क्या संघ नरेंद्र मोदी के बाद नितिन गडकरी पर दांव लगाने की सोच रहा है?

मोदी और शाह की जोड़ी आसानी से मंच छोड़ने वाली नहीं है. भाजपा के भीतर और मतदताओं के बीच नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अभी भी बरक़रार है. नितिन गडकरी क्या कोई भी नेता लोकप्रियता या भाषण कला के मामले में उनके बराबर नहीं है. यह जोड़ी सुनिश्चित करेगी कि गडकरी अपनी हद में ही रहें, साथ ही उन्हें आगे बढ़ने से रोकने की हर मुमकिन कोशिश करेगी.

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नितिन गडकरी और नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीटीआई)

मोदी और शाह की जोड़ी आसानी से मंच छोड़ने वाली नहीं है. भाजपा के भीतर और मतदताओं के बीच नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अभी भी बरक़रार है. नितिन गडकरी क्या कोई भी नेता लोकप्रियता या भाषण कला के मामले में उनके बराबर नहीं है. यह जोड़ी सुनिश्चित करेगी कि गडकरी अपनी हद में ही रहें, साथ ही उन्हें आगे बढ़ने से रोकने की हर मुमकिन कोशिश करेगी.

नितिन गडकरी और नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीटीआई)
नितिन गडकरी और नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीटीआई)

नितिन गडकरी इन दिनों सुर्ख़ियों में हैं. उनके भाषण भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व के ख़िलाफ़ नज़र आते हैं और अगर देखा जाए तो यह नरेंद्र मोदी के भी ख़िलाफ़ होते हैं.

कुछ समय पहले उन्होंने कहा था कि अगर कोई राजनीतिक दल किसी चुनाव में ख़राब प्रदर्शन करता है, तो दल के मुखिया को इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए. इसे भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह पर तंज़ के तौर पर देखा गया, जिन्हें चुनावों में पार्टी के अच्छे प्रदर्शन का श्रेय दिया जाता है. हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में मिली हार के बाद उनकी इस छवि को बड़ा झटका लगा है.

यह स्वाभाविक ही था कि पार्टी के वफ़ादार सिपाही नितिन गडकरी ने अपना रोष प्रकट करते हुए इस बात से इनकार किया कि उनके कहने का ऐसा कोई मतलब था. लेकिन किसी को उनकी बात पर यकीन नहीं है.

अब उन्होंने इंदिरा गांधी की तारीफ़ यह कहते हुए की है कि वे एक मज़बूत नेता थीं, जो स्त्रियों के लिए किसी विशेष आरक्षण का सहारा लिए बिना शीर्ष तक पहुंचीं. उन्होंने इसी तरह से सुषमा स्वराज और दूसरी महिला राजनेताओं की भी तारीफ़ की, लेकिन मीडिया इंदिरा गांधी वाली उनकी बात को ले उड़ा; इसलिए क्योंकि यहां एक कांग्रेसी नेता की तारीफ़ की गई थी.

यहां इस बात को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हमेशा से इंदिरा गांधी के प्रति एक कोमल भाव रहा है या फिर यह सिर्फ़ महिला आरक्षण- या किसी भी तरह के आरक्षण- को लेकर पार्टी के पक्ष का दोहराव भर ही है. गडकरी द्वारा इंदिरा गांधी के उल्लेख की ओर सबका ध्यान गया, तो इसलिए कि वे उसी नेहरू-गांधी परिवार की हैं, जिसे दक्षिणी खेमा अपशब्द कहते नहीं थकता है.

यह बात कि मोदी गडकरी को पसंद नहीं करते हैं, ये एक ऐसा राज़ है जिसे लगभग सब जानते हैं. यह बताने वाले किस्सों की कमी नहीं है कि कैसे महाराष्ट्र का यह नेता मोदी-शाह की जोड़ी द्वारा उपेक्षित महसूस करता है.

