विशेष रिपोर्ट: कृषि मंत्रालय ने वरिष्ठ भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसद की प्राक्कलन समिति को बताया कि अगर समय रहते प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो धान, गेहूं, मक्का, ज्वार, सरसों जैसी फसलों पर जलवायु परिवर्तन का काफी बुरा प्रभाव पड़ सकता है. समिति ने इस समस्या को हल करने के लिए सरकार की कोशिशों को नाकाफ़ी बताया है.
नई दिल्ली: जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और बढ़ता प्रदूषण न केवल लोगों के स्वास्थ्य पर सीधा असर डाल रहे हैं, बल्कि खेतों में पैदा हो रही फसलें भी इनसे प्रभावित हैं.
कृषि मंत्रालय ने संसदीय समिति को सौंपे लिखित जवाब में कहा है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से धान, गेहूं, मक्का, ज्वार, सरसों, आलू, कपास और नारियल जैसी फसलों पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है. द वायर के पास मंत्रालय द्वारा दिए गए जवाब की कॉपी उपलब्ध है.
कृषि मंत्रालय ने वरिष्ठ भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसद की प्राक्कलन समिति को बताया कि अगर समय रहते प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो 2050 तक गेहूं का उत्पादन छह से 23 प्रतिशत तक कम हो सकता है.
मंत्रालय ने कहा कि तापमान के हर एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पर छह हज़ार किलो गेहूं का उत्पादन कम हो सकता है.
इसी तरह मंत्रालय ने संसदीय समिति को बताया है कि मक्के का भी उत्पादन 2050 तक 18 प्रतिशत कम हो सकता है. अगर भविष्य के लिए अनुकूल कदम उठाए जाएंगे तो इसका उत्पादन 21 प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है.
वहीं 2020 तक जलवायु परिवर्तन की वजह से चावल का उत्पादन चार से छह प्रतिशत तक कम हो सकता है. हालांकि प्रभावी कदम उठाने पर चावल का उत्पादन 17 से 20 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है.
बता दें कि मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसद की प्राक्कलन समिति ने ‘जलवायु परिवर्तन पर नेशनल एक्शन प्लान का प्रदर्शन’ पर 30वीं रिपोर्ट तैयार की है. ‘जलवायु परिवर्तन पर नेशनल एक्शन प्लान’ (एनएपीसीसी) के तहत कुल आठ राष्ट्रीय मिशन आते हैं जिसमें कृषि भी शामिल है.
समिति ने ये रिपोर्ट तैयार करने के दौरान सरकार द्वारा चलाई जा रही कृषि से संबंधित योजनाओं के आंकड़े और उनके लागू करने की स्थिति के बारे में विस्तृत जानकारी मांगी थी. समिति ने कहा कि जलवायु परिवर्तन की वजह से पूरी पृथ्वी प्रभावित है और इसकी वजह से कृषि पर काफी बुरा प्रभाव पड़ रहा है.
जलवायु परिवर्तन की वजह से खाद्य वस्तुओं की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ सकता है. कार्बन डाइ ऑक्साइड के बढ़ने की वजह से अनाज में प्रोटीन की मात्रा और अन्य मिनरल्स जैसे कि जिंक और आयरन की कमी हो सकती है.
संसदीय समिति ने जलवायु परिवर्तन की वजह से कृषि पर पड़ रहे प्रभावों के समाधान पर सरकार की कोशिशों पर निराशा जताते हुए इसे नाकाफी बताया है. समिति ने कहा कि अगर किसान और कृषि को इन समस्याओं से बचाना है तो सरकार को ज्यादा से ज्यादा जैविक खेती को बढ़ावा देना होगा.
मंत्रालय ने बताया कि आलू का उत्पादन भी 2020 तक 2.5 प्रतिशत, 2050 तक 6 प्रतिशत और 2080 तक 11 प्रतिशत कम हो सकता है. हालांकि भविष्य के लिए सोयाबीन को लेकर अच्छे संकेत हैं. कृषि मंत्रालय के मुताबिक सोयाबीन का उत्पादन 2030 से लेकर 2080 तक में आठ से 13 प्रतिशत तक बढ़ सकता है.
