राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल अगले महीने खत्म हो रहा है. लंबे राजनीतिक अनुभव वाले प्रणब का राष्ट्रपति के रूप में कार्यकाल कैसा रहा है?
‘भारत में संविधान से ऊपर कोई नहीं है. इस देश में संविधान को सर्वोच्च माना गया है. यह कोई राजा का आदेश नहीं है, जिसे बदला नहीं जा सकता है. राष्ट्रपति के आदेश को भी संविधान के जरिये बदला जा सकता है. हमारे संविधान की यही खूबी है कि राष्ट्रपति के निर्णय को भी चुनौती दी जा सकती है. पूर्ण शक्ति किसी को भी भ्रष्ट कर सकती है. राष्ट्रपति भी कभी-कभी ग़लत हो सकते हैं. सभी न्यायालयों के आदेशों का न्यायिक रिव्यू का अधिकार भारत के न्यायालयों में व्याप्त है.’
उत्तराखंड हाई कोर्ट ने यह टिप्पणी उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के केंद्र सरकार के फैसले पर की थी. देश के राष्ट्राध्यक्ष एवं सशस्त्र सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर पर इससे सख्त टिप्पणी शायद ही पहले कभी अदालत या किसी के द्वारा की गई हो. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल को इस टिप्पणी के लिए भी याद किया जाएगा.
जुलाई में राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी के पांच साल पूरे होने जा रहे हैं. मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक उन्हें नया कार्यकाल मिलने की उम्मीद कम ही है. राष्ट्रपति भवन छोड़ने के बाद उनके रहने की व्यवस्था भी की जा रही है. इसके लिए 10 राजाजी मार्ग पर बने बंगले को तैयार किया जा रहा है.
प्रणब मुखर्जी के करीब पांच साल के कामकाज पर विश्लेषकों का कहना है कि राष्ट्रपति के रूप में वह और बेहतर काम कर सकते थे.
उनका कहना है कि संविधान को जानने वाले, उसकी बारीकी को समझने वाले प्रणब मुखर्जी से ऐसे उम्मीद नहीं थी. इतने लंबे समय तक राजनीति में रहने और सारे दांव-पेंच से वाकिफ़ होने के बावजूद उत्तराखंड, अरुणाचल जैसे राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने या इससे पहले भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जैसे मसलों पर उन्होंने जैसा कदम उठाया उससे उनकी छवि को नुकसान ही पहुंचा. वह इन मामलों पर बेहतर फैसले ले सकते थे.
अगर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक अनुभव की बात करें तो उन्हें 1969 से पांच बार संसद के उच्च सदन (राज्य सभा) के लिए और 2004 से दो बार संसद के निम्न सदन (लोक सभा) के लिए चुना गया.
इस दौरान उन्होंने राजस्व एवं बैंकिंग राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार), वाणिज्य एवं इस्पात और खान मंत्री, वित्त मंत्री, वाणिज्य मंत्री, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री समेत विभिन्न मंत्रालयों का पदभार संभाला. वह योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे.
प्रणब 23 वर्षों तक कांग्रेस पार्टी की सर्वोच्च नीति-निर्धारक संस्था कार्य समिति के सदस्य भी रहे हैं.
2004-2012 की अवधि के दौरान उन्होंने प्रशासनिक सुधार, सूचना का अधिकार, रोजगार का अधिकार, खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा सुरक्षा, सूचना प्रौद्योगिकी एवं दूरसंचार, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण, मेट्रो रेल आदि की स्थापना जैसे विभिन्न मुद्दों पर गठित 95 से अधिक मंत्री समूहों की अध्यक्षता करते हुए सरकार के महत्त्वपूर्ण निर्णयों तक पहुंचने में अग्रणी भूमिका निभाई.
राष्ट्रपति के रूप में ही उन्होंने राष्ट्रपति के संबोधन के लिए महामहिम शब्द को हटाए जाने की बात कही. राष्ट्रपति के रूप में प्रणब ने बढ़ती असहिष्णुता के मामले पर केंद्र सरकार को भी आड़े हाथों लिया.
67वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्र के नाम संदेश में कहा, ‘हमारे लोकतंत्र ने जो हासिल किया है, हमें उसकी सराहना करना चाहिए. हमारी उत्कृष्ट विरासत, लोकतंत्र की संस्थाएं सभी नागरिकों के लिए न्याय, समानता तथा लैंगिक और आर्थिक समता सुनिश्चित करती हैं. जब हिंसा की घृणित घटनाएं इन स्थापित आदर्शों, जो हमारी राष्ट्रीयता के मूल तत्व हैं, पर चोट करती हैं तो उन पर उसी समय ध्यान देना होगा. हिंसा, असहिष्णुता और अविवेकपूर्ण ताकतों से हमें खुद की रक्षा करनी होगी. हम असंतोष व्यक्त करने, मांग और विरोध करने का अपना रुख जारी रखें क्योंकि यही लोकतंत्र की खूबी है.’
इसी तरह उन्होंने संसद में पक्ष-विपक्ष द्वारा लगातार किए जा रहे हंगामे पर नसीहत दी.
69वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर दिए गए अपने संदेश में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा, ‘अच्छी से अच्छी विरासत के संरक्षण के लिए लगातार देखभाल जरूरी होती है. लोकतंत्र की हमारी संस्थाएं दबाव में हैं. संसद परिचर्चा के बजाय टकराव के अखाड़े में बदल चुकी है.ऐसे में यदि लोकतंत्र की संस्थाएं दबाव में हैं तो समय आ गया है कि जनता तथा उसके दल गंभीर चिंतन करें. सुधारात्मक उपाय अंदर से आने चाहिए.’
हाल ही में प्रणब ने कहा कि बहुमत के बावजूद सत्ता में बैठे लोगों को पूरे देश को हमेशा एक साथ लेकर चलना चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘संसदीय लोकतंत्र में हमें हमेशा बहुमतवाद से सतर्क रहना चाहिए. जो सत्ता में हैं उन्हें पूरे देश को हमेशा साथ लेकर चलना चाहिए. मुझे बहुत खुशी हुई प्रधानमंत्री की बात सुनकर जब उन्होंने अपनी पार्टी की व्यापक जीत के बाद विनम्रता पर ज़ोर दिया.’
हालांकि अगर उनके करीब पांच साल के कार्यकाल की चर्चा करें तो उत्तराखंड में बिना राज्यपाल की सही संस्तुति के राष्ट्रपति शासन लागू करने, अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल की भूमिका पर सवाल किए बगैर राष्ट्रपति शासन लागू करने, भूमि क़ानून समेत बहुत से अध्यादेशों को पारित करने और एक बार मना करने के बाद भी विश्वभारती विश्वविद्यालय के कुलपति को निलंबित करने, मोदी सरकार आने के बाद हुई राज्यपालों की अदला-बदला पर चुप्पी साधे रहने जैसे कई मसले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की भूमिका पर सवालिया निशान लगाते हैं.
इसके अलावा प्रणब मुखर्जी दया याचिका खारिज करने के मामले में सबसे सख्त नज़र आते हैं. इस मामले में उनकी छवि एक कठोर राष्ट्रपति के रूप में है. अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने 97 फीसदी दया याचिकाएं ख़ारिज की है.
उनके इस कार्यकाल के दौरान एक चुटकुला भी सोशल मीडिया पर खूब चलता रहा कि दया याचिका दायर करने वाले अपराधी भी यह मना रहे हैं कि उनकी फाइल प्रणब के सामने न पहुंच जाए क्योंकि वहां पहुंचने पर दया की उम्मीद बहुत कम है.
वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक कहते हैं, ‘राष्ट्रपति के रूप प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल को बेहद मामूली कार्यकाल माना जाएगा. प्रणब दा ज्यादातर राष्ट्रपतियों की तरह रबर स्टैंप राष्ट्रपति ही साबित हुए. चाहे अरुणाचल का मामला हो या उत्तराखंड का, उन्होंने स्वविवेक का प्रयोग न्यूनतम किया है. राज्यपालों की अदला-बदली में भी वह निष्क्रिय भूमिका में दिखे. ताश के पत्तों की तरह राज्यपालों को बदलने वाली राजग सरकार से राष्ट्रपति सवाल भी नहीं पूछते दिखे. पिछले 50 सालों में प्रणब मुखर्जी का जैसा राजनीतिक जीवन रहा है, उसमें वे आज्ञाकारी सेवक की तरह दिखाई देते हैं. वे राजनीति को नौकरी की तरह निभाते दिखे हैं. राष्ट्रपति का पद भी उनके लिए एक ऊंची नौकरी है. इस कुर्सी पर बैठकर वह दंभी दिखाई देते हैं. मेरे ख़्याल से इसका कारण पिछले चार-पांच दशकों तक उपेक्षित होना और सही जगह न मिल पाना है. इसी वजह से अंदर ही अंदर प्रणब मुखर्जी के दिल में क्रोध और हताशा ने जन्म लिया, शायद इसी के चलते वे कांग्रेस के प्रति निर्मम दिखाई दिए.’
जानकार राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की योग्यता पर संदेह ज़ाहिर नहीं कर रहे हैं. पर वे उनकी चुप्पी पर सवाल खड़ा कर रहे हैं. वह इस मामले में उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह की श्रेणी में शामिल कर रहे हैं.
कांग्रेस पार्टी पर लंबे समय से नज़र रख रहे वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह भी बहुत समझदार और ज़हीन नेता थे लेकिन जिस तरह से वे लोग सब कुछ जानते-समझते हुए चुप रहे वैसा ही राजग सरकार आने के बाद से प्रणब मुखर्जी ने किया. उन्हें सार्वजनिक जीवन में बहुत ही सम्मान की नज़र से देखा जाता रहा है पर उनकी चुप्पी उन पर सवाल खड़े करती रही.’
हालांकि संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं कि राष्ट्रपति कैबिनेट की सलाह पर काम करते हैं. ऐसे में राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी ने संविधान के आधार पर ही काम किया है.
वे कहते हैं, ‘संविधान में जो प्रावधान है उसके अनुसार राष्ट्रपति कैबिनेट की सलाह पर काम करते हैं. हालांकि उन्हें यह अधिकार प्राप्त है कि वह मंत्रिपरिषद की सलाह को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं. लेकिन पुनर्विचार के बाद जब मंत्रिपरिषद उसी सलाह को दोहराए तो राष्ट्रपति को उसे मंज़ूरी देनी पड़ती है. ऐसा भी नहीं है कि राष्ट्रपति हर मसले को पुनर्विचार के लिए भेजता है. ऐसा सिर्फ उन्हीं मामलों में किया जाता है जब राष्ट्रपति को ज़रूरी लगता है.’
जानकारों का मानना है कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी पावर गेम के मास्टर रहे हैं. उन्होंने कभी शीर्ष नेतृत्व को नाराज़ करके काम नहीं किया है और जब किया भी तो अपने हित के लिए. प्रणब मुखर्जी को कभी जनहित के लिए फैसले लेने वाले नेता के रूप में नहीं जाना जाता था.
शायद यही कारण था कि एक दौर में प्रणब ने कांग्रेस से अलग होकर नई राजनीतिक पार्टी बनाई थी. लोगों का कहना था कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौत के बाद प्रणब मुखर्जी खुद प्रधानमंत्री बनना चाह रहे थे लेकिन राजीव गांधी के चलते ऐसा हो नहीं सका. बाद में राजीव के साथ अनबन के चलते उन्होंने राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस पार्टी बनाई, लेकिन तीन साल बाद ही उसका विलय कांग्रेस में कर लिया.
वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी कहते हैं,‘प्रणब ने इतने लंबे राजनीतिक अनुभव में यही सीखा है कि किसे कब खुश रखना है, किसे कब नाराज करना है. इससे उन्हें कितना फायदा होगा. वह बहुत निष्क्षल और बेबाक राजनेता नहीं रहे हैं. संप्रग सरकार के जमाने में उन पर कॉरपोरेट हितों के लिए काम करने का आरोप भी लगा था. राष्ट्रपति के रूप में वह संवैधानिक अधिकारों और सरकार के बीच में समन्वय बनाते हुए चलते रहे. एक राष्ट्रपति के रूप में वह सरकार की अंतरात्मा को झकझोरते हुए नज़र नहीं आए. अपने कार्यकाल के बाद वे कॉफी बुक प्रेसिडेंट के रूप में ही जाने जाएंगे.’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय उनके कार्यकाल को संवैधानिक रूप से सही बताते हैं.
वे कहते हैं, ‘राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संविधान सम्मत तरीके से काम करने की कोशिश की. प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति में बेहतर तालमेल दिखाई देता रहा. यह लोकतंत्र के लिए बढ़िया संकेत है जबकि हमारे यहां ऐसा भी देखने को मिला है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच का मतभेद की खबरें मीडिया की सुर्खियां बनी है. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के बीच में इतनी कटुता पैदा हो गई थी कि राष्ट्रपति राजीव सरकार को बर्खास्त कर देने तक पर विचार करने लगे थे. उसी तरह से देखे तो आर वेंकटरमन के कार्यकाल में भी ऐसे टकराव के अवसर आए. डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा के समय में भी ऐसे उदाहरण देखने को मिले. हालांकि कलाम इस तरह की टकराहट से दूर दिखे. केआर नारायणन के समय में भी कई सवालों को लेकर मतभेद मीडिया में आए थे. खासकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर तो मतभेद जगजाहिर हैं. प्रणब के कार्यकाल के दौरान इस तरह के कोई विवाद सामने नहीं आए हैं.’
अगर हम देश के बाकी राष्ट्रपतियों से प्रणब मुखर्जी की तुलना करें तब भी उनका कार्यकाल कुछ ख़ास बेहतर नहीं रहा है.
राशिद किदवई कहते हैं, ‘आप दो लोगों की बीच तुलना नहीं कर सकते हैं लेकिन राजेंद्र बाबू के बाद प्रणब मुखर्जी ही ऐसे राष्ट्रपति है जिन्होंने राजनीति की लंबी समझ के बाद इस कुर्सी को संभाला. इसके अलावा जो बेहतरीन कामकाज वाले राष्ट्रपति समझे जाते हैं जैसे राधाकृष्णन, ज़ाकिर हुसैन, केआर नारायणन या फिर कलाम वे इतनी राजनीतिक समझ वाले नहीं थे, इसलिए जब प्रणब ने रायसीना हिल्स में प्रवेश किया तो यह उम्मीद थी कि वे इस पद को नए आयाम तक ले जाएंगे. लेकिन वे इसमें असफल रहे. वे देश की जनता में नई उम्मीद जगा पाने में असफल रहे. वे राष्ट्रपति होते हुए युवाओं, बच्चों, छात्रों में नई चेतना नहीं जगा पाए. राष्ट्रपति के रूप में वे जनमानस में एक छवि बनाने में असफल रहे. बहुत सारे मसलों में देश राष्ट्रपति की तरफ देख रहा होता था कि वह केंद्र सरकार को नई दिशा देंगे लेकिन प्रणब ने ऐसा कोई काम नहीं किया.’
यह तो साफ है कि राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल बहुत उल्लेखनीय नहीं रहा है. इससे पहले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के कार्यकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने साल 2005 में बिहार सरकार की बर्ख़ास्तगी के उनके फैसले को पलट दिया था.
बाद में डॉ. कलाम ने अपनी किताब में लिखा था कि उस समय उनके मन में पद छोड़ने का विचार आया था. कलाम ने उस समय मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन संप्रग सरकार की सिफारिश पर दस्तख़त किए थे.
उम्मीद है कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अपनी अगली किताब में उत्तराखंड हाई कोर्ट की इस टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया देंगे. साथ ही इस कार्यकाल के दौरान हुई तमाम घटनाओं पर विस्तार से भी लिखेंगे.