छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के लिए यह प्रायश्चित करने का मौका है

जहां एक ओर कांग्रेस के लिए यह नक्सल समस्या को सुलझाने का एक नया मौका है, वहीं राहुल गांधी के लिए यह साबित करने का अवसर है कि वे और उनकी पार्टी वास्तव में देश के आदिवासियों की चिंता करते हैं.

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जहां एक ओर कांग्रेस के लिए यह नक्सल समस्या को सुलझाने का एक नया मौका है, वहीं राहुल गांधी के लिए यह साबित करने का अवसर है कि वे और उनकी पार्टी वास्तव में देश के आदिवासियों की चिंता करते हैं.

Rahul Gandhi Chhattisgarh Leaders 2 Twitter
भूपेश बघेल के शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, वरिष्ठ नेता टीएस सिंहदेव और ताम्रध्वज साहू (फोटो: ट्विटर/@ChhattisgarhCMO)

15 सालों के दमन, कुशासन और छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक संसाधनों की लूट के बाद रमन सिंह सरकार की हार एक ऐतिहासिक मौका बनकर आयी है. कांग्रेस के पक्ष में निर्णायक जनादेश देकर यहां की जनता ने ने सिर्फ सत्ताधारियों को कुर्सी से उखाड़ फेंका है, बल्कि यह भी संकेत किया है कि वे कैसे बदलाव की ख़्वाहिश रखते हैं.

इनमें से कुछ आकांक्षाओं को कांग्रेस के घोषणापत्र में जगह दी गयी है, जिसके बारे में हमें बताया गया कि उसे समाज के विभिन्न तबकों के साथ विस्तृत राय-मशविरे के बाद तैयार किया गया है.

कर्ज माफी के अलावा, न्यूनतम समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी, बेरोजगारी भत्ता, गुणवत्तायुक्त स्वास्थ्य सेवा  और शिक्षा पर पार्टी द्वारा जो जोर दिया गया वह जनता की प्राथमिकता प्रतीत होती है. और कांग्रेस की भी बुद्धिमानी इसी बात में होगी कि वह भी इन्हें अपनी प्राथमिकताओं में शुमार करे.

लेकिन वह चीज जिसमें कांग्रेस के पास वास्तव में परिवर्तनकारी होने का मौक़ा है, वह इस  बात से तय होगा कि नक्सली संघर्ष को लेकर उसका रवैया कैसा रहता है. राहुल गांधी की असली परीक्षा इस बात से होगी कि वे और उनकी पार्टी आदिवासियों का कितना ख्याल रखते हैं.

अगर कांग्रेस अपने घोषणापत्र के 22वें बिंदु पर अमल करते हुए माओवादियों के साथ बातचीत शुरू करती है, तो उन्हें इसमें बस्तर के लोगों का पूरा समर्थन रहेगा.

चुनाव प्रचार के दौरान ‘अर्बन नक्सलियों का समर्थन करने लिए कांग्रेस को सबक सिखाने‘ के नरेंद्र मोदी के बार-बार आह्वान को अंगूठा दिखाते हुए क्षेत्र के लोगों ने इलाके की 12 में से 11 सीटें कांग्रेस की झोली में डाली हैं. इस जीत में कई संदेश छिपे हैं.

मसलन, यह तथ्य कि कांग्रेसी उम्मीदवारों को उन्होंने दूरस्थ गांवों में चुनाव प्रचार करने  इजाज़त दी, इस बात का संकेत माना जा सकता है कि माओवादी किसी किस्म की वार्ता के लिए तैयार हैं. वे बहुत बड़ी मूर्खता करेंगे अगर वे बातचीत के जरिए शांति स्थापित करने का ये मौक़ा यूं ही हाथ जाने देंगे.

