घर हो या दफ्तर, एक दिन सफाई कर्मचारी के न आने से होने वाली अव्यवस्था और परेशानी को नकारा नहीं जा सकता. बावजूद इसके सफाई कर्मचारियों को उनके काम के अनुसार महत्व और सुविधाएं नहीं मिलतीं. हालत यह है कि स्वच्छता के काम में लगी महिला सफाईकर्मियों को अपने घर में शौचालय तक नसीब नहीं हैं.
आगरा शहर के विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत सी नई कॉलोनियों का निर्माण हो रहा है, जहां निजी स्तर पर सफाईकर्मी नियुक्त किए गए हैं, जिनमें कुछ महिला सफाईकर्मी भी शामिल हैं जो झाड़ू लगाने और कूड़ा उठाने का काम करती हैं.
ये महिलाएं आगरा शहर के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में बनी निजी कॉलोनियों में काम करती हैं. इन सफाईकर्मियों के स्वच्छता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम करने के बावजूद, इनके जीवन में कई विषमताएं हैं जिन्हें समझना बहुत आवश्यक है.
इनकी परिस्थतियों को समझने के लिए हमने वाल्मीकि समुदाय से आने वाली इन पांच महिला सफाईकर्मियों से बात करते हुए उनके जीवन के बारे में जानने की कोशिश की है.
सर्वेश
आगरा में शहरी सीमा से बाहर बनी एक बंद-गेट कॉलोनी विश्वकर्मापुरम में रजरई गांव की रहने वाली करीब 40 साल की सर्वेश सत्रह साल से कूड़ा उठाने और सफाई का काम कर रही हैं.
वे इस कॉलोनी में सुबह नौ बजे से दोपहर दो बजे तक काम करती हैं, जहां लगभग पचास घरों का काम करने के लिए उन्हें चार हजार रुपये प्रति महीना मिलते हैं. वे चाहती हैं कि उनका वेतन बढ़े.
इस कॉलोनी के साथ वह एक पुलिस चौकी और कॉलोनी के बहार एक घर में भी सफाई का काम करती हैं, जहां उन्हें क्रमशः प्रतिमाह पंद्रह सौ रुपये और पांच सौ रुपये मिलते हैं.
शादी के पंद्रह साल बीत जाने पर उन्होंने सफाई का काम शुरू किया था. उनका पति शराब पीने में अपनी कमाई खत्म कर देता था इसलिए घर चलाने और बच्चों को पढ़ाने के लिए उन्हें काम करना शुरू करना पड़ा.
सर्वेश बताती हैं कि उनके परिवार में वह पहली औरत थीं, जिसने बाहर काम करना शुरू किया. बड़ा बेटा नवीं क्लास पास है लेकिन फिर भी उन्हें एक होटल में सफाई के अतिरिक्त दूसरा काम नहीं मिला.
वह बताती है कि उनका दूसरा बेटा जहां ट्यूशन पढ़ता था वहां शिक्षक ने उसको सफाईकर्मी का बेटा होने के कारण अन्य बच्चों के साथ में बिठाने से इनकार कर दिया. अब वह दूसरी जगह ट्यूशन पढ़ रहा है.
सर्वेश अपने सभी बच्चों को किसी तरह मेहनत कर पढ़ा रही हैं. दूसरी ओर दो बेटियों की शादी उन्हें उधार मांगकर करनी पड़ी. उस उधार को चुकाने का क्रम भी चलता रहता है. अब तीसरी बेटी की शादी होने वाली है.
इसके अलावा बीमारी और इलाज में लगने वाला खर्चा सर्वेश की आर्थिक परेशानी को बढ़ा देता है. सर्वेश के शरीर में एक गांठ हो गई थी, जिसका इस साल उन्हें ऑपरेशन कराना पड़ा. ऑपरेशन के बाद गांठ की जांच (बायप्सी) न हो पाने के कारण वह गांठ की वजह नहीं जान पाईं और अब भी पहले की तरह उनका दर्द बना हुआ है.
