बाल मज़दूरों का कारखाना बनता गया

बिहार का गया ज़िला भले ही धार्मिक कारणों से दुनिया भर में मशहूर है, लेकिन पिछले कुछ सालों में इस ज़िले पर एक और तमगा चस्पां हो गया है. गया इकलौता ज़िला बन गया है, जहां के सबसे ज़्यादा बच्चे बाल मज़दूर बनकर दूसरे राज्यों की फैक्ट्रियों में काम करने को मजबूर हैं.

देवकी मांझी दिहाड़ी मज़दूर हैं. उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, जिस कारण जब उनके बेटे को चूड़ी फैक्ट्री में काम देने की बात कही गई, तो न चाहते हुए भी वह तैयार हो गए. (फोटो: उमेश कुमार राय/द वायर)

बिहार का गया ज़िला भले ही धार्मिक कारणों से दुनिया भर में मशहूर है, लेकिन पिछले कुछ सालों में इस ज़िले पर एक और तमगा चस्पां हो गया है. गया इकलौता ज़िला बन गया है, जहां के सबसे ज़्यादा बच्चे बाल मज़दूर बनकर दूसरे राज्यों की फैक्ट्रियों में काम करने को मजबूर हैं.

अपने बेटे के साथ गरीबन मांझी और उनकी पत्नी. (फोटो: उमेश कुमार राय/द वायर)
अपने बेटे के साथ गरीबन मांझी और उनकी पत्नी. (फोटो: उमेश कुमार राय/द वायर)

गया/पटना: बीते साल दशहरे का वक़्त था. गया ज़िले के बोधगया प्रखंड के खरांटी गांव की महादलित (मुसहर) टोली में मिट्टी के घर में रह रहे गरीबन मांझी के पास उनके दूर का एक रिश्तेदार आया. उसने उनके 10 वर्षीय बेटे संजय (बदला हुआ नाम) को अपने साथ जयपुर ले जाने की बात कही. गरीबन मांझी ना करते, उससे पहले ही उसने जाते ही दो हज़ार रुपये भेजने और तीन हजार रुपये प्रतिमाह देने का वादा भी कर दिया.

250 से 300 रुपये की दिहाड़ी पर अपना और अन्य आठ सदस्यों का पेट पाल रहे गरीबन को यह सौदा ठीक लगा. चूंकि, प्रस्ताव देने वाला शख़्स भी दूर का रिश्तेदार था, तो गरीबन के लिए यह राहत हुई कि बेटा वहां चैन से रहेगा. लेकिन, ऐसा हुआ नहीं. संजय को जयपुर की जिस चूड़ी फैक्टरी में नौकरी पर लगाया गया, वह यातनागृह साबित हुआ.

बकौल संजय, सुबह आठ बजे से रात एक बजे तक कांच की चूड़ियों पर मोती चिपकाना पड़ता था. तीन वक़्त खाना मिलता था. रात को भूख से कम खाना मिलता था, ताकि नींद न आ जाए. एक बजे रात में काम ख़त्म कर सोता और फिर सुबह उठ जाना पड़ता था. बहुत थकावट रहती थी. लेकिन वो लोग कोई फरियाद नहीं सुनते थे.’

उसने छह महीने तक वहां काम किया. इस बीच स्थानीय एनजीओ व जयपुर पुलिस ने मिलकर संजय समेत कई बच्चों को उस फैक्टरी से सुरक्षित निकाल कर बिहार पहुंचा दिया.

गरीबन मांझी की तरह ही उसी टोली के देवकी मांझी के पास भी ऐसा ही सब्ज़बाग दिखाता प्रस्ताव आया था. वह भी इनकार नहीं कर पाए और अपने 15 साल के बेटे मुकेश (बदला हुआ नाम) को जयपुर भेज दिया. छह महीने बाद पुलिस और एनजीओ की कोशिशों से वह भी घर लौट आया.