नितिन गडकरी को लगता है कि उनके पर कतर दिए गए हैं और इसके सबूत के तौर पर पीएमओ द्वारा उन्हें एक मीडिया कॉन्फ्रेंस में शामिल होने के लिए विदेश यात्रा की इज़ाज़त न देने का हवाला अक्सर दिया जाता है. अगर इसे अफ़वाह भी मान लिया जाए, तो भी अब यह आधिकारिक ख़बर है कि 2019 के लिए पार्टी का घोषणा-पत्र बनाने वाली समिति में गडकरी का नाम नहीं है.

हालांकि, गडकरी ख़ुद भाजपा को पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में प्रधानमंत्री पद की दौड़ में होने के कयासों को ख़ारिज कर चुके हैं, लेकिन जानकारों का यह अनुमान है कि आरएसएस नागपुर निवासी गडकरी का समर्थन कर सकता है, क्योंकि उसे भी मोदी से समस्या है; इसके अलावा गडकरी को ज़्यादा मिलनसार और सबको साथ लेकर चलने वाला माना जाता है, जिनके दूसरी पार्टियो के नेताओं के साथ भी अच्छे संबंध हैं, जो कि गठबंधन सरकार के लिए काफी अहम है.

एनडीए के कई सहयोगियों के लिए वे एक ज़्यादा ‘स्वीकार्य’ चेहरा हो सकते हैं. शिवसेना जैसे घटक दल पूरी तरह से गडकरी के समर्थन में हैं.

इस संभावना का स्वागत कई ऐसे लोगों द्वारा किया गया है, जिनके लिए ‘मोदी के अलावा कोई भी’ क़रीब-क़रीब एक आदर्श वाक्य के समान है. इस बात की संभावना कि पिछले पांच सालों से देश के राजनीतिक परिदृश्य पर छाई रहने वाली मोदी और शाह की जोड़ी सत्ता से बाहर हो सकती है, उन लोगों के लिए भी एक अच्छी खबर है, जो अन्यथा भाजपा या संघ की तरफ झुके हुए नहीं हैं.

पिछले कुछ समय में मीडिया में गडकरी का नाम सबसे ऊपर चल रहा है और आने वाले महीनों में यह बढ़ सकता है. एक अपेक्षाकृत कम राजनीतिक क़द वाले गडकरी को कहीं ज़्यादा बड़े राजनीतिक वज़न और महत्व वाले व्यक्ति के स्वागतयोग्य विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है.

गडकरी के मस्तमौला और मिलनसार स्वभाव के अलावा एक और गुण है जो उन्हें एक आकर्षक उम्मीदवार बनाता है- वे राहुल गांधी नहीं हैं. युवा गांधी ने संघ प्रतिष्ठान को इतना झकझोर दिया है कि अब उसे चुनाव परिणाम की चिंता सताने लगी है.

New Delhi: Prime Minister Narendra Modi and BJP President Amit Shah during the two-day BJP National Convention at Ramlila Ground , in New Delhi on Saturday,Jan 12,2018.( PTI Photo/ Kamal Kishore)(PTI1_12_2019_000028B)
नरेंद्र मोदी और अमित शाह. (फोटो: पीटीआई)

अगर राहुल गांधी प्रधानमंत्री नहीं भी बनते हैं, तब भी वे सावधानी से चुने गए अपने सहयोगियों के साथ मिलकर भाजपा की सीटों की संख्या को काफी नीचे ला सकते हैं.

कांग्रेस ने न सिर्फ तीन महत्वपूर्ण राज्यों में भाजपा को सत्ता से उखाड़ कर और उसे कर्नाटक में सरकार से दूर रखकर बेहतर प्रदर्शन किया है, बल्कि उसने साझेदारियां गांठने में भी फुर्ती दिखलाई है.

वरिष्ठ क्षेत्रीय नेता -प्रकट तौर पर अपने एजेंडे के साथ- राहुल गांधी की तरफ आकर्षित हुए हैं. उन्होंने अपनी पार्टी में वरिष्ठों और युवाओं के बीच समझौता करवाया है. वे एक सूझबूझ भरा सोशल मीडिया और ऑफलाइन अभियान चला रहे हैं.

और उनके तंज़ों ने अब चोट पहुंचाना शुरू कर दिया है. जो अकल्पनीय है, वह हो सकता है- भाजपा का प्रदर्शन इतना ख़राब रह सकता है कि वह सत्ता में न आए. चुनावों में झटका देने वाले परिणाम आम हैं. संघ और भाजपा- खासकर नरेद्र मोदी के लिए यह नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त होगा.

