कैग ने 2014-15 से लेकर 2016-17 के बीच दिए गए 463 कांट्रैक्ट में काम करने वाले ठेके के मज़दूरों के हालात की समीक्षा की है. रिपोर्ट देखेंगे तो पता चलेगा कि रेलवे बग़ैर किसी मंत्री के चल रहा है. राम भरोसे कहना ठीक नहीं क्योंकि राम भरोसे तो सारा देश चलता है.
यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रहने वाले छात्रों की तरह मोदी सरकार के कई मंत्री ‘नमो हुडी’ पहने नज़र आने लगे हैं. 50 की उमर में शाहरूख ख़ान भी इस तरह की हुडी पहनते हैं ताकि युवा और ऊर्जावान दिखें.
इस हुडी आगमन के पहले भी मीडिया ने कुछ मंत्रियों की छवि ऊर्जावान और कामकाजी के रूप में गढ़ने का काम किया है. उनमें से एक हैं रेल मंत्री पीयूष गोयल.
पीयूष गोयल के ट्विटर हैंडल पर जाएंगे तो आपको पता चलेगा कि मंत्री जी हर सुबह किसी न किसी महापुरुष की जयंती या पुण्यतिथि पर कोई ट्वीट करते हैं, उनका स्मरण करते हैं और अपनी प्रेरणा बताते हैं. मगर इतने महापुरुषों की प्रेरणा पाकर भी वे अपने मंत्रालय की योजनाओं में ठेके पर काम कर रहे मज़दूरों को शोषण से नहीं बचा सकते हैं.
मीडिया में गढ़ी गई छवि के बरक्स अगर आप ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों पर आई सीएजी की रिपोर्ट को देखेंगे कि तो पता चलेगा कि रेलवे बग़ैर किसी मंत्री के चल रहा है. राम भरोसे कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि राम भरोसे तो सारा देश चलता है.
मंत्री जी को अगर सीएजी की रिपोर्ट से एतराज़ हो तो वे इस रिपोर्ट को लेकर जाएं और दस-बीस हज़ार ठेके के मज़दूरों के बीच पढ़ें. दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा.
सीएजी ने 2014-15 से लेकर 2016-17 के बीच दिए गए 463 कांट्रैक्ट में काम करने वाले ठेके के मज़दूरों के हालात की समीक्षा की है. इस ऑडिट को पढ़कर लगता है कि रेलवे में 2014 के बाद कुछ भी नहीं बदला है. ठेकेदारों की मौज अब भी जारी है.
रेलवे ने 2016-17 में ठेके पर काम कराने के लिए 35,098 करोड़ रुपये का भुगतान किया था. सीएजी का कहना है कि ठेकेदारों ने इसका 4 प्रतिशत हिस्सा यानी 1,400 करोड़ रुपये से अधिक की राशि मज़दूरों के हिस्से से मार लिया.
यही नहीं रेल मंत्रालय कई हज़ार करोड़ रुपये के कांट्रैक्ट देती है. उन कामों में ठेके पर रखे गए मज़दूरों को शोषण से बचाने के लिए संसद ने जितने भी कानून बनाए हैं, उनमें से किसी का भी 50% भी पालन नहीं होता है.
न तो उन्हें न्यूनतम मज़दूरी मिलती है, न ओवर टाइम मिलता है, न छुट्टी मिलती है, न छुट्टी का पैसा मिलता है, न उनका प्रोविडेंट फंड कटता है और न ही उनका भविष्य निधि कर्मचारी संगठन में पंजीकरण है.
सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि नियम के मुताबिक रेलवे की तरफ से कोई भी अधिकारी या प्रतिनिधि इन ठेकों की जांच करने के लिए नहीं जाता है. रेलवे ही नहीं, श्रम मंत्रालय, भविष्य निधि संगठन की तरफ से भी कोई जांच करने नहीं जाता है.