लेकिन इतनी ही अहमियत इस बात की है कि ऐसी किसी वार्ता के सफल होने के लिए एक बुनियाद तैयार की जानी चाहिए. और यह न्याय के आधार पर ही किया जा सकता है. ‘विकास’ न्याय का  विकल्प नहीं  है. दोनों ही सही हैं, लेकिन दोनों मुख़्तलिफ़ इलाके की चीज हैं और उनको एक-दूसरे से बदला नहीं जा सकता है.

यह शायद एक ईश्वरीय संयोग है कि सज्जन कुमार को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला कांग्रेस की नई सरकार के शपथग्रहण समारोह के दिन आया. हालांकि पार्टी कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाकर मध्य प्रदेश में न्याय की परीक्षा में फेल हो गयी लेकिन इसके पास छत्तीसगढ़ में अपनी ऐतिहासिक गलतियों सुधारने का एक मौका है.

कांग्रेस पर अब भाजपा समर्थित सलवा जुडूम आंदोलन के स्थानीय चेहरा रहे कांग्रेसी नेता महेंद्र करमा की प्रेतछाया नहीं मंडरा रही है. लेकिन पूरे के पूरे जला दिए गए गांवों, बलात्कार पीड़ितों, वे बच्चे जिनके अभिभावक सलवा जुडूम के झंडे तले निर्मम तरीके से मार दिए गए थे, की विरासत कांग्रेस और भाजपा का पीछा नहीं छोड़ने वाली है.

एक ऐसे देश में जहां हिंसा के ऊपर हिंसा का पहाड़ जमा होता जाता है और देश का हर हिस्सा नरसंहारों और कत्लेआमों से ज़ख़्मी और रक्तरंजित है, भूल जाना आसान है. इसलिए मुझे बस 2007 की एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट से हवाला देने दीजिये जिसे राष्ट्रीय बाल अधिकार रक्षा आयोग की तत्काल अध्यक्ष शांता सिन्हा, भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह और वेंकट रेड्डी द्वारा तैयार किया गया था-

चरला में एक जनसुनवाई हुई और इसमें 200 से ज्यादा आईडीपी के लोगों ने शिरकत की. दल ने 35 से ज्यादा लोगों की गवाहियों को सुना. हर गवाही में  उनके, उनके परिवारों और संपत्ति के ख़िलाफ़ नक्सलियों, सलवा जुडूम और सशत्र बलों द्वारा की गयी चरम हिंसा की कहानी शामिल थी.

कई लोगों ने सलवा जुडूम द्वारा अपने परिवार के सदस्यों के मारे जाने और औरतों के साथ बलात्कार किये जाने की कहानियों को साझा किया. हिंसा, प्रताड़ना, आगजनी, डकैती की बार-बार की घटनाओं को झेलने के कारण इन लोगों के पास अपने गांवों को छोड़कर भागने और दूसरे राज्य में शरण लेने अलावा कोई और विकल्प नहीं था.

अपनी जमीन और मवेशियों को छोड़कर वे गरीबी और संकट की स्थिति में आंध्र प्रदेश पहुंचे हैं.

राजयसभा के वर्तमान उपसभापति हरिवंश, जो उस समय प्रभात खबर अखबार के संपादक थे, बस्तर पर इंडिपेंडेंट सिटीजन इनिशिएटिव की एक अन्य फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट वॉर इन द हार्ट ऑफ इंडिया के सदस्य थे.

इसमें शिकार की खोज में घूमने वाले हथियारबंद नाबालिग एसपीओ (विशेष सुरक्षा अधिकारी), शिविरों में शरण लेने के लिए मजबूर किये गए लोगों और क़ानून के शासन की पूरी समाप्ति की बात सामने आयी थी.

पिछले 13 सालों में जमीनी रिपोर्टों, मीडिया विवरणों और अदालतों में सभी स्तरों पर और साथ ही साथ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं के सामने जमा किये गए साक्ष्यों की कोई कमी नहीं रही है, जो बड़े पैमाने पर मानवाधिकार उल्लंघनों की ओर इशारा करते हैं, जो बड़ी संख्या में सामूहिक बलात्कारों और निहत्थे आम बच्चों की हत्याओं की ओर इशारा करते हैं.

