रमन सरकार ने कोर्ट से कहा, याचिकाएं ख़ारिज कर हिमांशु कुमार व सोनी सोरी को दंडित करें

सोनी सोनी को जेल में प्रताड़ित करने और 2009 में एक क़त्लेआम के ख़िलाफ़ दोनों कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी याचिका.

आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी (फोटो: पीटीआई)

सोनी सोनी को जेल में प्रताड़ित करने और 2009 में 16 आदिवासियों की हत्या के मामले में दोनों कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सीबीआई जांच की मांग की थी.

आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी (फोटो: पीटीआई)
आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी (फोटो: पीटीआई)

छत्तीसगढ़ सरकार ने सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी द्वारा दायर की गई याचिका को ख़ारिज करने की मांग की है. सरकारी पक्ष ने ये दलील दी है कि इससे नक्सलवाद से लड़ रहे सुरक्षाबलों का मनोबल गिरेगा. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्रा और एमएम शान्तनागौडर की बेंच से छत्तीसगढ़ सरकार ने कहा है कि सोनी सोरी और हिमांशु कुमार द्वारा 2009 में राज्य में हुए कथित क़त्लेआम के लिए सीबीआई जांच की मांग को लेकर दायर याचिका महज़ नक्सलियों की मदद करने का एजेंडा है.

अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का कहना है कि सरकार की तरफ से मामले पर हलफ़नामा भी दायर किया जा चुका है. उन्होंने यह भी कहा कि हलफ़नामे में कथित घटना के बारे में चौंका देने वाले तथ्य हैं. इस मामले में एफआईआर दर्ज़ कर मामले की जांच के बाद चार्जशीट भी फाइल की जा चुकी है.

मेहता ने अदालत से कहा कि ‘इस याचिका को ख़ारिज कर दिया जाए और याचिकाकर्ताओं के ख़िलाफ़ कठोर कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि भविष्य में यह दूसरों के लिए उदाहरण भी बने.’

सरकारी पक्ष ने अदालत से मांग की है कि ऐसी याचिका और याचिकाकर्ता के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर सरकार राष्ट्रहित में फ़ैसले ले, ताकि अदालत की दीनता का कोई भी दुरुपयोग न करे. सुरक्षाबलों पर झूठी कहानी बनाकर याचिका दायर करना नक्सलियों को मदद करना है. यह सुरक्षाबलों और उनके प्रयासों का मनोबल गिराना है.

अदालत की बेंच ने हलफ़नामा स्वीकार करते हुए मामले की सुनवाई चार हफ़्ते बाद रखी है. अदालत ने सोनी सोरी और हिमांशु कुमार से भी कहा है कि यदि वे कोई प्रतिवाद दर्ज कराना चाहें तो दायर कर सकते हैं.

राज्य के स्थायी वकील अतुल झा के ज़रिए दर्ज हलफ़नामे में आरोप लगाया है कि ‘कार्यकर्ताओं ने इस अदालत के संवैधानिक अधिकार क्षेत्र को नक्सलवाद से लड़ने वाले सुरक्षाबलों को हतोत्साहित करने और इस तरह राज्य सरकार को बदनाम करने के लिए दुरुपयोग किया हैं.’

सरकार पक्ष द्वारा आगे कहा गया कि राज्य नक्सल प्रभावित था और सुरक्षाबलों ने इस ख़तरे को नियंत्रित करने के लिए अपनी पूरी कोशिश की थी और कई सुरक्षाकर्मियों ने नक्सलवाद से लड़ते हुए अपनी जान भी गंवाई है.

सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार (फोटो: फेसबुक से)
सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार (फोटो: फेसबुक से)

मेहता ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर तीस हजारी कोर्ट में दर्ज गवाहों के बयान और मुक़दमेबाज़ी के दौरान हिमांशु कुमार द्वारा किए गए दावों और आरोपों का खंडन किया गया था. इस बयान को अदालत ने पारित आदेश के तहत जिला न्यायाधीश द्वारा दर्ज किया गया था और उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग भी हुई थी. यह रिकॉर्डिंग हिमांशु कुमार के मौजूदगी में हुआ था.

