हैप्पीमॉन जैकब की हालिया किताब ‘द लाइन ऑफ कंट्रोल: ट्रैवलिंग विद द इंडियन एंड पाकिस्तानी आर्मी’ भारत-पाकिस्तान संबंधों की जटिलता को बहुत गहराई और दिलचस्प तरीके से हमारे सामने रखती है.
भारत-पाकिस्तान संबंधों का जब ज़िक्र आता है तो अक्सर बने बनाए सांचों में ही देखने-सोचने की आदत होती है. विभाजन के बाद पिछले 70 सालों में भारत-पाकिस्तान ने एक अहम दूरी तय कर ली है.
अब विभाजन की कड़वी यादों की जगह एक तरह की स्टीरियोटाइप छवि है जिसे दोनों सरहद के पार की मीडिया ने बनाई है.
इसमें राष्ट्रवाद के ज़हरीले आख्यानों के साथ बंदूकों के साए में सरहद पर मुठभेड़ की कहानियां हैं लेकिन हमारे मुल्क में पाकिस्तान के समाज को गहराई से जानने-समझने की कोई गंभीर कोशिश नहीं होती है.
भारत से जब कोई व्यक्ति पाकिस्तान जाकर वहां की सच्चाइयों से रूबरू होता है तो बनी बनाई धारणाएं, या पूर्वाग्रह कह लें, एक पल में ढह जाते हैं और वहां के लोगों की एक नई ख़ुशमिज़ाज़ तस्वीर सामने आती है.
हालांकि, सरहद पर हो रही कार्रवाईयों के आईने में देखें तो दोनों देशों की मीडिया में एक सरलीकृत तस्वीर परोसी जाती है, जिसमें स्थानीय कारकों की कोई चर्चा नहीं होती है.
हैप्पीमॉन जैकब की हालिया किताब ‘द लाइन ऑफ कंट्रोल: ट्रैवलिंग विद द इंडियन एंड पाकिस्तानी आर्मी’ भारत-पाकिस्तान संबंधों की जटिलता को बहुत गहराई और दिलचस्प तरीके से हमारे सामने रखती है.
यह किताब नियंत्रण रेखा पर संघर्ष-विराम उल्लंघन की घटनाओं को एक नई रोशनी में प्रस्तुत करती है. हालांकि यह किताब दोनों देशों की सेनाओं के साथ लेखक की नियंत्रण रेखा या अंतरराष्ट्रीय सीमा के किनारे सफ़र का बहुत आत्मीय विवरण है लेकिन यह जटिल सवालों से उलझने का माद्दा रखती है.
राष्ट्रवाद की घिसी-पिटी लकीरों के सहारे एक ख़ुशफ़हम तस्वीर बुनने की कोशिश नहीं करती बल्कि दोनों राष्ट्रों के ताक़तवर सत्ता प्रतिष्ठानों की मानसिकता की गहराई में जाकर यह छानबीन करती है कि सरहद की ज़िंदगी किन रोज़ाना के भय, मौत की सच्चाई और युद्ध की विभीषिका के साये तले गुज़रने को मज़बूर है.
यह नियंत्रण रेखा पर हर वक़्त तनी हुई संगीनों, बंकरों और एक बेहद मुश्किल पर्यावरणीय हालात में रह रहे सैनिकों और लोगों की ज़िंदगियों के मानवीय पहलुओं को उजागर करती है. यह किताब हर वक़्त बंदूक़ों के साये में रहने वाली नियंत्रण रेखा को मानवीय बनाती है.
यह दोनों देशों की सेनाओं के ज़िम्मेदार पदों पर बैठे उच्च अधिकारियों की मानसिकता की तह में जाकर एक तथ्यात्मक दस्तावेज़ के बतौर उन परिस्थितियों का बयान करती है जिसमें ये सैन्य अधिकारी और उनके मातहत सैनिक मुश्किल हालातों में कोई फ़ैसला करते हैं और ये फ़ैसले राष्ट्र की आधिकारिक तक़दीर बनाते हैं.
किताब को पढ़कर लगता है कि लेखक न सिर्फ़ पाकिस्तानी समाज की आंतरिक संरचना और उसके अंतर्विरोधों से भलीभांति वाक़िफ़ हैं बल्कि दक्षिण एशिया में शांति, दोस्ती और सद्भावना के लिए ज़रूरी राजनीतिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति भी सजग हैं.
इसीलिए जब वे भारत-पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा दूसरे देशों के नागरिकों पर उत्पीड़न की हद तक नज़र रखने की घटनाओं का विवरण देते हैं तो उसे भी एक गहन आत्मीय और सहानुभूति के नज़रिये से देखते हुए इंसानियत के पहलुओं को तरज़ीह देते हैं.
यह किताब एक और मायने में भी अहम है. लेखक नियंत्रण रेखा पर जब भारतीय सेना के साथ सफ़र करते हैं तो एक प्रसंग में बताते हैं कि भारतीय जवान जेएनयू को लेकर ख़ासे उत्सुक होते हैं. सैनिक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा गढ़ी गई छवि के सहारे ही जेएनयू को देखते हैं. इससे सैनिक अपनी सरहद की ज़िंदगी के साथ मिलान करते हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा के चश्मे से चीज़ों को देखते हैं.
हालांकि लेखक राष्ट्रवाद के नाम पर हो रहे गोरखधंधे की कलई खोलने में हिचकिचाते नहीं हैं. इस क्रम में किताब में मीडिया की भूमिका का आकलन किया गया है. मीडिया स्टूडियो से राष्ट्रवाद के नाम पर फैलाए जा रहे ज़हर और इसके दुष्परिणामों को किताब में रेखांकित किया गया है, जिसका सीधा असर सरहद पर तैनात हमारे सैनिकों की ज़िंदगी पर पड़ता है.
किताब में बहुत ही पठनीय और दिलचस्प तरीक़े से सरहद की यात्रा के निजी अनुभवों को एक सांस्कृतिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में पेश किया गया हैं. यह किताब न सिर्फ़ नियंत्रण रेखा के आर-पार मुश्किल हालातों और उन कारणों का जायज़ा लेती है बल्कि इस प्रक्रिया में पाकिस्तान के बारे में एक औसत भारतीय सोच की सीमाओं को भी रेखांकित करती है.
(लेखक राजस्थान विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)