क्या गांधी नस्लवादी थे?

उम्र के दूसरे दशक में गांधी निस्संदेह एक नस्लवादी थे. वे सभ्यताओं के पदानुक्रम यानी ऊंच-नीच में यक़ीन करते थे, जिसमें यूरोपीय शीर्ष पर थे, भारतीय उनके नीचे और अफ्रीकी सबसे निचले स्थान पर. लेकिन उम्र के तीसरे दशक तक पहुंचते-पहुंचते उनकी टिप्पणियों में अफ्रीकियों के भारतीयों से हीन होने का भाव ख़त्म होता गया.

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उम्र के दूसरे दशक में गांधी निस्संदेह एक नस्लवादी थे. वे सभ्यताओं के पदानुक्रम यानी ऊंच-नीच में यक़ीन करते थे, जिसमें यूरोपीय शीर्ष पर थे, भारतीय उनके नीचे और अफ्रीकी सबसे निचले स्थान पर. लेकिन उम्र के तीसरे दशक तक पहुंचते-पहुंचते उनकी टिप्पणियों में अफ्रीकियों के भारतीयों से हीन होने का भाव ख़त्म होता गया.

घाना विश्वविद्यालय में लगी महात्मा गांधी की प्रतिमा. (फोटो साभार: फेसबुक/ Sajith Sukumaran)
घाना विश्वविद्यालय में लगी महात्मा गांधी की प्रतिमा. (फोटो साभार: फेसबुक/Sajith Sukumaran)

क्या मोहनदास करमचंद गांधी नस्लवादी थे? घाना में गांधी की एक मूर्ति को हटाए जाने के बाद यह सवाल फिर से पूछा जा रहा है. जिस याचिका के आधार पर गांधी की मूर्ति को हटाया गया, उसमें गांधी के कई बयानों का हवाला दिया गया. लेकिन इसमें गौर करने लायक बात यह है कि ये सारे उद्धरण दक्षिण अफ्रीका में उनके शुरुआती वर्षों से वास्ता रखते हैं.

अफ्रीका, अफ्रीकियों, नस्ल और नस्लवाद को लेकर अपनी वयस्क परिपक्वता में गांधी ने क्या कहा, या इनको लेकर गांधी के विचार क्या थे, इसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है.

अपनी उम्र के दूसरे दशक में गांधी निस्संदेह एक नस्लवादी थे. वे सभ्यताओं के पदानुक्रम यानी ऊंच-नीच में यकीन करते थे, जिसमें यूरोपीय शीर्ष पर थे, भारतीय उनके ठीक नीचे थे और अफ्रीकी पूरी तरह से सबसे निचले स्थान पर.

उन्होंने अफ्रीका के स्थानीय निवासियों के बारे में एक एहसान करनेवाली, यहां तक कि अपमानजनक भाषा में बात की है. लेकिन, उम्र के तीसरे दशक की मध्य के आसपास पहुंचते-पहुंचते गांधी की टिप्पणियों में अफ्रीकियों को भारतीयों से हीन के तौर पर पेश करने का भाव समाप्त होता जाता है.

मई, 1908 में जोहान्सबर्ग वायएमसीए में गांधी द्वारा दिए गए एक बेहद दिलचस्प (मगर उपेक्षित) भाषण से गांधी के विचारों में हुए विकास का पता चलता है. वे ‘क्या एशियाई और गैरश्वेत नस्लें साम्राज्य के लिए खतरा हैं?’ विषय पर एक बहस में भागीदारी कर रहे थे.

हो सकता हे कि शायद गांधी वहां मौजूद एकमात्र गैर-श्वेत रहे हों; लेकिन यह बात निश्चित है कि वे इकलौते गैर-श्वेत वक्ता थे इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि अफ्रीकी और एशियाई मजदूरों के श्रम ने साम्राज्य को उसका मौजूदा रूप दिया है.

उन्होंने सवाल किया, ‘भारत के बिना कौन अंग्रेजी साम्राज्य की कल्पना कर सकता है?’ साथ ही यह भी जोड़ा: ‘अफ्रीकियों के बिना दक्षिण अफ्रीका शायद एक शोर करता हुआ उजाड़ होता.’

