इन 10 सीटों में से 7 कांग्रेस ने जीतीं और 3 भाजपा ने. बहुमत से 7 सीट दूर रही भाजपा अगर इन पर जीत दर्ज कर लेती तो तस्वीर कुछ और होती.
जब से देश में ईवीएम से चुनाव कराने का दौर शुरू हुआ है, तब से किसी भी चुनाव के परिणामों की स्थिति मतगणना वाले दिन ही दोपहर या ज्यादा से ज्यादा शाम तक पूरी हो जाती है. सिर्फ विधानसभा ही नहीं, लोकसभा के चुनावों में भी (जहां 543 सीटों पर गणना होती है) ऐसा ही होता आया है.
लेकिन, मंगलवार को मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के परिणामों की स्थिति दूसरे दिन आधी रात को स्पष्ट हो पाई. मंगलवार सुबह 230 सीटों पर शुरू हुई मतगणना में मुकाबले में रहीं दोनों पार्टी भाजपा और कांग्रेस बार-बार एक-दो सीटों से एक-दूसरे पर बढ़त बनाती रहीं.
कभी कांग्रेस आगे होती तो कभी भाजपा. ऐसा बुधवार आधी रात लगभग 2 बजे तक चलता रहा कि वास्तव में प्रदेश में सबसे बड़ा दल बनकर कौन उभरेगा? अंतत: मुकाबला कांग्रेस 114 और भाजपा 109 पर बुधवार सुबह 7 बजे जाकर खत्म हुआ.
दोनों ही दल बहुमत से दूर रह गये और दोनों की हार-जीत का अंतर चाहे बात मत प्रतिशत की करें या सीटों की संख्या की, मामूली ही रहा.
सीटों की संख्या पर तो कांटे की टक्कर दिखती ही है लेकिन इससे अधिक कांटे का मुकाबला इन सीटों पर अपनी-अपनी किस्मत आजमा रहे उम्मीदवारों के बीच देखने मिला.
कुल ऐसी 10 सीटें रहीं जिन पर हार-जीत का अंतर 1,000 से भी कम रहा. इनमें भी 8 सीटों पर अंतर 800 से कम रहा है.
इन 10 सीटों में से 7 कांग्रेस ने जीतीं और 3 भाजपा ने. इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि 7 सीटें भाजपा ने 1,000 से भी कम अंतर से हारीं, अगर ये सीटें वह जीत लेती तो बहुमत से सरकार बना लेती. इसी तरह 3 सीटें कांग्रेस ने हारीं, वह भी यह सीटें जीत लेती तो अपने ही बल पर सरकार बना लेती.
यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बहुमत के लिए एक-एक सीट जुटाने के इस खेल में यह सीटें दोनों दलों की हार-जीत में निर्णायक रहीं.
इन्हीं सीटों पर आधी रात तक लुका-छिपी का खेल चला, कभी भाजपा इन पर बढ़त बनाती तो कभी कांग्रेस जिसके चलते बार-बार रुझान बदलते दिख रहे थे. जब भाजपा इन सीट पर बढ़त बनाती तो वह सरकार बनाने के करीब दिखती और जब कांग्रेस बढ़त बनाती तो वह दिखती.
हालांकि, लुकाछिपी का यह खेल तो करीब 46 सीटों पर चला. 5,000 से कम अंतर वाली 46 सीटें रहीं. जिन पर मतगणना के अगले दिन तक गणना चली. अंतर कम था इसलिए दोनों ही दलों के उम्मीदवारों ने बार-बार रीकाउंटिंग कराई. परिणाम देर से आने का एक कारण यह भी रहा.
बहरहाल, कुल 16 सीटों पर अंतर 1,300 से कम रहा, इनमें 2,000 से कम अंतर वाली सीटें जोड़ दें तो संख्या 18 हो जाती है. वहीं, मानक 3,000 से कम अंतर करें तो संख्या 30 हो जाती है. जो यह बताने के लिए पर्याप्त है कि प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के बीच कितना अधिक कांटे का मुकाबला हुआ है.
बहुमत जुटाने से महज दो सीट दूर रही कांग्रेस जिन तीन सीटों पर 1,000 या कहें कि 800 से कम मतों से हारी है, वे जौरा, बीना और कोलारस हैं. जौरा में उसे 511 मतों से हार मिली, बीना में 632 मतों से और कोलारस में 720 मतों से उसने चुनाव हारा.