ठेकेदारों को लूटने की खुली छूट मिली होती है. बिना लाइसेंस के ठेके दे दिए जाते हैं. सीएजी ने पाया कि मात्र 140 ठेकेदारों ने अपना पंजीकरण सेंट्रल लेबर कमिश्नर के दफ्तर में कराया है. उसमें से भी सिर्फ 12 ठेकेदारों ने अपना सालाना लेखा-जोखा दिया है. जबकि सभी सभी कांट्रैक्टर के लिए हिसाब देना अनिवार्य होता है.
रेलवे के पास अपने सभी ठेकेदारों के रिकॉर्ड होने चाहिए. सीएजी ने जब मांगा तो मात्र 30 ठेकेदारों के रिकॉर्ड मिले. आप सोचिए जब भारतीय रेल में तीस-चालीस हज़ार करोड़ रुपये की परियोजना में ठेकेदार बिना हिसाब-किताब के काम कर रहे हैं तो लूट की राशि का पैमाना क्या होगा?
सैंकड़ों की संख्या में ठेकेदारों ने सीएजी को रिकॉर्ड ही नहीं दिए. सीएजी देखना चाहती थी कि कितने मज़दूरों को चेक या बैंक से भुगतान हो रहा है. नियम यही है कि भुगतान बैंक या चेक से होगा.
212 कांट्रैक्ट में तो रिकॉर्ड ही नहीं मिला कि पैसा कैसे दिया गया. मात्र 18 कांट्रैक्ट में वेतन की पर्ची कटी मिली. 169 कांट्रैक्ट में भुगतान नगद किया गया जबकि यह सरकार नगद भुगतान के खिलाफ बताई जाती है. उसे भ्रष्टाचार का ज़रिया मानती है लेकिन रेल मंत्री अपने ही मंत्रालय के कांट्रैक्ट में नगद भुगतान सुनिश्चित नहीं कर सके.
ज़ाहिर है रेलवे में ठेकेदार जमकर लूट रहे हैं. न्यूनतम मज़दूरी मिलने का कानून है. लेकिन 463 ठेकों में से मात्र 105 में ही न्यूनतम मज़दूरी दी गई है. बहुतों ने तो रिकॉर्ड ही नहीं दिए.
किसी भी प्रोजेक्ट की लागत तय करते वक्त न्यूनतम मज़दूरी के हिसाब से लागत तय होती है. अगर वो पैसा ठेकेदार मार लें तो कितने सौ करोड़ का हिसाब उनकी जेब में यूं ही चला जाता होगा. जनता के पैसे से सरकार ने ठेकेदारों को दिया कि आप पूरा पैसा दो मगर ठेकेदारों ने मज़दूरों को पूरा पैसा नहीं दिया. दोनों तरफ से जनता का ही पैसा लूटा गया.
मात्र 120 कांट्रैक्ट में छुट्टी मिली और छुट्टी के पैसे दिए गए. बाकी में नहीं. सीएजी ने लिखा है कि 2,745 मज़दूरों के 5.46 करोड़ रुपये ठेकेदारों ने मार लिए. 49 ठेकों में न तो छुट्टी मिली और न ही छुट्टी का पैसा.
9 घंटे से ज्यादा या सप्ताह में 48 घंटे से ज्यादा काम कराने पर ओवर टाइम देना होता है. 30 कांट्रैक्ट में पाया गया कि ओवर टाइम नही दिया गया और 1.74 करोड़ रुपये मार लिए गए.
सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि रेल मंत्रालय के भीतर कुछ खास नहीं बदला है. ठेकेदारों की मौज अभी भी जारी है. रेल मंत्री अगर काम करते, इन सब बातों को ठीक करते तो रेलवे के लाखों मज़दूर खुश होते. वाहवाही कर रहे होते. उनका शोषण नहीं होता और रेल मंत्री को ट्विटर पर दिन भर अपना प्रचार नहीं करना पड़ता.
यह लेख मूल रूप से रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा पर प्रकाशित हुआ है.