उन्होंने जोर देते हुए कहा ‘अंग्रेजी नस्ल का मिशन, तब भी जब प्रजा नस्लें हों, उन्हें अपनी बराबरी पर लाना और उन्हें पूरी तरह से स्वतंत्र संस्थाएं देना और उन्हें पूरी तरह से स्वतंत्र व्यक्ति बनाना है.’

As a young lawyer in South Africa, Gandhi took up the fight against racial oppression. Image: Photographer unknown/Wikimedia Commons
दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी. (फोटो साभार: gandhi.southafrica.net)

इस तरह से 1908 तक, गांधी इस बात में स्पष्ट थे कि सभी अफ्रीकियों और साथ ही साथ भारतीयों को पूरी तरह से यूरोपीयों के बराबर रखे जाने की जरूरत थी.

अगले साल जर्मिस्टन में दिए गए एक और भाषण में उन्होंने कहा कि अगर अफ्रीकियों  ने नस्लीय भेदभाव के खिलाफ अहिंसक संघर्ष का रास्ता अख्तियार किया तो ‘शायद स्थानीय निवासियों की कोई भी समस्या बाकी नहीं रहेगी.’

गांधी का अफ्रीका में प्रवास जितना लंबा होता गया, उतना ही वे अपने लड़कपन और जवानी के दिनों के नस्लवाद को खुद से दूर झटकते गए. 1910 में उन्होंने टिप्पणी की, ‘सिर्फ नीग्रो लोग ही धरती के असली बाशिंदे हैं… दूसरी तरफ श्वेतों ने जमीन पर बलपूर्वक कब्जा किया और उसे अपने लिए हथिया लिया है.’

अब तक गांधी के अखबार इंडियन ओपिनियन में श्वेत सरकार द्वारा अफ्रीकियों के साथ किए जानेवाले भेदभाव की खबरें प्रकाशित होने लगीं थीं. ऐसी ही एक रिपोर्ट प्रिटोरिया में वार्षिक हाई स्कूल परिक्षाओं से संबंधित थी.

अतीत में अफ्रीकी छात्रों को उनके श्वेत साथियों के साथ बैठने की इजाजत दी जाती थी. लेकिन इस बार टाउन हॉल, जहां यह परीक्षा होती थी, ने किसी अफ्रीकी या किसी भी दूसरे रंग के व्यक्ति को इमारत में प्रवेश करने से रोकनेवाला प्रस्ताव पारित करके, उन्हें वहां दाखिल होने से रोक दिया गया था. गांधी ने इसे अहिंसक प्रतिरोध के लिए एक पर्याप्त कारण माना.

उन्होंने टिप्पणी की, ‘ऐसे देश में रंगवाले (गैर-श्वेत)  लोग एक काफी कठिन स्थिति में हैं. हमें लगता है कि सत्याग्रह के अलावा इससे बाहर निकलने का कोई और रास्ता नहीं है. ऐसी घटनाएं गोरों द्वारा रंगवाले लोगों को उनके बराबर मानने से इनकार करने का सीधा नतीजा है. इस स्थिति को समाप्त करने के लिए हम ट्रांसवाल में संघर्ष कर रहे हैं. और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि गहरे जमे पूर्वाग्रह से भरे लोगों के खिलाफ संघर्ष की मियाद बड़ी होगी.’

गांधी 1914 में भारत लौट कर आए. नस्ल को लेकर उनके विचार प्रगतिशील ढंग से विकसित होते गए. 1920 के दशक में प्रकाशित उनकी किताब सत्याग्रह इन साउथ अफ्रीका  में गांधी ने अफ्रीकी धर्म का बचाव पूरी शिद्दत के साथ किया.

यूरोपीय धर्मसुधारकों के दावों को खारिज करते हुए गांधी ने लिखा कि ‘अफ्रीकियों को सत्य और असत्य के बीच के अंतर की अचूक समझ है.’

