क्या अगले आम चुनाव में मोदी सरकार या महागठबंधन में से कोई नेता या दल अपने चुनावी घोषणा-पत्र में यह वादा कर सकता है कि वो देश की आम जनता को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधा देने की संवैधानिक जवाबदारी निभाने के लिए 2019 से देश के अरबपतियों और अमीरों पर उचित टैक्स लगाने का काम करेगा?
पिछले दो दिनों के अंतराल में दो बड़ी खबरें आईं, दोनों ही खबरें चीख-चीखकर ‘देश के प्रति चिंतित लोगों’ से यह सवाल कर रही है: क्यों आज़ादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी गिनती के दो-चार परिवारों के पास ही लोकतंत्र की पूरी ताकत है– चाहे वो आर्थिक ताकत हो या राजनीतिक.
पहली खबर आर्थिक ताकत को लेकर थी – ऑक्सफेम की हालिया रिपोर्ट (पब्लिक गुड ऑर प्राइवेट वेल्थ) के अनुसार देश की सबसे निचली पादान पर खड़ी 50% जनता के पास जितनी संपत्ति है, उतनी भारत के मात्र 9 सबसे धनवान लोगों के पास है.
दूसरी ख़बर राजनीतिक ताकत एक परिवार के हाथों में सिमट जाने के बारे में थी – कांग्रेस ने प्रियंका गांधी के रूप में एक और गांधी को राजनीति में उतार दिया.
खैर बाकी पार्टियों में भी परिवारवाद और व्यक्तिवाद दोनों ही है; या ये कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि एक कदम आगे बढ़कर है. लगभग सारी की सारी क्षेत्रीय पार्टियां परिवार या व्यक्तियों में सिमटी हुई हैं – ममता, माया, अखिलेश, चंद्रबाबू, केटीएस, लालू – यहां तक की आम आदमी पार्टी भी व्यक्तिवाद से पीड़ित है.
वहीं मोदी-शाह के दौर में भाजपा ने तो व्यक्तिवाद में कांग्रेस के परिवारवाद को भी मात दे दी.
न तो किसी बहस और मानहानि का केस लगने का डर, न तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले की मोहर की दरकार और न किसी एक्सपर्ट कमेटी की रिपोर्ट का इंतजार, आखिरकार अब हम आराम से यह कह सकते हैं कि आज़ादी के बाद लगातार देश की राजनीतिक और आर्थिक ताकत सिमटते -सिमटते 10-20 व्यक्तियों/परिवारों के हाथों में सिमटकर रह गई है.
जब सारे देश में किसान बदहाल है, उसकी कर्ज माफ़ी पर बवाल मचा हुआ है, रोजगार गायब है, छोटी-मोटी फैक्ट्रियां थोक के भाव में बंद हो रहीं हैं, फुटकर व्यापार में व्यापारी कम हो रहे हैं, तब भारत में 2017 के मुकाबले 2018 में खरबपतियों की संख्या बढ़ गई है.
इसमें 18 नए नाम जुड़कर उनकी संख्या 119 पर पहुंच गई. इतना ही नहीं, इनकी संपत्ति दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ी – वो 23 लाख करोड़ (231,96,92, 02,50,000) से बढ़कर 31 लाख करोड़ ( 313,63,72,65,00,000) से ज्यादा हो गई.
ऑक्सफेम की रिपोर्ट यह भी बताती है कि दुनिया का सबसे महंगा घर, दुनिया के 19वें के सबसे धनी व्यक्ति, मुकेश अंबानी का है – एंटिला नाम का यह घर मुंबई में स्थित है और इसकी कीमत 7 हजार करोड़ रुपए से ऊपर आंकी गई है. कमाल की बात है, यह हालात नोटबंदी के बाद है.
यह रिपोर्ट यहीं ही नहीं रुकती – इसके बाकी सारे तथ्य देश की प्रति हमारी चिंता और देश की राजनीतिक पार्टियों के आम जनता की सेवा के लिए काम करने एवं ‘सबका साथ- सबका विकास’ के सारे दावों की पोल खोलती है.
इस रिपोर्ट के अनुसार: पूरी दुनिया में बीमारी के इलाज के खर्चे के चलते गरीबी में धकेले जाने वाले सबसे ज्यादा लोग भारत में हैं. क्योंकि जनता के स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने में हमारी सरकारें दुनिया में सबसे आगे रहने वालों में एक हैं.
लेकिन इसके उलट मेडिकल टूरिज्म में हम सबसे आगे हैं – पैसे हैं, तो दुनिया का बेहतरीन इलाज मिलेगा. वहीं सरकार द्वारा स्वास्थ्य बीमा के नाम पर खर्च की जाने वाली 80% राशि भी निजी अस्पतालों की जेब में जाती है. भारत के गरीब राज्यों में बाल शिशु मृत्यु दर उप-सहारा अफ्रीकी देश से भी ज्यादा है.
शिक्षा के हालात भी कुछ ऐसे ही हैं: देश को सबसे ज्यादा लोकसभा सीट देने वाले उत्तर प्रदेश में 40% गरीब बच्चे सबसे कम फीस वाले निजी स्कूलों की फीस देने की ताकत भी नहीं रखते हैं और सरकार धीरे-धीरे निजी स्कूलों के भरोसे होती जा रही है- जो गरीब को शिक्षा नहीं दे सकते.
