230 सीटों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा में 114 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी कांग्रेस के कई दिग्गजों को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा.
मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणामों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के नेतृत्व में 114 सीट पाने वाली कांग्रेस ने सरकार बनाने की लगभग सभी औपचारिकताएं पूरी कर ली हैं. केवल बात मुख्यमंत्री के नाम पर अटकी है कि आख़िर प्रदेश की बागडोर संभालने वाला कांग्रेसी चेहरा कौन होगा?
लेकिन इस सबके बीच कांग्रेस के लिए कुछ चुनाव परिणाम चौंकाने वाले भी सामने आए हैं. विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह चुरहट विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हार गए हैं. वहीं, कांग्रेस के एक और दिग्गज पूर्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सुरेश पचौरी भी चुनाव हार गए हैं. वे भाजपा मंत्री सुरेंद्र पटवा के सामने भोजपुर सीट से मैदान में उतरे थे.
कांग्रेस का एक और बड़ा नाम है जो चुनाव हारा है, वो है अरुण यादव. अरुण यादव पूर्व सांसद रहे हैं, केंद्र में मंत्री भी रहे हैं और कमलनाथ से पहले साढ़े चार वर्षों तक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे थे.
वे कांग्रेस के प्रदेश में सबसे बड़े ओबीसी नेता हैं. पूर्व कांग्रेसी दिग्गज सुभाष यादव के बेटे हैं. वे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने बुदनी से मैदान में थे.
इसी तरह पूर्व कांग्रेस नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे के बेटे हेमंत कटारे भी चुनाव हार गए हैं. वे अटेर सीट से मैदान में थे.
प्रदेश की राजनीति में ज्योतिरादित्य सिंधिया के दाहिने हाथ माने जाने वाले प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष रामनिवास रावत की भी चुनावों में हार हो गई है. वे विजयपुर से विधायक थे लेकिन अपनी सीट बचा नहीं पाए हैं.
नरयावली से एक अन्य प्रदेश कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष सुरेंद्र चौधरी भी हार गए हैं. सुरेंद्र चौधरी के बारे में बता दें कि प्रदेश में कांग्रेस के प्रभारी दीपक बाबरिया ने इन्हें सरकार बनने पर उप मुख्यमंत्री बनाने के बात की थी. जिस पर काफी विवाद भी हुआ था.
सुरेंद्र कांग्रेस सरकार में मंत्री भी रहे थे और वर्तमान में पार्टी के अनुसूचित जाति विभाग के अध्यक्ष हैं. उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर बुंदेलखंड की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी जहां से वे आते हैं. अर्जुन सिंह की तरह ही वे न तो अपनी सीट बचा पाए और न ही बुंदेलखंड में कांग्रेस को. भाजपा ने 32 में से 20 सीटें यहां जीती हैं.
पूर्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष और प्रदेश में कांग्रेस का आदिवासी चेहरा माने जाने वाले सांसद कांतिलाल भूरिया के बेटे विक्रांत भूरिया भी झाबुआ सीट से चुनाव हार गए. झाबुआ से उनके पिता सांसद हैं.
इस बीत एक ऐसी रोचक सीट भी है जिसके उम्मीदवार अपने बयान के कारण सुर्ख़ियों में आए थे और उनकी जीत भी सुनिश्चित मानी जा रही थी, वह है कोलारस सीट और उम्मीदवार का नाम है महेंद्र सिंह यादव.
यह सिंधिया के विश्वासपात्र हैं और यह बयान देकर सुर्ख़ियों में आए थे कि सिंधिया के मुख्यमंत्री बनने पर वे पांच दिनों के अंदर अपनी सीट उनके लिए छोड़ देंगे. लेकिन वे अपनी सीट ही नहीं बचा सके. कोलारस कांग्रेस की पारंपरिक सीट मानी जाती है.
वहीं, राऊ सीट से कांग्रेस के एक और दिग्गज प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष जीतू पटवारी भी हारते-हारते आख़िर में अपनी सीट बचा पाने में सफल रहे. कुछ ऐसा ही बाला बच्चन के साथ हुआ. महज़ 900 मतों से वे अपनी राजपुर सीट आख़िरी राउंड में बढ़त बनाकर बचा सके. वे भी प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हैं.
कांग्रेस के इन बड़े नामों के साथ ऐसी स्थिति तब निर्मित हुई है जब प्रदेश में कांग्रेस ने पिछली बार की अपेक्षा इस बार अपनी सीटों में दोगुने की बढ़ोतरी की है. पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 58 सीटें मिली थीं तो इस बार 114 सीटें मिली हैं.
इसलिए प्रश्न उठता है कि कांग्रेस जीत गई लेकिन दिग्गज क्यों हार गए?
बात करें तो अजय सिंह कांग्रेस की तरफ से चुनाव लड़ने वाले सबसे बड़े नेता थे. वे मुख्यमंत्री पद के भी एक दावेदार थे. लेकिन उनकी हार ने उनकी संभावनाएं पूरी तरह से ख़त्म कर दीं. वे 1998 से इस सीट पर जीतते आ रहे थे.
यही नहीं, वे अपने प्रभाव वाले विंध्य क्षेत्र में भी कांग्रेस को बचा नहीं पाए. पिछले चुनावों से भी बुरा प्रदर्शन करते हुए कांग्रेस यहां से 31 में से 24 सीटों पर हार गई.