उनको लगता था कि अफ्रीकी लोग सत्यमार्ग का अनुसरण यूरोपियों और भारतीयों से भी कहीं बढ़कर करते हैं. 1920 और 1930 के दशक के गांधी के सत्याग्रहों की अफ्रीकी-अमेरिकी प्रेस में विस्तृत रिपोर्टिंग की गई.

इन रपटों को पढ़कर शिकागो के एक निवासी आर्थर सेवेल ने गांधी को लिखा कि काले लोग काफी उत्साह के साथ और सहानुभूतिपूर्ण ढंग से उनके आंदोलन पर नजर रखे हुए हैं.

सेवेल ने कहा, ‘उनके लोगों की’ भारत और भारतीयों के साथ ‘गहरी सहानुभूति है और वे उनके कष्टों में शामिल हैं…यहां अमेरिका में वे (गोरे नस्लवादी) न सिर्फ हमारी संपत्ति को हमसे छीन कर हमें अन्यायपूर्ण ढंग से जेल में डाल देते हैं, बल्कि वे हमें गिरोह बनाकर घेर लेते हैं, हमें पीट-पीट कर मार देते हैं और हमें जला देते हैं…’

सेवेल का विचार था कि भारत में अंग्रेजी उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष, ‘दुनिया के सभी श्वेत लोगों की आजादी का रास्ता तैयार करेगा.’

इस अफ्रीकी अमेरिकी ने गांधी से कहा, ‘भगवान आपको आशीर्वाद दे और आपको न्यापूर्ण संतुलन की महान लड़ाई को तब तक जारी रखने की क्षमता प्रदान करे, जब तक कि आप सभी अधिकारविहीन लोगों के हक में एक शानदार जीत न हासिल कर लें. यह अमेरिका के 1.4 करोड़ नीग्रो लोगों की प्रार्थना है.’

गांधी अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस और संयुक्त राज्य अमेरिका के नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के संपर्क में थे. 1936 में हॉवर्ड थर्मन- जो भविष्य में मार्टिन लूथर किंग के एक सलाहकार होनेवाले थे- गांधी से मिलने के लिए सेवाग्राम आए थे.

थर्मन ने लिखा कि कैसे इस भारतीय नेता ने उनकी गहन परीक्षा ली: ‘अमेरिकी नीग्रो लोगों, उनकी गुलामी की कहानी और हम इसमें कैसे खुद को जीवित रख पाए, को लेकर आग्रह के साथ व्यावहारिक प्रश्न पूछे.’

गांधी इस बात को लेकर आश्चर्यचकित थे कि अत्याचार से बचने या उसका विरोध करने के लिए गुलामों ने इस्लाम धर्म को नहीं अपनाया, क्योंकि जैसा उन्होंने कहा, ‘मुसलमानों का धर्म दुनिया का एकमात्र ऐसा धर्म है, जिसमें धार्मिक अनुयायियों के अंदर रेखाएं नहीं खींची गई है. एक बार जब इसमें शामिल हो जाते हैं, आप हर तरह से इसके हो जाते हैं.’

थुर्मन गांधी की जिज्ञासा और उनकी दिलचस्पी के दायरे, दोनों से ही काफी प्रभावित हुए. उनके मुताबिक गांधी, ‘मताधिकार, प्राणघातक पिटाई (लिंचिंग), भेदभाव, सार्वजनिक विद्यालयी शिक्षा, चर्चों और उनके कामकाज के तरीकों के बारे में जानना चाहते थे. उनके सवालों में अमेरिकी समाज के भीतर का हमारा सारा अनुभव जगत शामिल था.’

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माउंटबेटन परिवार के साथ गांधी

तीन साल बाद, अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (एएनसी) के एक नेता एसएस टेमा ने सेवाग्राम का दौरा किया. उन्होंने गांधी से जो पहला सवाल पूछा वह यह था कि एएनसी, इंडियन नेशनल कांग्रेस से क्या सीख सकती है?