इसी तरह पश्चिमी तटीय क्षेत्रों जैसे कि केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में नारियल के उत्पादन में वृद्धि होने की उम्मीद है. जलवायु परिवर्तन से सेब के उत्पादन पर भी काफी बुरा असर पड़ रहा है.
इसी तरह दूध के उत्पादन पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है.
कृषि मंत्रालय ने बताया कि 2020 तक 1.6 मीट्रिक टन और 2050 तक 15 मीट्रिक टन दूध का उत्पादन कम हो सकता है. इस मामले में सबसे ज्यादा नुकसान उत्तर प्रदेश में हो सकता है. इसके बाद तमिलनाडु, राजस्थान और पश्चिम बंगाल इससे प्रभावित हो सकते हैं.
मंत्रालय ने यह भी बताया कि तापमान बढ़ने की वजह से अंडा और मांस उत्पादन में कमी आती है. जलवायु परिवर्तन की वजह से मिट्टी का कटाव बढ़ सकता है और पानी की उपलब्धता एवं गुणवत्ता को प्रभावित करने का अनुमान है.
कृषि मंत्रालय ने कहा, ‘भारतीय किसान जलवायु संबंधी जोखिम को अपना रहे हैं. बेहतर किस्मों, फसल विविधीकरण, फसल, जल और पशुधन प्रबंधन, मूल्य परिवर्धन इत्यादि जैसी रणनीतियों से जलवायु जोखिमों के अनुकूल कृषि को तैयार करने में मदद मिली है.
मंत्रालय ने आगे कहा, ‘छोटे और सीमांत किसान परिवार (जिनके पास चार एकड़ से कम जमीन है) केवल कृषि के जरिए अपनी जीवन-यापन नहीं कर सकते हैं. हालांकि, अनुकूलन के जरिए एक आत्मनिर्भर कृषि प्राप्त की जा सकती है.’
जलवायु परिवर्तन में कृषि क्षेत्र की भूमिका
एक तरफ जहां जलवायु परिवर्तन की वजह से कृषि उत्पादन कम होने के संकेत हैं, वहीं कृषि के लिए इस्तेमाल की जाने वाली चीजों की वजह से काफी हद तक जलवायु परिवर्तन हो रहा है.
कृषि मंत्रालय ने बताया है कि खाद और कीटनाशकों के अंधाधुंद प्रयोग से पर्यावरण में ग्रीनहाउस गैस की मात्रा काफी बढ़ रहा है. पराली जलाने की वजह से भी प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है. मंत्रालय ने बताया कि 1970 से लेकर 2014 के बीच में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 80 फीसदी बढ़ गया है. चावल के खेतों से 33 लाख टन मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है. इसी तरह 0.5 से 2.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रस ऑक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है.
कुल नाइट्रस ऑक्साइड गैस का 75 से 80 फीसदी हिस्सा रासायनिक खाद से निकलता है.
मंत्रालय ने बताया कि एक आकलन के मुताबिक भारत में हर साल 550-550 मीट्रिक टन पराली का उत्पादन होता है, वहीं एक अन्य आकलन के हिसाब से ये आंकड़ा 600-620 मीट्रिक टन है. हर साल इसका 15.9 प्रतिशत हिस्सा जला दिया जाता है, जो कि प्रदूषण को बढ़ाता है.
पराली जलाने की वजह से कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैस निकलती है और इसकी वजह से ग्लोबल वॉर्मिंग होता है.
एक टन धान की पराली जलाने पर तीन किलो पार्टिकुलेट मैटर (पीएम), 60 किलो कार्बन मोनोऑक्साइड, 1460 किलो कार्बन डाईऑक्साइड और दो किलो सल्फर डाईऑक्साइड निकलता है.