मुकेश से भी सुबह 8 बजे से रात 1 बजे तक काम कराया जाता था. मुकेश ने कहा, ‘वहां मन नहीं लगता था. पर्व-त्योहार में छुट्टी भी नहीं मिलती थी. फैक्ट्री से बाहर निकलने नहीं दिया जाता था. वहीं रहते थे और वहीं खाते थे.’

बाल श्रम के लिए संजय और मुकेश की तस्करी के ये मामले उन हज़ारों मामलों का हिस्सा हैं, जो अब गया के लिए बहुत सामान्य हो गए हैं.

झारखंड और उत्तर प्रदेश की सीमा से सटा गया ज़िला धार्मिक कारणों से दुनिया भर में मशहूर है, लेकिन पिछले कुछ सालों में इस ज़िले पर एक तमगा और चस्पां हो गया है. गया बिहार का इकलौता ज़िला बन गया है, जहां से सबसे ज़्यादा बच्चे बाल मज़दूर बनकर दूसरे राज्यों की फैक्ट्रियों में काम करने को मजबूर हैं.

ज़्यादातर बाल श्रमिकों को चूड़ी की फैक्ट्रियों में खटाया जाता है, क्योंकि उनके हाथ बहुत छोटे और नरम होते हैं और चूड़ियों पर बारीक नक्काशी करने में सहूलियत होती है.

बताया जाता है कि सबसे अधिक बाल मज़दूर जयपुर की चूड़ी फैक्ट्रियों में खपाए जाते हैं. जयपुर के अलावा यहां से बच्चों को हैदराबाद और तेलंगाना भी ले जाया जाता है.

बिहार के श्रम विभाग से मिले आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2015-2016 में अलग-अलग सूबों से 1101 बाल मज़दूर मुक्त कराए गए थे. वर्ष 2016-2017 में ये आंकड़े 1050 और वर्ष 2017-2018 में 920 रहे. ये वे आंकड़े हैं, जो चाइल्ड लेबर ट्रैकिंग सिस्टम में सूचीबद्ध हुए हैं.

देवकी मांझी दिहाड़ी मज़दूर हैं. उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, जिस कारण जब उनके बेटे को चूड़ी फैक्ट्री में काम देने की बात कही गई, तो न चाहते हुए भी वह तैयार हो गए. (फोटो: उमेश कुमार राय/द वायर)
देवकी मांझी दिहाड़ी मज़दूर हैं. उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, जिस कारण जब उनके बेटे को चूड़ी फैक्ट्री में काम देने की बात कही गई, तो न चाहते हुए भी वह तैयार हो गए. (फोटो: उमेश कुमार राय/द वायर)

इन आंकड़ों के साथ गया से ले जाए गए बाल मज़दूरों के आंकड़ों को मिलाएं, तो पाएंगे कि 20 से 40 प्रतिशत बच्चे गया के होते हैं.

श्रम विभाग के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2015-2016 में बचाए गए बाल मज़दूरों में अकेले गया के 160 बच्चे थे. इसके बाद के साल यानी 2016-2017 में बचाए गए 1050 बच्चों में गया के 284 बच्चे शामिल थे. वर्ष 2017-2018 के आंकड़े भी इससे कुछ अलग नहीं हैं.

बिहार के समाज कल्याण विभाग के डायरेक्टर (सोशल वेलफेयर) राज कुमार कहते हैं, ‘हां, यह सही है. बाल श्रमिकों की सबसे अधिक तस्करी गया से ही की जाती है. इसलिए गया को हमने फोकस ज़िला बनाया है.’

बाल मज़दूर और जाति फैक्टर

बाल श्रम के लिए गया से ही सबसे ज़्यादा बच्चों की तस्करी की वजह की पड़ताल करने पर एक कारण बरामद बच्चों के कुलनाम में मिलता है. दूसरे राज्यों से बरामद कर लाए जा रहे ज़्यादातर बच्चे मुसहर (मांझी), पासवान, रविदास आदि पिछड़ी जातियों के होते हैं.