गडकरी के महत्व के बढ़ने को इस संदर्भ में देखा जा सकता है. वे राहुल गांधी से ध्यान बंटा देते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि बहस भाजपा के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रहे.

वैसे लोगों के लिए जो कल्पना में भी राहुल गांधी को या उससे भी ख़राब स्थिति में किसी क्षेत्रीय क्षत्रप को प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं देख सकते हैं और साथ ही जिनका मोहभंग मोदी से हो गया है, उनके लिए गडकरी भाजपा का एक नरम चेहरा हैं. वे उस व्यक्ति के नरम संस्करण हैं, जो अर्थव्यवस्था को वह गति देने में असफल रहा है, जिसकी उसे सख़्त ज़रूरत थी.

पीढ़ियों से संघ का परंपरागत समर्थक रहा कारोबारी वर्ग जीएसटी से हताश है, सवर्ण जातियां ख़ुद को अलग-थलग महसूस कर रही हैं (गडकरी एक ब्राह्मण हैं) और संघ कार्यकर्ता और अधिकारी अमित शाह के कामकाज की तानाशाही शैली से काफी नाखुश हैं.

केंद्र और राज्य के स्तर पर वरिष्ठ नेताओं को लगता है कि मोदी-शाह की जोड़ी के राज में उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया जाता यहां तक कि उनकी बात भी नहीं सुनी जाती. वे मोदी-शाह की विदाई चाहते हैं, लेकिन साथ ही उन्हें कुछ भी चाहिए, मगर राहुल नहीं.

लेकिन यहां सौ सवाल का एक सवाल उभरता है: यह सही है कि गडकरी अपने आचरण में मोदी जैसे न हों, लेकिन क्या संघ के एजेंडे को आगे बढ़ाने के मामले में वे किसी भी तरह से अलग होंगे? क्या हमें पता है कि मॉब लिंचिंग, अल्पसंख्यकों के अधिकार और हिंदुत्व के बड़े मसले को लेकर उनका पक्ष क्या है? क्या गडकरी के नेतृत्व वाली सरकार संस्थाओं पर क़ब्ज़ा करने से बाज आएगी और शिक्षा पर नियंत्रण रखने की कोशिश नहीं करेगी?

इन मसलों पर धुंध जमी हुई है, लेकिन जानकारियों के आधार पर हम अनुमान लगा सकते हैं. इस बात की संभावना नहीं है कि संघ अपने केंद्रीय कार्यक्रमों की तिलांजलि दे दे- वह सिर्फ़ एक सख़्त चेहरे को एक नरम मुखौटे से बदलना चाहता है.

मोदी की तुलना में ज़्यादा सौम्य नेताओं की एक पूरी कतार है- राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज और यहां तक कि शिवराज सिंह चौहान, लेकिन संघ की नज़र में इन सबमें कुछ न कुछ कमी है. गडकरी कई स्तरों पर काम करते हैं.

मोदी और शाह की जोड़ी आसानी से मंच छोड़ने वाली नहीं है. भाजपा के भीतर और मतदताओं के बीच नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अभी भी बरक़रार है. नितिन गडकरी क्या कोई भी नेता लोकप्रियता या भाषण कला के मामले में उनके बराबर नहीं है. यह जोड़ी सुनिश्चित करेगी कि गडकरी अपनी हद में ही रहें, साथ ही उन्हें आगे बढ़ने से रोकने की हर मुमकिन कोशिश करेगी.

गडकरी भी ख़ुद को एक अनिच्छुक उम्मीदवार के तौर पर पेश करते हैं और शीर्ष पद के लिए अपनी दावेदारी के अटकलों को ख़ारिज करते हैं. उनकी तथाकथित चुनौती जल्द ही कपूर की तरह उड़ सकती है, लेकिन तब तक के लिए उनका नाम ध्यान बंटाने के काम आ रहा और आज भी भारत पर शासन करने के लिए भाजपा को सर्वश्रेष्ठ पार्टी के तौर पर पेश कर रहा है.

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