मोदी सरकार का पिछले साढ़े चार साल का अनुभव यह बताने के लिए काफ़ी है कि एक नेता या एक वर्चस्वशाली पार्टी के इर्द-गिर्द बनी सरकारें घमंडी और अक्खड़ जैसा व्यवहार करने लगती हैं और आलोचनाओं को लेकर कठोर हो जाती हैं.
‘अगर नरेंद्र मोदी, नहीं तो कौन? राहुल गांधी? यह किसी हादसे की तरह होगा.’ यह तर्क हम अनगिनत बार सुन चुके हैं. चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, बहस के केंद्र में यह नहीं है कि कौन सा दल या गठबंधन अगली सरकार बनाएगा, बल्कि बहस इस बात को लेकर हो रही है कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा.
मोदी ने इसे सफलतापूर्वक उनके जैसे एक ‘सेल्फ-मेड’ व्यक्ति और एक विशेषाधिकार प्राप्त वंशवादी उत्तराधिकारी राहुल गांधी के बीच के राष्ट्रपति शैली के चुनाव में तब्दील कर दिया है.
यहां विडंबना है क्योंकि जो भाजपा जो हमेशा से एक विचारधारा से संचालित होनेवाली पार्टी होने का दावा करती थी, जहां व्यक्ति गौण होता है, वह अब नरेंद्र मोदी के सामने तुच्छ हो गयी है.
थोड़ी गहराई से देखें, तो यह बहस और दिलचस्प हो जाती है. यहां तक कि वे लोग भी जो या तो दृढ़ आस्था की वजह या फिर कोई और विकल्प न देख पाने के कारण मोदी की तरफ झुके हुए हैं, परोक्ष तरीके से इस बात पर सहमत हैं कि उनका शासन उम्मीदों पर खरा उतर पाने में नाकाम रहा है.
थोड़ा और स्पष्ट आकलन यह है कि पिछले चार बरस कई मायनों में किसी आपदा की तरह रहे हैं. जहां, सड़क पर उतरने और विरोध प्रदर्शन करने का काम किसानों ने किया है और उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष ब्रिगेड ने सतत तरीके से तेजी से बिगड़ रहे सामाजिक ताने-बाने को केंद्र में रखा है, वहीं कॉरपोरेट जगत के मुखिया और छोटे कारोबारी अपने गुस्से का इजहार निजी तौर पर करना चाहते हैं.
लेकिन गुस्सा साफ दिखाई देनेवाला है- नोटबंदी और जीएसटी और साथ ही साथ सुस्त अर्थव्यवस्था और निवेश की कमी ने कंपनियों और छोटे कारोबारों पर समान रूप से असर डाला है.
लेकिन इन लोगों के बीच ही व्यक्तिगत तौर पर प्रधानमंत्री के लिए समर्थन सबसे कट्टर किस्म का है. यह सही है कि भले मोदी सरकार और इसकी आर्थिक नीतियां विकास को गति देने में नाकाम रहीं हों और सामाजिक क्षेत्र पर खर्च से उन्हें नाराजगी हो, लेकिन हिंदुत्व समेत बाकी मसलों पर उन्हें कोई दिक्कत नहीं है.
इसमें अगर गांधी परिवार के प्रति गहरी चिढ़ जोड़ दें, तो यह बात समझ में आ जाती है कि आखिर वे अगली बार भाजपा को वोट देने का मन क्यों बना रहे हैं.
गठबंधन सरकार के मामले में भी राहुल गांधी पीछे हैं. जब भाजपा कम सीटें जीतती है और उसे सरकार बनाने के लिए एक बड़ी संख्या में सहयोगियों की दरकार होती है- ऐसी सूरत में भी मोदी को ऐसे गठबंधन के निर्विवाद नेता के तौर पर देखा जाता है.
अन्यों को भानुमति के कुनबे की तरह देखा जाता है, जिसका एकमात्र एजेंडा मोदी को कुर्सी से हटाना और किसी न किसी तरह सत्ता हथियाना है. और प्रधानमंत्री कौन बनेगा? मायावती? भगवान बचाए. ममता बनर्जी? वे और खराब होंगीं. ‘गठबंधन एक नकारा चीज है- ऐसी खिचड़ी सरकारों का पिछला सारा प्रयोग बुरी तरह नाकाम रहा है.’ यही बार-बार दोहराए जाने वाली बातें हैं.