सरकार के हलफ़नामा में यह भी कहा गया है कि, ‘सच्चाई विवादित नहीं हो सकती और वास्तव में विवादित नहीं है. यह स्पष्ट रूप से पता चलता है कि याचिकाकर्ता ने जानबूझकर संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक तुच्छ याचिका दायर करके क़ानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग किया है.’

राज्य सरकार की ओर से यह भी कहा गया है कि याचिकाकर्ताओं की मांग के मुताबिक पहले से मुआवज़े का भुगतान किया जा चुका है.

गौरतलब है कि हिमांशु और सोनी ने याचिकाएं दायर करके आरोप लगाया था कि छत्तीसगढ़ में नक्सल विरोधी अभियान के बहाने आदिवासियों की हत्या की जा रही है. एक याचिका में आरोप है कि 2009 में दंतेवाड़ा ज़िले के एक गांव में हुए क़त्लेआम में विशेष पुलिस अधिकारी और अन्य सुरक्षाबल के जवान शामिल थे.

इस बारे में सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का कहना है, ‘छत्तीसगढ़ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से दो याचिकाएं खारिज करने, सोनी सोरी व मुझपर ज़ुर्माना लगाने के लिए कहा है. पहली याचिका सोनी सोरी की है जिसमें उन्होंने थाने में अपने गुप्तांगों में पुलिस अधीक्षक द्वारा पत्थर भरने के ख़िलाफ़ दायर की थी. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सोनी सोरी की मेडिकल कॉलेज में जांच कराई थी जिसमें सोनी सोरी के शरीर से पत्थर के टुकड़े निकले थे, इसके बावजूद सरकार सोनी की इस याचिका को झूठा कह रही है.’

हिमांशु के मुताबिक, ‘दूसरी याचिका मेरी है. सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन ने छत्तीसगढ़ के गोमपाड गांव में 2009 में सोलह आदिवासियों की हत्या की थी. गांव वाले मेरे पास मदद मांगने आए, दिल्ली और रायपुर से कई साथी इस मामले की जांच करने गए, हमने सैंकड़ों आदिवासियों से बात की, सभी ने घटना की पुष्टि की. बारह आदिवासी मेरे साथ दिल्ली आए और प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने पूरे हत्याकांड का वर्णन किया. सुप्रीम कोर्ट में बारह आदिवासियों के साथ मैंने याचिका दायर की. इसके बाद जब हम छत्तीसगढ़ लौटे तो सरकार ने मेरी हत्या की योजना बनाई और मुझे छत्तीसगढ़ छोड़ना पड़ा. उन सभी आदिवासियों को गायब कर दिया गया और बाद में उनसे दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में बयान दर्ज़ करवाया गया. बयान के बाद पुलिस ने उन सभी को फिर से गायब कर दिया. इस मुक़दमे में अब सिर्फ़ मैं बचा हूं जो कोर्ट पहुंच सकता हूं.’

छत्तीसगढ़ सरकार के पक्ष पर सवाल उठाते हुए हिमांशु कहते हैं, ‘सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि हिमांशु कुमार ने यह मामला नक्सलियों को मदद पहुंचाने के लिए और सुरक्षाबलों का मनोबल कम करने के लिए दायर किया है. इसका मतलब यह है कि अगर आपके पास भारत का कोई नागरिक मदद मांगने आता है तो आप उसकी मदद ना करें. न्याय मांगने और अदालत में जाने से किसी का मनोबल कैसे कम हो जाता है? अगर मुक़दमा झूठा होगा तो अदालत अंधी तो है नहीं जो सैनिकों को सज़ा दे देगी? मेरी याचिका के बाद भी बस्तर में सैनिक लगातार बलात्कार और निर्दोष आदिवासियों की हत्याएं कर रहे हैं. काश मनोबल का इस्तेमाल संविधान और नागरिकों को बचाने में होता. लेकिन मनोबल का इस्तेमाल पूंजीपतियों के लिए ज़मीनों पर कब्ज़े के लिए आदिवासियों को डराने और उन पर ज़ुल्म करने के लिए किया जा रहा है.’

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