लेकिन 1984 के दिल्ली और  2002 के गुजरात नरसंहार के उलट ये अत्याचार एक बड़े इलाके में कई सालों तक चले. काफी हाल में सितंबर 2018 में कोंटा के एक दौरे दौरान मैंने पाया कि सुरक्षा बल अभी भी गांवों पर छापा मार रहे थे, सामानों नष्ट कर रहे थे और किसी भी व्यक्ति को माओवादी होने के शक में  मौत के घाट उतार रहे थे.

1984 और 2002 के उलट यह हिंसा भी एकतरफा नहीं रही है: एकमात्र राजनीतिक रणनीति जो माओवादी जानते हुए लगते हैं वह ‘जवाबी हिंसा’ की है. चाहे वह सुरक्षा बालों के खिलाफ हो या संदिग्ध (नागरिक) मुखबिरों के खिलाफ हो.

ऐसा नहीं है कि अदालतों ने फरियादों पर कोई ध्यान नहीं दिया है- 2011 के अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने न सिर्फ विशेष रक्षा अधिकारियों (एसपीओ) के दस्ते को समाप्त  करने और उनके निःशस्त्रीकरण का आदेश दिया बल्कि साथ ही मानवाधिकारों का उल्लंघन करने के दोषियों पर मुकदमा चलाने और सभी पीड़ितों को मुआवजा देने का निर्देश दिया.

लेकिन त्रासदी यह है कि छत्तीसगढ़ की सरकार ने जानबूझकर इन निर्देशों का उल्लंघन किया. न्यायालय की अवमानना का एक मामला 2012 से सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है.

अपने घोषणापत्र में कांग्रेस ने वन उत्पादों की कीमत को बढ़ाने, वन अधिकार अधिनियम, 2006 और भूमि अधिग्रहण व पुनर्वास अधिनियम, 2013 को लागू करने का वादा किया है. ये सब काफी महत्व रखते हैं और प्रत्यक्ष संघर्ष के इलाके के बाहर के लोगों साथ ही हिंसा और ग़ैरकानूनी खनन से चोटिल जीवन में भी एक बदलाव लाने का काम कर सकते हैं

कांग्रेस ने ‘सभी नक्सल प्रभावित पंचायत’ को एक करोड़ रुपये देने का भी वादा किया है. लेकिन पंचायतों को पैसा देने से समस्या समाधान नहीं होगा. एक कड़वी सच्चाई यह है कि सबसे ज्यादा ‘माओवाद प्रभावित पंचायतों’ में फंड को खर्च करने का फैसला माओवादी करते हैं न कि सरकार.

माओवादियों की शिकायत है कि जिला के अधिकारियों और सलवा जुडूम के शिविरों में रहने वाले सरपंचों की मिलीभगत से पैसा सिर्फ कागजों पर खर्च होता है.

उनका यह भी कहना है कि पैसे को इस तरह से बहाना लोगों को भ्रष्ट बनाता है. उन्होने अपने इलाकों में स्वावलंबन मॉडल का विकास किया है, जिसमें लोग एक-दूसरे के खेतों में काम करते हैं और मिलकर तालाबों का निर्माण करते हैं.

हालांकि ‘लोग’ पंचायत फंड चाहते हैं, ताकि वे आंध्र प्रदेश कुली मजदूर की तरह प्रवास करने की जगह अपने ही गांवों का विकास कर सकें, लेकिन इन इलाकों में वे अपनी जमीन और जीवन की रक्षा के लिए सरकार से ज्यादा भरोसा माओवादियों पर करते हैं.

ग्रामीण लोग स्कूल और स्वास्थ्य सुविधाएं चाहते हैं. सरकार यह कह रही है कि शिक्षक सुरक्षा के बगैर गांवों में वापस नहीं जा सकते हैं.  लेकिन लोगों को इन दोनों में जुड़ाव नजर नहीं आता. उनके लिए सुरक्षा कैंप ही असुरक्षा का सबसे बड़ा स्रोत हैं. ये जटिल हालात तभी बदलेंगे, जब सरकार न्याय को अपनी पहली प्राथमिकता बनाएगी.