यह सीमित समझ न सिर्फ भारतीय राजनीति बल्कि भारत की भी जानकारी न होने को दिखाती है. एक गठबंधन सबसे अच्छी तरह से भारत की विविधता और विशाल देश के सभी वर्गो की अलग-अलग जरूरतों का प्रतिनिधित्व करता है.
कांग्रेस लंबे समय तक भारत की राजनीति पर छाई रही और 1977 में पहली बार सत्ता में बाहर होने से पहले तीन दशकों तक लगातार केंद्र की सत्ता पर काबिज रही. लेकिन इसके पीछे मुख्य तौर ऐतिहासिक कारणों का हाथ था.
इसके अलावा, खुद कांग्रेस विभिन्न, यहां तक कि प्रतिस्पर्धी सामाजिक और आर्थिक विचारधारा वाली शक्तियों का गठबंधन थी- और आज भी कुछ मायनों में वह ऐसी बनी हुई है- जो अपने भीतर हर तरह की जातीयता, क्षेत्र और जाति को जगह देती थी.
पिछले गठबंधन
यह विचार कि गठबंधन सरकारें भारत के लिए दुर्घटना की तरह रहीं हैं, भी जांच की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है.
नरसिम्हा राव सरकार इसकी अच्छी मिसाल है- यह अल्पमत सरकार थी, जिसने न सिर्फ पांच साल का कार्यकाल पूरा किया, बल्कि जिसने लंबे समय तक काम आने वाले आर्थिक सुधारों की भी शुरुआत की- यह एक ऐसी चीज है जिसे कारोबारी समुदाय को याद रखना चाहिए और यहां तक कि इसकी तुलना वर्तमान भाजपा सरकार से करनी चाहिए, जिसे पिछले 30 सालों का सबसे बड़ा जनादेश मिला था.
अटल बिहारी वाजपेयी ने भी एक गठबंधन सरकार चलाई और दोनों यूपीए सरकारें भी गठबंधन थीं. इन नेताओं को अपने सहयोगियों की खींचतान और दबावों का सामना करना पड़ा, लेकिन वे अपने रवैये में सौहार्दपूर्ण और मिलजुल कर चलनेवाले थे और जो अपने बुनियादी उसूलों और एजेंडा का त्याग किए बगैर अपने सहयोगियों को साथ-साथ लेकर चल सके.
वाजपेयी को अस्थिर स्वभाव वाली नेताओं- जयललिता और बनर्जी से कदमताल मिलाना पड़ा, तो मनमोहन सिंह को शक्तिशाली माकपा से जूझना पड़ा. जब पानी सिर से ऊपर चला गया, तब इन लोगों ने सहयोगी को जाने दिया.
यह बात दोहराए जाने लायक है कि जब वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा को 2004 में हार का मुंह देखना पड़ा और ‘इंडिया शाइनिंग’ का खोखलापन उजागर हुआ, तब भाजपा के शहरी समर्थकों को झटका लगा था.
जब यह स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है, मगर उसे जादुई आंकड़े तक पहुंचने के लिए कई दूसरी पार्टियों के साथ हाथ मिलाना होगा, तब शेयर बाजार बिल्कुल निचले स्तर पर चला गया.
पांच साल बाद, जब यूपीए की दोबारा सत्ता में वापसी हुई और कांग्रेस ने अपनी सीट संख्या में बढ़ोतरी की, तब बाजार को खुलने के चंद मिनटों के भीतर ही बंद करना पड़ा, क्योंकि बाजार के सूचकांक ने अपनी तय सीमा से ज्यादा ऊंची छलांग लगा दी थी.
शेयर बाजार का उदाहरण इस ओर इशारा करने के लिए दिया गया है कि जहां तक आर्थिक नीतियों को लेकर उम्मीदों का सवाल है, तो निवेशक समुदाय- और इससे आगे महानगरों और मझोले और छोटे शहरों के मतदाता भी- हर कोई मनमोहन सिंह का स्वागत कर रहा था.
ऐसा इस तथ्य के बावजूद था कि उनके साथ उनके सहयोगियों की टीम थी और इसके बावजूद भी कि यूपीए-1 ने मनरेगा जैसे उन्हें नाराज करनेवाले सामाजिक कार्यक्रमों में निवेश किया था.
सिंह ने न केवल परमाणु करार को अंजाम पर पहुंचाया, बल्कि उन्होंने एक आर्थिक उछाल का भी नेतृत्व किया साथ ही 2008 के बाद के संकट की घड़ी में उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को सुरक्षित पार लगाने का भी काम किया.
