बाबरी विध्वंस के 25 साल, न्याय की कछुआ चाल

बाबरी विध्वंस मामले में गवाह वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान बता रहे हैं ​कि कैसे टालमटोल, सुस्ती और न्याय तंत्र की उदासीनता के चलते यह केस 25 सालों से लटका हुआ है.

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बाबरी विध्वंस मामले में गवाह वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान बता रहे हैं कि कैसे टालमटोल, सुस्ती और न्याय तंत्र की उदासीनता के चलते यह केस 25 सालों से लटका हुआ है.

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बचाव पक्ष के वक़ीलों की टालमटोल, अभियोजन पक्ष की सुस्ती और न्यायिक व्यवस्था की उदासीनता के चलते बाबरी मस्जिद विध्वंस मामला 25 सालों से अधर में लटका हुआ है.

और मैं ये यूं ही नहीं कह रहा हूं. ये मेरा यकीन तो है ही बल्कि इस मामले के एक मुख्य गवाह के बतौर रहे अपने अनुभव से भी कह रहा हूं. रायबरेली कोर्ट में 10 दिनों तक बचाव पक्ष के वक़ीलों ने मुझसे सवाल-जवाब किए, जहां मेरी कही हर बात कुल 88 पेजों में दर्ज हैं, वहीं लखनऊ कोर्ट के सामने दिए गए मेरे बयान 10 पन्नों में दर्ज हैं.

पर मैं यह कह सकता हूं कि दोनों ही तरफ के वक़ीलों के व्यवहार में कोई ऐसी तत्परता नहीं दिखी जो ऐसे किसी महत्वपूर्ण केस में दिखनी चाहिए. इसलिए इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि केस कछुए की चाल से ही आगे बढ़ रहा है.

कई बार उनके पूछे गए सवाल बेहद हल्के होते हैं और कई बार तो यूं भी लगा कि ये बस विशेष अदालत के कीमती वक़्त को ज़ाया करने की नीयत से ही पूछे जाते हैं.

चूंकि रायबरेली कोर्ट में जूडिशियल मजिस्ट्रेट अपेक्षाकृत जूनियर न्यायिक अधिकारी होते हैं, ऐसे में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती जैसे बड़े लोगों के हाई प्रोफाइल वक़ील अपनी तरफ से कुछ अतिरिक्त छूट भी लेते हैं, जो लखनऊ कोर्ट में नहीं मिलती, जहां एडिशनल डिस्ट्रिक्ट और सेशन जज होते हैं. ऐसे में अभियोजन पक्ष के पास केस को आगे बढ़ाने का दबाव डालने के लिए कम ही मौका होता है.

यह पूरी प्रक्रिया ऐसी लगती है कि मानो सच को बाहर लाने से ज़्यादा यह गवाहों की याददाश्त परखने की कवायद है.

मामला देख रहे न्यायिक अधिकारियों के लगातार तबादलों ने भी स्थिति को और ख़राब ही किया है. ये घूम-फिरकर एक ही जगह वापस आने जैसा है, बस हर बार पदाधिकारी का चेहरा बदल जाता है.

समय बीतने के साथ-साथ प्रतिद्वंद्वी पक्ष का प्रतिनिधित्व करने वाले वक़ीलों ने मुक़दमे की इस धीमी प्रक्रिया में तेज़ी लाने की कोशिश में दिलचस्पी लेना भी बंद कर दिया.

कई बार तो उनकी अक्षमता ज़ाहिर तौर पर तब दिखती थी जब पता चलता कि उनमें से कई को 16वीं सदी में बनी इस मस्जिद और उसके आस-पास की जगह के बारे में तब तक कोई जानकारी ही नहीं थी, जब तक 6 दिसंबर, 1992 के उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन इसे गिरा नहीं दिया गया.

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1992 में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के समय मुंबई में लगा एक पोस्टर (साभार : डॉक्यूमेंट्री ‘राम के नाम’ का स्क्रीनशॉट)

जिन लोगों ने इस मध्यकालीन इमारत को कभी नहीं देखा उन्हें यह समझाना मुश्किल था कि कैसे एक उन्मादी भीड़ ने एक प्राचीन मंदिर के लिए इसे ढहा दिया होगा. इस मंदिर को अधिकतर हिंदू भगवान राम की जन्मभूमि मानते हैं.

मैंने उस पूरे घटनाक्रम को बहुत क़रीब से देखा है. मैंने देखा कि किस तरह मस्जिद के विशालकाय गुंबदों को गिराया गया और मेरे पास इस बात पर यकीन करने के पर्याप्त कारण हैं कि इस तरह की किसी घटना को पूर्वनियोजित किए बिना अंजाम नहीं दिया जा सकता.

5 दिसंबर, 1992 की दोपहर में मैंने विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के एक कार्यकर्ता को विहिप के मीडिया सेंटर में किसी से टेलीफोन पर बात करते हुए सुना, जो किसी से बेलचा, बसुली और तसले लाने की बात कह रहा था.

यही सारे औज़ार मस्जिद गिराने में काम में लिए गए थे. मेरे बयान पर ही सीबीआई ने फोन लाइन के दूसरे छोर पर मौजूद व्यक्ति को तलाशा और सीबीआई द्वारा बताई गई पूरी कॉन्स्पिरेसी थ्योरी में वह व्यक्ति एक महत्वपूर्ण कड़ी बना.

जिस तरह से बाबरी मस्जिद को गिराया गया था, वह तरीका भी यह स्पष्ट करता है कि यह काम योजनाबद्ध तरीके से हुआ था.