गांधी का विचार था कि एएनसी के नेता जरूरत से ज्यादा यूरोपीय रंग में रंगे हैं, वे पश्चिमी पोशाक पहनते हैं और ईसाई धर्म को मानते हैं, दोनों ही तरह से वे अफ्रीकी बहुसंख्यक से अलग दिखते हैं. उन्होंने टेमा से कहा, ‘आपलोगों के लिए जरूरी है कि आप एक बार फिर से अफ्रीकी बन जाएं.’

गांधी ने टेमा से कहा कि वे अफ्रीकियों और भारतीयों के बीच ‘दोस्ताना संबंधों’ का निर्माण करना चाहते हैं. उनका विचार था कि ‘भारतीयों को हमेशा अफ्रीकियों के साथ खड़े रहकर’ उनमें विश्वास पैदा करना चाहिए.

‘उन्हें आपकी वैध आकांक्षाओं के विरोध में नहीं खड़ा होना चाहिए या आपकी कीमत पर कुछ मुरव्वत पाने के लिए अपनी प्रशंसा ‘सुसंस्कृत’ लोगों के तौर पर करते हुए आपको ‘असभ्य’ करार नहीं देना चाहिए.

अंत में आगंतुक ने पूछा कि क्या ईसाई धर्म ‘अफ्रीका को मुक्ति’ दिला सकता है? गांधी का जवाब पूर्णता में उद्धृत करने के लायक है:

‘जिस रूप में ईसाई धर्म आज जाना जाता है और पालन किया जाता है, वह आपको लोगों को मुक्ति नहीं दिला सकता. यह मेरा दृढ़ मत है कि आज जो लोग खुद को ईसाई कहते हैं, वे ईसा मसीह के सच्चे संदेश को नहीं जानते. जु़लू विद्रोह के दौरान जु़लुओं पर जो जुल्म किए गए, मैं उनमें से कुछ का गवाह था. इस कारण कि एक व्यक्ति, उनके मुखिय बमबाटा, ने अपना कर चुकाने से मना कर दिया था- पूरी नस्ल के साथ अत्याचार किया गया. मैं एक एंबुलेंस दस्ते का हिस्सा था. मैं कभी भी मार के निशान वाली जख्मी पीठ वाले जु़लुओं को नहीं भूल पाऊंगा जो हमारे पास मरहम पट्टी के लिए इस कारण लाए गए थे कि कोई भी श्वेत नर्स उनकी तीमारदारी करने के लिए तैयार नहीं थी. और फिर भी इन क्रूरताओं को अंजाम देनेवाले लोग खुद को ईसाई कहते थे. वे ‘शिक्षित’ थे, जु़लुओं की तुलना में उनका पहनावा अच्छा था, मगर वे नैतिक तौर पर उनसे श्रेष्ठ नहीं थे.’

ये टिप्पणियां अफ्रीकियों को लेकर गांधी के पुराने विश्वासों से न सिर्फ निर्णायक ढंग से आगे की चीज थी, बल्कि कुछ मायनों उन्हें खारिज करनेवाली भी थीं. अब वे सभ्यताओं के उस पदानुक्रम में यकीन नहीं करते थे, जिसके मुताबिक ईसाई और हिंदू शीर्ष पर थे और अफ्रीकी सबसे निचले पायदान पर थे.

साम्राज्यवाद को लेकर अपने पहले के अनुकूल विचारों को कब का खारिज कर चुके थे. यूरोपीय, जुलुओं से नैतिक तौर पर श्रेष्ठ नहीं थे. धन और सत्ता को हासिल करने के लिए खुद को ‘ईसाई’ कहने वाले राष्ट्र पूरी तरह से बर्बर हो सकते थे.’

1946 में दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों का एक प्रतिनिधिमंडल गांधीजी से मिलने आया. गांधीजी ने उनसे राजनीति को लेकर अलग-थलग चलने वाले रवैये को खारिज करने के लिए कहा.