इनमें भी मुसहर जाति के बच्चे सबसे ज़्यादा क़रीब 50 फीसदी होते हैं. मिसाल के तौर पर वर्ष 2015-2016 और 2016-2017 के आंकड़े को लिया जा सकता है. श्रम विभाग से मिले आंकड़ों के अनुसार उस साल बरामद किए गए कुल 160 बाल मज़दूरों में से मुसहर जाति के 76 बच्चे थे. वहीं, वर्ष 2016-2017 में बचाए गए 284 बाल मज़दूरों में मुसहर जाति के बच्चों की संख्या 118 थी.

2011 की जनगणना के मुताबिक, बिहार में अनुसूचित जातियों की आबादी 1 करोड़ 65 लाख 67 हज़ार 325 है. इनमें से 30.4 प्रतिशत आबादी गया में बसती है.

बिहार में बसनेवाली अनुसूचित जातियों में साक्षरता दर महज 48.65 प्रतिशत है, जो देश के शेष सभी राज्यों से कम है. बिहार को छोड़कर देश के किसी भी राज्य की अनुसूचित जातियों में साक्षरता दर 50 प्रतिशत से कम नहीं है.

इन आंकड़ों से ज़ाहिर है कि ये समुदाय शिक्षा के मामले में हाशिये से भी बाहर खड़ा है.
दूसरी तरफ, वे आर्थिक मोर्चे पर भी बेहद कमज़ोर हैं. इनके पास अपनी ज़मीन नहीं है. कमाई का इकलौता ज़रिया दिहाड़ी मजदूरी है. लेकिन, मज़दूरी भी उन्हें महीने में अधिकतम 20 दिन ही मिलती है.

गरीबन मांझी कहते हैं, ‘खेती के सीज़न में खेतों में काम करते हैं. खेत में काम करने का अनाज अथवा नकद 200 रुपये मिलते हैं. जब खेती नहीं होती है, तो मकान बनाने में ईंट-बालू का काम करते हैं. इसमें 250 से 300 रुपये दिहाड़ी मिलती है, लेकिन महीना भर काम नहीं मिलता है. इतने पैसे में घर क्या चलेगा?’

खरांटी की मुसहर टोली के रहने वाले राजदेव मांझी के 12 और 13 साल के दो बच्चे जयपुर गए थे. राजदेव मांझी ने कहा, ‘यही सोच कर उन्हें जाने से नहीं रोके कि दोनों बाहर जाएंगे, कुछ कमाएंगे, तो हाथ में दो-चार पैसा आएगा.’

मुफलिसी में जी रहे इन समुदायों के बच्चे किसी राज्य की फैक्ट्री से बचा लिए जाते हैं, तो इनके परिजनों को राहत से ज़्यादा मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं. क्योंकि ऐसी सूरत में उन्हें अपने बच्चों को लाने के लिए काफी दौड़-धूप करनी पड़ती है.

जयराम मांझी के भाई को बाल श्रम से मुक्त कराया गया था. (फोटो: उमेश कुमार राय/द वायर)
जयराम मांझी के भाई को बाल श्रम से मुक्त कराया गया था. (फोटो: उमेश कुमार राय/द वायर)

देवकी मांझी पूरे प्रकरण को याद करते हुए कहते हैं, ‘फैक्टरी के मालिक की तरफ से जब हमारे पास फोन आया था कि मेरे बच्चे को पुलिस ने बरामद किया है, तो मुझे जयपुर जाना पड़ा. जयपुर में 10 दिन रहा. वहां से कहा गया कि बच्चे को पटना भेजा जाएगा और वहीं से मेरे सुपुर्द किया जाएगा. मैं पटना आया, तो बताया गया कि बच्चे को गया भेजा जाएगा. गया में भी दो-तीन दिन दौड़-भाग करना पड़ा, तब जाकर उसे सौंपा गया.’

उन्होंने कहा, ‘बच्चे को घर तक लाने में ही 3 से 4 हज़ार रुपये ख़र्च हो गए. इधर-उधर से लेकर काम करना पड़ा. और परेशानी जो हुई, उसके बारे में हम क्या बताएं.’