बेलचे जैसे औज़ारों, जिनके नाम मैंने फोन पर सुने थे, ने मस्जिद की ढाई फीट मोटी दीवारें ढहाने में ख़ासी मदद की. जब बेलचों आदि की लगातार चोट से इमारत के चबूतरे की मोटाई कम हो गई तब उन्होंने दीवार में बड़े-बड़े छेद किए और रस्सी की गांठे बनाकर उनमें फंदा-सा बना के डाल दिया.

इसके बाद वहां मौजूद हज़ारों कारसेवकों से रस्सी के सिरों को खींचने को कहा गया जिससे कि दीवार को कमज़ोर किया जा सके और गुंबद ध्वस्त हो जाए. तीन घंटों में तीनों गुंबदों को गिराने के लिए इसी तरीके का इस्तेमाल किया गया.

अगर यह विशेष तकनीक, जो किसी तेज़ इंजीनियर के दिमाग की उपज थी, नहीं लगाई गई होती तो इस मस्जिद को गिराने में कई हफ़्ते नहीं, पर कई दिन तो ज़रूर लगते.

अगर गौर करें तो यह तब और साफ हो गया था जब भीड़ संभालने को प्रशासन द्वारा लगाई गई बैरीकेडिंग तोड़कर यह उन्मादी भीड़ गुंबदों पर चढ़ी और स्टील की रॉड और पाइपों से इसे कमज़ोर करने के लिए प्रहार करने लगी. पर इससे कुछ ज़्यादा नहीं बिगड़ा, शायद उस मज़बूत प्लास्टर के कुछ टुकड़े ही झड़े होंगे.

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(फोटो: रॉयटर्स)

और फिर इसके बाद जो हुआ, वो जानने के बाद तो इस घटना के योजनाबद्ध होने पर कोई संदेह ही नहीं रह जाता. वहां लाउडस्पीकर के ज़रिये घोषणा शुरू हुई, ‘ये ढांचा अब गिरने वाला है; आप सब जो इस ढांचे के ऊपर चढ़े हुए हैं कृपया अपनी सुरक्षा के लिए नीचे उतर आइए.’

वहां देश के विभिन्न हिस्सों से आए हुए लोग थे, यह बात उन सभी को समझ आ जाए यह सुनिश्चित करने के लिए इस घोषणा को कई भारतीय भाषाओं में दोहराया गया और इसके कुछ देर बाद ही वास्तविक विध्वंस का काम पूरा हुआ.

अब सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश ने इस बात को और साफ कर दिया है कि इस पूरे ऑपरेशन के पीछे एक बड़ी साज़िश थी.

हालांकि लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा और गिरिराज किशोर जैसे बड़े भाजपा नेता इस आपराधिक साज़िश का हिस्सा थे या नहीं, इस सवाल का जवाब उच्चतम न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट से मांगा है.

इनके अलावा दो मुख्य आरोपी विहिप के अशोक सिंघल और विष्णु हरि डालमिया थे, जिनकी मृत्यु हो चुकी है. वहीं एक और आरोपी कल्याण सिंह हैं, जिनके ख़िलाफ़ राजस्थान के राज्यपाल होने के कारण कार्यवाही दोबारा शुरू नहीं हो सकी.

हालांकि इन विशिष्ट लोगों की श्रेणी में आने वाले लोगों के केस को उसी अदालत में भेजकर, जहां बाबरी विध्वंस से जुड़े बाकी आरोपियों की सुनवाई हो रही है, सुप्रीम कोर्ट ने यह तो ज़ाहिर कर दिया है कि किसी के साथ भी उसके पद या प्रतिष्ठा के कारण कोई विशेष व्यवहार नहीं किया जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस पीसी घोष और जस्टिस आरएफ नरीमन की बेंच का कड़े दिशानिर्देश जारी करके यह सुनिश्चित करना कि इस मामले का फैसला आने तक ट्रायल कोर्ट के जज का तबादला न हो और इस मामले की रोज़ाना सुनवाई हो, दिखाता है कि देश की सर्वोच्च अदालत इस मामले को लेकर बेहद गंभीर है.

साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत को इस मामले को दोबारा शुरू से सुनने का विकल्प भी नहीं दिया है. मामले को इसकी वर्तमान बहस से ही सुना जाएगा.

हां, यह ज़रूर है कि सुप्रीम कोर्ट के कहे अनुसार इस केस को दो साल के भीतर निपटाना आसान नहीं होगा. कुल मिलाकर यहां दो मामलों में 49 आरोपी हैं, जिनमें से 22 की सुनवाई रायबरेली में चल रही है, बाकी 27 की लखनऊ में. इस बीच रायबरेली के आरोपियों में से एक और लखनऊ के पांच आरोपियों की मृत्यु हो चुकी है.

यहां गौर करने वाली ज़रूरी बात यह है कि अब भी बड़ी संख्या में गवाहों की पहचान और उनसे क्रॉस-एग्जामिनेशन होना बाकी है.

रायबरेली की अदालत में जहां भाजपा के बड़े नेताओं के केस चल रहे हैं, वहां सीबीआई द्वारा दी गई 131 गवाहों की लिस्ट में से 57 लोगों की ही जांच हुई है, वहीं लखनऊ की अदालत जहां बाकी लोगों के मुक़दमे चल रहे हैं, वहां कुल 895 गवाहों में से महज़ 195 की जांच पूरी हुई है.

सीबीआई के एक सूत्र के अनुसार गवाहों की संख्या कम हो सकती है. केवल महत्वपूर्ण लोगों को ही जांच के लिए पेश किया जाएगा. अगर ऐसा होता भी है, तब भी यह कोई आसान काम नहीं रहेगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. साथ ही वे बाबरी विध्वंस मामले के गवाहों में से भी एक हैं.)