…और मेरे भाई ने अस्पताल के गेट पर ही दम तोड़ दिया

'मेरे भाई ने अस्पताल के दरवाज़े पर दम तोड़ दिया क्योंकि बिस्तर नहीं था. ये लोकतंत्र नहीं मुर्दातंत्र है, जिसमें लैपटॉप मिलता है, दंगा मिलता है, इंटरनेट मिलता है पर इलाज नहीं मिलता!'

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प्रतीकात्मक फोटो. साभार-विकीपीडिया

‘मेरे भाई ने अस्पताल के दरवाज़े पर दम तोड़ दिया क्योंकि बिस्तर नहीं था. ये लोकतंत्र नहीं मुर्दातंत्र है, जिसमें लैपटॉप मिलता है, दंगा मिलता है, इंटरनेट मिलता है पर इलाज नहीं मिलता!’

प्रतीकात्मक फोटो. साभार-विकीपीडिया
प्रतीकात्मक फोटो. साभार-विकीपीडिया

बीते 16 अप्रैल को अचानक मेरे मौसेरे भाई की तबियत बिगड़ गई. आनन-फानन में फाफामऊ (इलाहाबाद ) के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया. दो घंटे पश्चात डॉक्टरों ने जवाब दे दिया तो फिर हम उसे इलाहाबाद के ही एक दूसरे निजी अस्पताल में ले गए. इलाहाबाद के सारे बेहतरीन डॉक्टरों ने देखने के बाद शाम छह बजे के क़रीब ब्रेन हैमरेज बताते हुए पीजीआई लखनऊ रेफर कर दिया. ये कहते हुए कि समय रहते पीजीआई पहुंच गए तो ये बच जाएगा.

किसी तरह एक निजी एंबुलेंस करके हम सब लखनऊ भागे. मन में बस एक ही उम्मीद थी कि किसी तरह पीजीआई पहुंच जाएं. ग्यारह बजते-बजाते पीजीआई पहुंच गए. लेकिन पीजीआई वालों ने जगह ख़ाली न होने की बात कहकर दो टूक जवाब दे दिया.

बहुत चिरौरी की, रोया-रिरियाया कि साहेब इलाहाबाद से एक उम्मीद लेकर भागते हुए आए हैं किसी तरह एडमिट कर लीजिए, इमरजेंसी केस है, पर वो बार-बार बेड खाली न होने की बात कहकर चले जाने को कहते रहे.

हम सब लाचार होकर देखते रह गए और मेरे भाई ने पीजीआई के गेट पर ही दम तोड़ दिया.

अपने उस छोटे भाई का शव जलाकर वापस ग़ाज़ियाबाद आ गया हूं जिसका इंटरमीडिएट का अभी एक पेपर बाक़ी था. उस भाई का, जो छुट्टियां बिताने अबकी बार मौसी के यहां आने वाला था. उस भाई का, जिसकी आंखों में कुछ मासूम सपने थे…जिसकी पूरी ज़िंदगी अभी बाक़ी पड़ी थी. मौसी का विलाप असह्य हो चला है.

मैं भाई के चिता की राख सरकारों के मुंह पर मल रहा हूं. आख़िर तीस करोड़ की आबादी पर एक ही पीजीआई क्यों है? देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य में क्यों नहीं है कोई एम्स? अरबों रुपये के हथियार ख़रीदने वाले देश में क्यों नहीं मिल रहा है लोगों को जीने का अधिकार? इलाज का अधिकार?

क्या मेरे भाई की हत्या सरकार ने नहीं की है? आख़िर सुविधासंपन्न हॉस्पिटल की कमी से जूझ रहे प्रदेश में 25 एकड़ ज़मीन पर अरबों रुपये की लागत से रामकथा म्यूज़ियम बनाने वाले सनकी, कब तक सत्ता में बैठकर लीलते रहेंगे देश की युवा पीढ़ी को? कब तक?

जा मेरे भाई जा. मुझे खेद है कि मैं तेरे लिए कुछ न कर सका. मुझे खेद है कि मैं तुझे अपने नागरिकों के हित को सर्वोपरि मानने वाला देश न दे सका. मुझे माफ़ करना मेरे भाई, मैं तुम्हारे सपनों को तुम्हारी आंखों समेत श्रृंग्वेरपुर के घाट पर जला आया.

मैं विनम्र श्रद्धांजलि देता हूं तुम्हें मेरे छोटे भाई. जाओ कि ये देश तुम जैसे युवाओं की क़द्र नहीं करता. जाओ कि इस देश के संसाधनों पर तुम्हारा नहीं हथियारों का हक़ है. भ्रष्टाचारियों, व्यापारियों, लुटेरों का हक़ है मेरे भाई. जाओ कि मैं तुम्हें सिर्फ़ दर्द और आंसू में लिपटी श्रद्धांजलि ही दे सकता हूं.

जाओ, तुम्हारे साथ-साथ मैं केंद्र और राज्य की सरकारों को भी अंतिम श्रद्धांजलि देता हूं कि अब जो हैं वो मुर्दा हैं और मुर्दों से उम्मीदें नहीं होतीं.

