अदालत के समक्ष बहस की जरूरत है तो पीठ ने कहा, ‘इसका न्यायालय से सरोकार नहीं है. आप अपनी बहस कर सकते हैं. आपको इसका (समाधान) खोजना होगा, हमे नहीं.’
इस पर पीठ ने मणिपुर मुठभेड़ के कुछ मामलों की सीबीआई जांच का हवाला दिया और कहा कि यदि केंद्रीय एजेंसी को पता चलता है कि किसी ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया है तो इसकी जांच की जानी चाहिए.
न्यायालय ने कहा, ‘भारत सरकार ने अभी तक ऐसी कोई आंतरिक व्यवस्था तैयार क्यों नहीं की, जिसमें यदि किसी की इस तरह से जान जाती है तो उसकी जांच होनी चाहिए. हम ऐसी व्यवस्था नहीं बना सकते हैं.’
इन सैन्यकर्मियों की ओर से अधिवक्ता ऐश्वर्या भाटी ने पीठ से कहा कि इस याचिका पर मुख्य मामले के साथ सुनवाई की जानी चाहिए जो घुसपैठ से प्रभावित मणिपुर में सेना, असम राइफल्स और पुलिस द्वारा कथित न्यायेतर हत्याओं से संबंधित है.
पीठ ने भाटी से कहा कि सैन्यकर्मियों की याचिका मुख्य मुद्दे से ‘पूरी तरह अलग’ है ओर इसे लंबित मामले के साथ संलग्न नहीं किया जा सकता. भाटी ने जब आफ्सपा और सैन्य कानून के प्रावधानों का हवाला दिया तो पीठ ने टिप्पणी की, ‘पर्याप्त सुरक्षा उपाय उपलब्ध हैं.’
भाटी ने दावा किया कि मणिपुर मुठभेड़ मामले में न्यायालय के पहले के फैसले के निर्देशों में से एक 1998 के संविधान पीठ के फैसले के अनुरूप नहीं है.
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हालांकि, न्यायालय ने कहा कि मणिपुर मामले में फैसला सुनाने से पहले जब उसने दलीलें सुनी थीं तो तत्कालीन अटॉर्नी जनरल से बार-बार पूछा था कि क्या सरकार सशस्त्र बल के उन सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई करेगी जिन पर आरोप लगे हैं.
पीठ ने कहा, ‘यदि प्राधिकारी सैन्य कानून के तहत कोई कार्रवाई ही नहीं करेंगे तो आप यह नहीं कह सकते कि कोई जांच नहीं होनी चाहिए.’
पीठ ने स्पष्ट किया कि उसने सिर्फ मणिपुर मुठभेड़ मामलों में ही जांच के आदेश दिए हैं जिसमें उच्च न्यायालय, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, न्यायिक जांच और जस्टिस संतोष हेगड़े की अध्यक्षता वाली आयोग के आदेश थे.
पीठ ने कहा, ‘आज हम किसी भी पक्ष को क्लीन चिट नहीं दे रहे हैं. यदि जांच एजेंसी ने इनमें से कुछ मामलों में आरोप पत्र दाखिल किया है तो उस पर अदालत में विचार किया जायेगा.’
पीठ ने कहा कि इनमें से एक मामले में तो मणिपुर सरकार ने कथित मुठभेड़ में मारे गये एक व्यक्ति के परिवार को उच्च न्यायालय के निर्देश पर मुआवजा भी दिया है.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)