भाजपा के साथ भी यही देखा गया. बहुमत से वह 7 सीटें दूर रही और 7 सीटें ही 1,000 से भी कम मतों से हारीं. ग्वालियर दक्षिण 121 मतों से, सुवासरा 350, जबलपुर उत्तर 578, राजनगर 732, दमोह 798, ब्यावरा 826 और राजपुर 932 मतों से भाजपा ने हारी. यानी इन सीटों पर कांग्रेस जीती जो अब सरकार बनाने जा रही है.
लेकिन, एक वक्त इन सातों सीटों पर वह काफी पीछे भी चल रही थी. अंत समय में उसकी झोली में ये सीटें चली गईं, वरना नजारा कुछ भी हो सकता था.
वहीं, एक वक्त रुझानों में बहुमत के आंकड़े को छूटी दिख रही भाजपा को भी यह सीटें खोने का मलाल जरूर रहा होगा. इसलिए तो इन सीटों को दोनों ही दल आसानी से हारने तैयार नहीं थे. नतीजतन रीकाउंटिंग की नौबत बार-बार आती रही.
वहीं, इंदौर-5 1,133 मतों से, चांदला 1,177 मतों से और नागौद सीट 1,234 मतों से कांग्रेस ने हारी. इस तरह कुल 6 सीटें 1300 से भी कम अंतर से कांग्रेस हारी है. जीतने पर उसकी सीटों की संख्या 120 हो सकती थी.
तो वहीं भाजपा मंधाता 1236, नेपानगर 1264 मतों से हार गई. इस तरह कुल 9 सीटें 1300 से कम मतों से हारीं. गुन्नौर सीट भी वह 1984 मतों से हारी. इन सभी सीटों पर जीतने पर उसकी भी सीटें 119/120 हो सकती थीं. तो कह सकते हैं कि मुकाबला किस कदर कांटे का था.
लेकिन, अगर इन आंकड़ों को उल्टा करके जीत से जोड़कर समझें तो पाएंगे कि 2,000 से कम अंतर से कांग्रेस ने 10 सीटें (ग्वालियर दक्षिण, सुवासरा, जबलपुर उत्तर, राजनगर, दमोह, ब्यावरा, राजपुर, मंधाता, नेपानगर और गुन्नौर) जीती हैं. मतलब कि वह चौथी बार भी सत्ता से दूर रहने से बाल-बाल बची है.
तो वहीं, भाजपा कुल 8 सीटें 2,000 से कम अंतर से जीती है. 6 उसने कांग्रेस से (जौरा, बीना, कोलारस, इंदौर-5, चंदला और नागौद) और 2 बसपा से (देवतालाब 1080 मतों से एवं ग्वालियर ग्रामीण 1517 मतों से) जीती हैं. मतलब कि भाजपा की हार और भी अधिक शर्मनाक होते-होते रह गई.
जिक्र बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का करना जरूरी हो जाता है. पिछली बार उसने 4 सीटें जीती थीं लेकिन इस बार 2 पर ही सिमट गई जो कि 2003 के बाद उसका सबसे खराब प्रदर्शन है. देवतालाब और ग्वालियर ग्रामीण सीट जीतते-जीतते वह हारी न होती तो उसकी साख पर बट्टा नहीं लगता.
बहरहाल, इन सीटों पर कई बड़े दिग्गज भी निपट गए हैं. ग्वालियर दक्षिण सीट से ऊर्जा मंत्री नारायण सिंह कुशवाह (121) हारे हैं, तो दमोह से वित्त मंत्री जयंत मलैया (798). जबलपुर उत्तर से चिकित्सा शिक्षा, लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री शरद जैन (578) की हार हुई है.
कोलारस से वे महेंद्र यादव (720) हारे हैं जो सिंधिया के मुख्यमंत्री बनने पर 5 दिन में अपनी सीट खाली करने की घोषणा कर चुके थे. वहीं, दो दिग्गज कांग्रेस के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बाला बच्चन (932) और भाजपा के पूर्व मंत्री महेंद्र हर्डिया (1133) अपनी सीट बचाने में भी कामयाब रहे हैं. बाल बच्चान राजपुर से तो हर्डिया इंदौर-5 से मैदान में थे.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)