देवकी मांझी का मामला अपवाद नहीं है. फैक्ट्रियों से बचाए गए सभी बच्चों के अभिभावकों को इसी परेशानी से गुज़रना पड़ता है.

बाल श्रम से मुक्त कराए गए बच्चों के लिए राज्य सरकार की तरफ से कई तरह की योजनाएं चलाई जा रही हैं. इसके तहत बाल श्रम से मुक्त बच्चों को श्रम विभाग की ओर से अविलंब 3 हज़ार रुपये की मदद दी जाती है. इसके अलावा संबंधित ज़िले के प्रशासन की तरफ से 5 हज़ार रुपये देने का प्रावधान है.

दूसरी तरफ, जून 2016 में बिहार की नीतीश सरकार ने ऐसे बच्चों के लिए एक नई योजना शुरू की है. इसके तहत बाल श्रम से छुड़ाए गए बच्चों (14 साल तक की उम्र सीमा के) के नाम पर 25 हज़ार रुपये जमा किए जाते हैं और बच्चे की उम्र जब 18 वर्ष हो जाती है, तो सूद समेत वह राशि बच्चे के अकाउंट में डाल दिया जाता है.

बाल मजदूरी पर अंकुश लगाने के लिए सरकार की तमाम योजनाओं के बावजूद अफसोस की बात है कि गया से बाल मजदूरों की तस्करी थम नहीं रही है.

उल्टा बचाए गए बच्चे दोबारा-तिबारा फैक्ट्रियों की तरफ रवाना हो जाते हैं.

ऐसा ही एक केस खरांटी की मुसहर टोली में मिला. यहां रह रहे विकलांग बच्चे शिव (बदला हुआ नाम) को 6-7 महीने पहले पुलिस ने जयपुर से बालश्रम से मुक्त कराकर लाया था. वह अब अपनी मां के साथ यूपी में ईंट-भट्टा में काम करने चला गया है.

शिव के भाई जयराम मांझी ने बताया, ‘हफ्ते भर पहले मां उसे अपने साथ ईंट-भट्टे में काम कराने लेकर गई है.’

खरांटी की मुसहर टोली का जब हमने दौरा किया था, तो रास्ते में एक स्कूल भी आया. स्कूल पक्का था. स्कूल में जब हम पहुंचे, तो वहां महज़ 10-15 बच्चे ही नज़र आए और वे भी खेल रहे थे. जबकि स्कूल के रजिस्टर में 250 बच्चों के नाम हैं.

स्कूल की प्रधानाध्यापिका कुंती सिन्हा ने स्कूल में बच्चों की उपस्थिति कम होने की बात स्वीकारी और कहा, ‘हम तो कोशिश करते हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे आएं, लेकिन अभिभावकों में जागरूकता की कमी है.’

बाल मज़दूरी के ख़िलाफ़ कार्रवाई पर समाज कल्याण विभाग के डायरेक्टर (सोशल वेलफेयर) राज कुमार ने कहा, ‘हमने जयपुर की चाइल्ड वेलफेयर कमेटी के साथ बैठक कर फैक्ट्री मालिकों के ख़िलाफ़ चाइल्ड लेबर (प्रीवेंशन) एक्ट, बॉन्डेंड लेबर एक्ट, इंडियन पीनल कोड और जुवेनाइल जस्टिस एक्ट की धाराओं के साथ एफआईआर दर्ज कराने को कहा है. इससे फैक्टरी मालिकों पर दोष साबित होगा, तो 6-7 साल की सजा होगी. इससे उनमें डर पैदा होगा.’

उन्होंने आगे कहा, ‘गया समेत चार ज़िलों में आवासीय गृह भी बना रहे हैं. इनमें मुक्त कराए गए बच्चों को रोजगारमूलक ट्रेनिंग दी जाएगी.’

प्रशासन की तरफ से हालांकि ऐसे वादे-दावे कोई नई बात नहीं है और उनका ज़मीनी हश्र भी जगज़ाहिर है. फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रशासन घोषणाएं करने में जितनी संजीदगी दिखाता है, उतनी ही संजीदगी से इन्हें लागू भी करेगा.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)