गरीबी की मार दलितों के ऊपर और ज्यादा पड़ती है – दलित महिला, उच्च जाति की महिला के मुकाबले 15 साल कम जीती है.
इस रिपोर्ट में जो सबसे बड़ी बात है, वो है: भारत में लोगों को कुल संपति पर कर में इतनी ज्यादा छूट है कि उन्हें आमतौर पर जितना कर देना चाहिए उससे आठ गुना कम कर लिया जाता है. और इसमें सुधार करने की बजाए, ‘मोदी सरकार’ ने 2016-17 में इसे पूरी तरह खत्म ही कर दिया.
वैसे इस रिपोर्ट से बाहर जाकर सरकार के बजट में ‘रेवेन्यू फॉरगान’ के कॉलम पर नज़र डालें तो समझ आएगा कि सरकार ने वर्ष 2013-14, 2014-15, 2015-16 में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर में 17.15 लाख करोड़ की छूट दी.
2013-14 से 2015 से 2016 तक इसमें प्रत्यक्ष कर क्रमश: 93,047; 1,18,593; 128,639 एवं अप्रत्यक्ष कर में 4,56,937; 435,756; 482,489 की छूट दी गई थी.
इसके बाद के वर्षों में भी यह छूट बरकार है सिर्फ फर्क इतना है कि मोदी सरकार ने रेवेन्यू फॉरगान का आंकने का फार्मूला ही बदल दिया. 2015-16 में इसे 4,82, 489 करोड़ सिर्फ अप्रत्यक्ष कर में छूट देना बताया था – 2,24,940 करोड़ एक्साइज ड्यूटी में एवं 2,57,549 करोड़ कस्टम ड्यूटी में.
इसे 2017-18 के बजट में कंडीशनल और अनकंडीशनल दो हिस्सों में बांटकर रिवाइज्ड एस्टीमेट में 1,48,442 करोड़ कर बता दिया गया; 79,183 करोड़ एक्साइज ड्यूटी एवं 69,259 करोड़ रुपए कस्टम ड्यूटी.
अमीर की मार से सरकारी बैंक भी नहीं बचे- 31 मार्च 2014 में सरकारी बैंको का एनपीए 2,16,739 करोड़ रुपए से बढ़कर 31 मार्च 2018 को 8,45, 475 करोड़ रुपये हो गया. इसमें ज्यादातर बड़ी कंपनियां हैं.
ऑक्सफेम की रिपोर्ट इस गैर-बराबरी को खत्म करने के लिए कोई क्रांतिकारी कदम उठाने सलाह नहीं देती है. उसमें एक छोटा-सा सुझाव है: अगर पूरी दुनिया में जो सबसे अमीर लोग उनकी संपति पर .5% टैक्स और लगा दिया जाए तो इससे 26 करोड़ से ज्यादा वो बच्चे जो स्कूल नहीं जा पा रहे हैं, उन्हें स्कूल मिल जाएगा.
इसके साथ ही स्वास्थ्य सेवा के अभाव में मरने वाले 33 लाख लोगों की जान बचाई जा सकेगी.
रिपोर्ट में सरकार से अमीर लोगों और कॉरपोरेशंस को निजी और कॉरपोरेट टैक्स में छूट की होड़ से बाहर निकलकर उन पर उचित से टैक्स लगाने की मांग की है. साथ ही इनके द्वारा की जा रही टैक्स चोरी पर लगाम लगाने की भी.
क्या अगले चुनाव में मोदी सरकार या महागठबंधन में से कोई भी नेता या दल अपने चुनावी घोषणा पत्र में यह वायदा कर सकता है कि वो देश की आम जनता को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधा देने की अपनी संवैधानिक जवाबदारी निभाने के लिए 2019 से देश के अरबपतियों और अमीरों पर उचित टैक्स लगाने का काम करेगा?
2019 के चुनाव के लिए पिछले एक माह से भोंपू पीट रहा है टीवी मीडिया क्या इस मुद्दे पर बहस चला पाएगा?
प्रियंका गांधी के आधिकारिक तौर पर सक्रिय राजनीति में प्रवेश पर हर टीवी चैनल पर गलाफाड़ बहस हो रही थी, वहां यह कोई नहीं पूछ रहा था कि कोई भी आए, आने दो, लेकिन जो पहले से हैं या नए आ रहे हैं, उनके पास देश की आम जनता को देने के लिए क्या है?
और मीडिया और राजनीतिक दलों को इस बात के लिए मजबूर करने के लिए क्या देश के प्रति चिंतित हर व्यक्ति गो-माता और मंदिर की राजनीति के समर्थन और विरोध की लड़ाई से बाहर निकलकर इस लड़ाई को लड़ सकेगा? अगर यह नहीं हुआ, तो फिर यह कैसा लोकतंत्र है, जहां 10 लोग सारी ताकत रखतें हों और सारा देश चुप बैठा रहे.
(लेखक समाजवादी जन परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं.)