अरुण यादव की हार चौंकाती नहीं है. शुरू से ही कहा जा रहा था कि कांग्रेस ने उन्हें बलि का बकरा बनाया है और ऐसा साबित भी हुआ, शिवराज ने उन्हें 59,000 मतों से हराया. हालांकि, वे टिकट खरगोन से चाहते थे लेकिन कांग्रेस ने उन्हें वहां से न उतारकर शिवराज के सामने खड़ी कर दिया.
कुछ ऐसी ही कहानी रामनिवास रावत की रही. वे विजयपुर से लगातार जीतते आ रहे थे लेकिन इस बार वे सबलगढ़ से टिकट चाहते थे. शायद उन्हें आभास था कि वे सीट बचा नहीं पाएंगे. लेकिन कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व और गुटबाज़ी के आगे उनकी चली नहीं और उन्हें विजयपुर से ही मैदान में उतरना पड़ा. लेकिन वे हार जाएंगे इसकी संभावना नहीं थी.
हेमंत कटारे अपने पुराने प्रतिद्वंद्वी भाजपा के अरविंद भदौरिया से हारे हैं. रविंद भदौरिया वही हैं जिन पर आरोप लगा था कि हेमंत कटारे को छात्रा के साथ बलात्कार के मामले में फंसाने की साज़िश उन्होंने ही रची थी.
कांग्रेस प्रवक्ता रवि सक्सेना इस पर कहते हैं, ‘हम इन सीटों पर भी जीतते. अजय सिंह इस सीट पर अजेय थे. कहीं न कहीं भाजपा ने उन्हें हराने में धांधली की है. वरना प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को इस तरह जिताया है तो उनके हारने का सवाल नहीं थी. भाजपा शुरू से ही उनको टारगेट कर रही थी और हर सर्वे में सामने आया था कि विंध्य में कांग्रेस बड़ी बढ़त बनाएगी लेकिन हुआ उल्टा कि भाजपा ने बढ़त बना ली.’
वे आगे कहते हैं, ‘भाजपा एक पैटर्न पर काम कर रही है. गुजरात में जिन क्षेत्रों में आंदोलन भड़का था, वहां वह जीत गई, बाकी जगह हार गई. इसी तरह मध्य प्रदेश में मंदसौर में किसानों पर गोली चलाई लेकिन वहां भी जीत गई, बाकी जगह हार गई. तो इनका पैटर्न ये है कि जहां भी इन्हें लगता है कि ये हार रहे हैं वे पहले से ही धांधली कर लेते हैं और जीत जाते हैं.’
सक्सेना कहते हैं, ‘अजय सिंह और विंध्य क्षेत्र में उन्होंने यही किया. अटेर में हेमंत भी मज़बूत थे, भाजपा को पता था जीतेंगे, इसलिए लंबे समय से उसके टारगेट पर थे, उनके साथ भी वही किया. इसलिए ही हम ईवीएम से चुनावों पर रोक लगाने की मांग करते हैं. हमारी 150 से अधिक सीटें आनी थीं लेकिन रह गईं 114.’
हालांकि, उनकी बात कितनी सच है इस पर बहस हो सकती है लेकिन सुरेश पचौरी की हार पर वे स्वयं स्वीकारते हैं कि ये सीट भाजपा की परंपरागत थी, पचौरी पहले भी 20-22,000 मतों से हारे थे, इस बार भी हार गए.
बहरहाल, राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर कहते हैं, ‘हार सिर्फ कांग्रेस के दिग्गजों की नहीं हुई है. भाजपा के 13 मंत्री भी हारे हैं. बात ये है कि प्रदेश की जनता ने इस बार चेहरे पर नहीं, नेता की उस तक पहुंच होने को आधार बनाकर मतदान किया है. जो जनता से कटे थे, उनका पत्ता काट दिया है.’
वे कहते हैं, ‘जब पार्टी के पक्ष में हवा नहीं होती तो ऐसा ही होता है कि बहुत से बड़े लोग चुनाव हार जाते हैं. और इसलिए जो मीडिया द्वारा स्थापित किया जाता है कि दिग्गज नेता हैं वो चुनाव में दिख जाता है. इसका मतलब निकलता है कि ये लोग मीडिया में दिग्गज नेता हैं ज़मीनी स्तर पर उतने बड़े नेता नहीं हैं.’
हार के अंतर की बात करें तो अजय सिंह 6402, सुरेश पचौरी 29,486, रामनिवास रावत 2840, सुरेंद्र चौधरी 8900, हेमंत कटारे 4969, अरुण यादव 58,999 और विक्रांत भूरिया 10437 मतों से हारे हैं.
क्या इन दिग्गजों की हार के चलते सरकार के गठन की सूरत अलग होगी? इस पर गिरिजा शंकर कहते हैं, ‘कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. मुख्यमंत्री तो कमलनाथ पहले से ही तय थे. हां, बड़े नेताओं के हारने से उल्टा फायदा है कि मंत्रिमंडल बनाना आसान होता है.’
बहरहाल, सच्चाई यह भी है कि यदि ये बड़े नाम अपने क़द के अनुसार प्रदर्शन कर जाते तो कांग्रेस अपने ही दम पर सरकार बना लेती और उसे बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और निर्दलीयों की वैशाखी का सहारा नहीं लेना पड़ता.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है.)