साथ ही यह भी उतना ही सच है कि उनके दूसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए और वे प्रभावशाली ढंग से अपने सहयोगियों की जवाबदेही तय नहीं कर पाए. लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप- और इसका साथी क्रोनी कैपिटलिज़्म- भारतीय सरकारों की एक साझी विशेषता रही है, फिर चारे वह एक पार्टी की सरकार हो या गठबंधन की सरकार हो.
राजीव गांधी के समय में बोफोर्स का मामला सामने आया और अभी रफाल का मामला सामने आया है. वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए-2 के समय में ‘ताबूत घोटाला’ सामने आया था तो यूपीए-2 के समय में 2जी घोटाला सामने आया.
इस तरह से इस बात का कोई सबूत नहीं है कि गठबंधन सरकारें किसी नियम की तरह देश के लिए खराब होती हैं और एक पार्टी का वर्चस्व उससे कहीं बेहतर है.
देवगौड़ा के समय- समझौते के तहत उभरे जिनके नाम ने सबको चकित कर दिया था- पी चिदंबरम ने -‘ड्रीम बजट’ पेश किया था, भले ही जल्द ही इसका स्वाद खट्टा हो गया.
मोदी के शासन में पेश किए गए बजट कारोबारियों को उत्साहित कर पाने में नाकाम रहे हैं और बीतते समय के साथ सरकार ने ज्यादा से ज्यादा कल्याणकारी लबादा ओढ़ लिया है. कम से कम कहा जाए, तो यह विकास को गति देनेवाली कल्पनाशील आर्थिक नीतियों के साथ सामने नहीं आ पाई है; इसकी जगह हमें नोटबंदी की सौगात मिली, जिसका नतीजा लाखों लोगों की बर्बादी के तौर पर निकला.
निश्चित तौर पर यह इस बात का उदाहरण था कि कैसे एक मजबूत व्यक्ति अपनी पार्टी के लोगों से विचार-विमर्श और कैबिनेट सहयोगियों को विश्वास में लिए बगैर अपनी मनमर्जी चला सकता है. स्वाभाविक तौर पर इसकी तुलना इमरजेंसी से की जाएगी, जिसका फैसला भी कुछ लोगों ने लिया था.
पिछले साढ़े चार साल का अनुभव हमें यह बताने के लिए काफी होना चाहिए कि एक नेता या एक वर्चस्वशाली पार्टी के इर्द-गिर्द बनी सरकारें घमंडी और अक्खड़ जैसा व्यवहार करने लगती हैं और आलोचनाओं को लेकर कठोर होती हैं.
वे ज्यादा से ज्यादा जमीनी हकीकत से कटती जाती हैं और क्योंकि उस पर कोई अंकुश नहीं होता है, उसकी बेलगाम गति को रोकनेवाली कोई प्रतिरोधी शक्ति नहीं होती है, यहां तक कि दूसरे दृष्टिकोण को सामने रखने वाला भी कोई नहीं होता है.
छोटी पार्टियां ब्लैकमेल में शामिल हो सकती हैं या कर सकती हैं, लेकिन वे किसी खास क्षेत्र या तबके का प्रतिनिधित्व करती हैं और इस तरह से वे बिना सोचे-समझे जल्दबाजी भरे फैसले लेने पर लगाम लगा सकती हैं.
नरेंद्र मोदी ने अपनी ही पार्टी वालों की परवाह नहीं की है, गठबंधन के छोटे सहयोगियों की तो बात ही जाने दिजिए, बीते एक साल में जिन्होंने धीरे-धीरे सरकार से खुद को अलग कर लिया है.
मई, 2019 के बाद एक सही मायने में गठबंधन की सरकार की संभावना काफी अच्छी है, जिसमें कई सहयोगियों की आवाज सुनी जायेगी.
इसका नेतृत्व कौन करेगा, यह अभी भी तय नहीं है. लेकिन नेतृत्व चाहे जो भी करे- और इसमें मोदी शामिल हैं, जिनके पास सामूहिक निर्णय का कोई अनुभव नहीं है- उसे यह समझना होगा कि उसकी सरकार वैसी है, जो सबसे अच्छी तरह से भारत और भारत के लोगों को प्रतिबिंबित करती है और इसलिए इसका सम्मान जरूर किया जाना चाहिए.
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