सौभाग्य से दुनिया भर में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहां लंबी चलने वाली उग्रवाद विरोधी कार्रवाइयों का हल निकाला गया है, मसलन, पेरू का ट्रूथ एंड रीकंसिलिएशन कमीशन या ग्वाटेमाला का कमीशन फॉर हिस्टोरिकल क्लैरिफिकेश.

अपने घर की बात करें तो हम पहले ही सुप्रीम कोर्ट में एक पुनर्वास योजना जमा कर चुके हैं, जो कुछ निश्चित प्रक्रियाओं का खाका पेश करते हैं.

इनमें जान-माल  नुकसान का जायज़ा लेने के लिए बस्तर के संघर्ष प्रभावित गांवों का सर्वे करना, गलत तरीके से नक्सली मामलों में आरोपित लोगों को रिहा करने के लिए फास्टट्रैक अदालतों का गठन और स्कूल, आंगनवाड़ी, जन वितरण प्रणाली जैसी बुनियादी सुविधाओं की बहाली शामिल है.

एक दशक से ज्यादा समय से हम इस पुनर्वास की कवायद की देखरेख करने के लिए एक स्वतंत्र निगरानी समिति या कम से कम एक संयुक्त समिति की दरख़्वास्त कर रहे हैं, जिसमें सभी पक्ष एक-दूसरे का दुश्मन होने के बजाय साथ मिलकर काम करें.

अपनी पूर्ववर्ती सरकार के उलट जिसे यह लगता था कि ऐसे मामलों में जहां सबूत पूरी तरह से उसके खिलाफ हो, अपने विरोधियों को अपमानजनक झूठे आरोपों के तहत गिरफ्तार कर लेना ही कानूनी लड़ाई लड़ने का तरीका है, इस सरकार को सम्मानजनक ढंग से काम करना चाहिए.

इसे राज्य को पत्रकारों, रिसर्चरों, वकीलों और एक्टिविस्टों के लिए खुला छोड़ देना चाहिए, जिन्हें अतीत में धमकाया जाता था, बाहर निकाल दिया जाता था, बदनाम किया जाता था.

और उनके खिलाफ लगाए गए सभी झूठे मुकदमों को वापस ले लेना चाहिए. बस्तर घमंड में डूबे हुए पुलिस अधिकारियों की जागीर बना हुआ नहीं रह सकता है जो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर पत्थर बरसाने या उनपर एसयूवी चढ़ा देने की धमकी देते हैं.

यह निश्चित है कि जहां बीजापुर के सलवा जुडूम नेता विक्रम मंडावी जैसे एमएलए हों, वहां मानवाधिकार उल्लंघन के लिए जिम्मेदार लोगों पर मुकदमा चलाना मुश्किल होगा लेकिन यह नामुमकिन नहीं है.

झीरम घाटी घटना जिसमें कांग्रेस नेतृत्व का एक बड़ा हिस्सा मारा गया था, जिसको लेकर कांग्रेसी हलकों में यह माना जाता है कि उसमें भाजपा की मिलीभगत थी, की सचमुच जांच की जानी चाहिए.

लेकिन सरकार को कांग्रेस के इंसाफ से बढ़कर उस जनता के लिए इंसाफ के बारे में सोचना चाहिए, जिसके वे प्रतिनिधि हैं. करने को ढेरों काम हैं- और कई नई शुरुआत भी की जा सकती हैं.

(नंदिनी सुंदर दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाती हैं और बर्निंग फारेस्ट: इंडियाज वॉर इन बस्तर किताब की लेखिका हैं. वे सलवा जुडूम के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट जानेवाले याचिकाकर्ताओं में से एक हैं.)

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