कुल पराली जलाने में 40 प्रतिशत हिस्सा धान का है. इसके बाद 22 प्रतिशत हिस्सा गेहूं और 20 प्रतिशत हिस्सा गन्ने का है. वहीं, मंत्रालय ने बताया कि कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग की वजह से वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण और जल प्रदूषण हो रहा है.
हालांकि प्रति हेक्टेयर के हिसाब से भारत में कीटनाशक का प्रयोग विश्व में सबसे कम 0.6 किग्रा/हेक्टेयर है, लेकिन ज्यादातर कीटनाशकों का प्रयोग बिना किसी सावधानी प्रक्रिया के होता है जिसकी वजह से शरीर, मृदा, पानी और हवा में बुरा प्रभाव पड़ता है.
जलवायु परिवर्तन के समाधान को लेकर समिति ने सरकार की कोशिशों पर जताई निराशा
ग्रीनहाउस गैसों को कम करने में जैविक खेती की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका होती है. जैविक खेती में पहले से ही काफी नाइट्रोजन की मात्रा होती है और इसकी वजह से रासायनिक नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग नहीं करना पड़ता है.
इस तरह वायुमंडल में नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा कम होने लगती है क्योंकि अगर रासायनिक नाइट्रोजन युक्त खाद का प्रयोग किया जाता है तो इससे भारी मात्रा में नाइट्रोजन ऑक्साइड गैस निकलती है.
जैविक खेती की वजह से कार्बन डाईऑक्साइड की भी मात्रा घटती है. हालांकि संसदीय समिति ने सरकार द्वारा इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों को नाकाफी बताया है और इसमें बढ़ोतरी करने की मांग की है.
संसदीय समिति ने कहा, ‘समिति को लगता है कि जैविक खेती को और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है क्योंकि रासायनिक उर्वरक आधारित खेती ग्रीन हाउस गैसों में 50 प्रतिशत का योगदान करती हैं.
जैविक खेती वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों का 100 प्रतिशत समाधान प्रदान कर सकती है और कार्बनिक पदार्थों के उपयोग से मिट्टी की पानी रोकने की क्षमता (जल प्रतिधारण क्षमता) भी बढ़ जाती है.’
संसदीय समिति ने कहा है कि जैविक खेती में उत्पादकता रासायनिक खेती के माध्यम से हासिल की गई उत्पादकता की तुलना में कम नहीं है. समिति ने कहा कि जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना के तहत जितनी राशि दी जाती है, वो पर्याप्त नहीं है. जैविक किसानों को और प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए.
समिति ने कहा, ‘रासायनिक उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी को धीरे-धीरे कम किया जाना चाहिए क्योंकि ऐसी सब्सिडी मिट्टी, स्वास्थ्य और जलवायु में गिरावट के लिए प्रोत्साहन प्रदान करने जैसी है.’
कृषि मंत्रालय ने संसदीय समिति को सौंपे लिखित जवाब में ये कहा है कि जैविक खेती की तरफ किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए किसानों को जैविक इनपुट जैसे बायो-खाद, जैविक कंपोस्ट, जैविक कीटनाशक इत्यादि चीजों पर रासायनिक खाद की तरह सब्सिडी दी जानी चाहिए.
समिति ने कहा, ‘उर्वरक विभाग शहर की खाद के उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिए 1500 रुपये/ मीट्रिक टन का बाजार विकास सहायता प्रदान कर रहा है. इस राशि को भी बढ़ाने की जरूरत है.’
समिति ने एक बार फिर ‘जैविक खेती/जैविक कृषि उत्पाद’ की परिभाषा और परिभाषा में एकरूपता लाने पर जोर दिया ताकि घरेलू उपभोग और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देने में कोई कानूनी अड़चन न आए और सरकार से इस संबंध में तत्काल कार्रवाई करने का आग्रह किया है.