तुम्हारे जाने से भी बड़ा दुख क्या होगा तुम्हारी मां के लिए, पर अब ताउम्र कोसेंगे गांव, नातेदार परिवार के लोग कि क्यों तुम्हारी मां ने एक ही बेटा पैदा किया था, जबकि बीमारी से मरना ही है हर घर एक संतान, हर घर एक बेटा दंगे में, हर घर एक बेटा सरहद पर मरना ही है. फिर क्यों तूने एक ही जना? कोसेंगे लोग. और तुम्हारी मां जी-जी कर मरेगी मेरे भाई, मर-मर कर जिएगी.

तुम्हारी मां तुम्हारे अधूरे इम्तेहान का सर्टिफिकेट जब-जब देखेगी, कुढ़ेगी. हर जाते साल के साथ सोचेंगे तुम्हारे पिता कि तुम होते तो आज इतने साल के होते! तुम होते तो ये होते, वो होते और रोएंगे बेआंसू ही.

ये मुर्दापसंद देश है मेरे भाई. यहां सरकारें इलाज के लिए नहीं लाखों रुपये तीर्थाटन के लिए अनुदान देती हैं क्योंकि उन्हें तुम्हारे जीवन की नहीं तुम्हारी मुक्ति की चिंता है. तुम्हारे इस जन्म की नहीं उस जन्म की चिंता है. ये देश जिंदा लोगों के जान की नहीं, मुर्दों के सम्मान की चिंता करता है.

यहां मुर्दों की भव्य क़ब्र बनाने में झोंक दी जाती हैं जिंदा कौमें पीढ़ी दर पीढ़ी. मुर्दों के इस देश में जीने का अधिकार सबको नहीं है मेरे भाई, तभी तो न यहां सस्ती दवाइयां उपलब्ध हैं, न डॉक्टर, न इलाज, न अस्पताल. धर्म की राजनीति करने वालों ने राजनीति को भी धर्म बना लिया है. तभी तो उनकी राजनीति में अस्पताल, सस्ती दवाइयां और इलाज मुद्दे नहीं होते.

उनकी राजनीति के मुद्दे मंदिर होते हैं! श्मशान होते हैं. अस्पतालों में निर्बाध बिजली आपूर्ति की बातें नहीं करते वे. वे मंदिरों और श्मशानों में निर्बाध बिजली देने की बात करते हैं! इस विशाल मरघट में मुर्दों को बिजली चाहिए! हवा चाहिए! छत चाहिए!

तुम्हारी हत्या में वे भी शामिल हैं जिन्होंने पार्क और मूर्तियां बनवाईं हमारे उन पैसों से जो कि उन्हें हमारे लिए अस्पताल बनवाने में खर्च करने थे. वे भी तेरे क़ातिल हैं जिन्होंने हमारे पैसों से सैफई महोत्सव करवाए, करोड़ों रुपये के ठुमके लगवाए बनिस्बत हमारे लिए अस्पताल बनवाने के.

और वे भी तुम्हारे क़ातिल हैं जो देश को ही गौशाला और मंदिर बना देने पर तुले हैं. उसी अस्पताल के पैसे से जो फाइटर विमान, युद्ध के हथियार और बम ख़रीदने में लगे हैं, वे भी तेरे क़ातिल हैं मेरे भाई, वे भी.

ये लोकतंत्र नहीं मुर्दातंत्र है. इस मुर्दातंत्र में लैपटॉप मिलता है, दंगा मिलता है, इंटरनेट मिलता है पर इलाज नहीं मिलता! ये इलाज-विहीन बीमार वर्तमान ही इस मुर्दातंत्र की नियति है मेरे भाई. और इस मुर्दातंत्र का भविष्य? एक तरफ मंदिर, दूसरी तरफ मरघट! क्योंकि जो सत्ता पर अब काबिज़ हैं उनका विश्वास जीवन में नहीं है, वो मिथ्या मानते हैं इस दुनिया को, इस जीवन को!

उनके लिए तो मृत्यु ही सत्य है; शाश्वत है; सनातन है. और इस देश को मरघट ही होना है अब मेरे भाई क्योंकि जिन्हें बचाना है इस देश को मरघट होने से, उस उम्रवय के युवा तो गले में भगवा गमछा डालकर स्वयं ही बलि के लिए प्रस्तुत हो रहे हैं. जाओ मेरे भाई, जाओ कि अब ये विशाल मरघट इन्हें मुबारक हो. इन्हें ही मुबारक हो मुर्दों के भव्य मंदिर.

जाओ मेरे भाई कि अब इस विशाल मरघट में डोम बनकर जिंदा रहूंगा मैं और अपने कंधे पर ढो- ढोकर जलाता रहूंगा युवा पीढ़ी की लाश, उनके सपने, उनके मां- बाप की उम्मीदें, उनके सहारे. जाओ मेरे भाई कि इस विशाल मरघट में अब डोम हूं मैं, तुम्हारा भाई.

(सुशील स्वतंत्र पत्रकार हैं)