Gandhi in Johannesburg Wikimedia Commons
जोहान्सबर्ग में महात्मा गांधी (फोटो: विकिमीडिया कॉमन्स)

गांधी जी ने उनसे कहा कि उन्हें ‘जुलुओं और बान्टुओं के साथ भी मिलकर काम करना चाहिए’. गांधी ने टिप्पणी की, ‘आज का नारा एशियाइयों के लिए एशिया या अफ्रीकियों के लिए अफ्रीका नहीं है बल्कि दुनिया की सभी शोषित नस्लों की एकता है.’

1946 के आखिरी हफ्ते में गांधीजी ने लिखा कि ‘दक्षिण अफ्रीका में भारतीय एक बहुत बड़े बोझ को अपने ऊपर ढो रहे हैं, जिसे उतार फेंकने की उनमें पूरी शक्ति है. दुनिया के सबसे शक्तिशाली हथियार सत्याग्रह का जन्म और विकास वहां हुआ. अगर वे इसका प्रभावशाली इस्तेमाल करते हैं, तो यह उनके पवित्र ध्येय में काफी मददगार होगा…यह ध्येय भारत का सम्मान है और उसके रास्ते धरती के शोषित रंगवाले (गैर-श्वेत) नस्लों, चाहे वे भूरे हों या पीले या काले, सबके लिए है. यह उन सभी कष्टों के योग्य है, जिसे सहने में वे सक्षम हैं.’

दक्षिण अफ्रीका में आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी की खबरों को पढ़ने के बाद गांधी ने अपने अखबार में एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था ‘व्हाइट मैन्स बर्डन’ (गोरे व्यक्ति का कर्तव्य).

उन्होंने कहा, ‘असली ‘गोरे व्यक्ति का कर्तव्य’ अक्खड़ तरीके से गैर-श्वेत या काले व्यक्ति पर उनकी रक्षा के बहाने वर्चस्व कायम करना नहीं, बल्कि उस पाखंड से दूर रहना है, जो उन्हें खाए जा रहा है. यह समय है जब गोरे आदमी सभी इंसानों के साथ बराबरी का बर्ताव करना सीखें.’

गांधी के ये शब्द दोहराए जाने के लायक हैं: यह समय है जब गोरे लोग सभी इंसानों के साथ बराबरी का बर्ताव करना सीखें. यहां इस चीज पर ध्यान गए बगैर नहीं रहता कि घाना में दायर की गई याचिका का आखिरी हवाला 1906 का है.

गांधी के जीवन के आखिरी चार दशकों को पूरी तरह से छोड़ दिया गया है. क्या यह अज्ञान के कारण हुआ या इसके पीछे कोई दुर्भावना काम कर रही थी? हमें इसकी जानकारी नहीं है. लेकिन इस मामले में ऐतिहासिक दस्तावेज काफी स्पष्ट हैं.

हो सकता है कि एक नौजवान के तौर पर गांधी नस्लवादी रहे होंगे, लेकिन समय बीतने के साथ-साथ उन्होंने अपने नस्लवाद को पूरी तरह से छोड़ दिया. उन्होंने सभी जातियों, वर्गों, नस्लों, धर्मों और राष्ट्रीयताओं के लोगों से बराबरी के स्तर पर मित्रता और मुलाकात की.

उन्होंने बार-बार यह कहा कि अहिंसक प्रतिरोध या सत्याग्रह का औजार सभी नस्लों द्वारा सहे जानेवाले सभी तरह के अत्याचारों से निजात पाने के लिए जरूरी है. इसलिए अगर मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला जैसे अफ्रीकी मूल के महानतम आधुनिक नेताओं ने गांधी को एक मॉडल के तौर पर और नस्लीय भेदभाव के खिलाफ अपने संघर्षों में एक मिसाल के तौर पर देखा, तो इसका अपना अच्छा-भला तर्क है.

(लेखक इतिहासकार हैं. उनकी किताबों में गांधी पर गांधी बिफोर इंडिया और गांधी: द इयर्स थैट चेंज्ड द वर्ल्ड जैसी किताबें शामिल हैं.)

इस लेख का एक संक्षिप्त अंश द टेलीग्राफ में प्रकाशित हुआ है. अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)