सर्वेश का घर आधा बना हुआ है, जिसमें शौचालय, बाथरूम और रसोईघर तक नहीं है. राशन कार्ड न होने से उन्हें गैस का कनेक्शन भी नहीं मिल रहा है. वह चूल्हे पर खाना बनाती हैं.
उनका कहना है कि गांव के प्रधान, जो जाटव समुदाय से हैं, गांव के पंडितों की मदद से चुने गए हैं, उन लोगों की बात नहीं सुनते.
लक्ष्मी
रजरई गांव की ही लक्ष्मी भी एक सफाई कर्मचारी है. लक्ष्मी की उम्र लगभग तीस के करीब है. पंद्रह वर्ष की उम्र में उसकी शादी हो गई थी और एक साल बाद उन्होंने काम करना शुरू कर दिया.
पहले वह हाथरस में रहती थीं, जहां वे और उनके पति सौ रुपये रोज़ पर खेत में मजदूरी करते थे. लक्ष्मी अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती थीं, लेकिन इतने कम रुपयों से बच्चों की पढ़ाई नहीं हो पाती थी.
वह सरकारी स्कूल में वह बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहती थीं क्योंकि उनका कहना है कि ‘वहां पढ़ाई अच्छी नहीं होती है’. इसके बाद वह आगरा आ गईं.
पति पास के ही एक स्कूल में काम करते हैं पर बहुत छुट्टियां लेने के कारण उन्हें पूरी पगार नहीं मिलती. पति को शराब की भी लत है, जिसके चलते बचत मुश्किल से ही होती है. लेकिन फिर भी वह अपने बच्चों को पढ़ा रही हैं.
लक्ष्मी एक घर में गोबर थापने का काम भी करती हैं, एक अन्य घर में झाड़ू-पोंछा और बर्तन मांजती हैं और एक कॉलोनी में, जहां आठ-दस घर हैं, सफाई का काम भी करती है. तीनों जगह से उन्हें महीने के हजार-हजार रुपये मिलते हैं.
घर के नाम पर लक्ष्मी के यहां ईंटों के ऊपर सीमेंट की चादरें रखी हुई हैं. लक्ष्मी चाहती हैं कि उनका घर बन जाए. घर में शौचालय और बाथरूम छोड़िए, नाली भी नहीं बनी है. गंदे पानी के निकास के लिए उन्होंने एक गड्ढा बना लिया है, जिसमें पानी इकट्ठा हो जाता है, जिसे फिर उन्हें स्वयं निकालना पड़ता है.
लक्ष्मी के पास भी राशन कार्ड नहीं है. प्रधान से कहने पर भी लक्ष्मी का राशन कार्ड नहीं बन पा रहा है और राशन कार्ड के बिना गैस का कनेक्शन नहीं मिल सकता.
भूदेवी
तीस साल की भूदेवी सोनागढ़ी गांव में रहती हैं और जिस बस्ती में रहती हैं, वहीं झाड़ू लगाने और कूड़ा उठाने का काम करती हैं जिसके बदले वहां के घरों से उन्हें अपने परिवार के लिए खाना मिल जाता है.
पति खेतों में बेलदारी (मजदूरी) करते हैं जिसमें कड़ी मेहनत के बाद भी उन्हें रोज के मात्र सौ रुपये मिलते हैं. यह काम भी वह रोज नहीं करते. बच्चों की भूख से बेपरवाह होकर वह बेलदारी से मिले पैसों से शराब पीकर कई बार भूदेवी से मारपीट करते हैं.
अगर कभी शराब पीने के बाद रुपये बच जाएं, तो भूदेवी को मिलते हैं. वह चाहती है कि उन्हें किसी कॉलोनी में सफाई का काम मिल जाए, जो मिलने में उन्हें बहुत मुश्किल हो रही है. आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण वह अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकी हैं.
राधा
सोनागढ़ी गांव में रहने वाली 35 बरस की राधा की शादी अठारह की उम्र में हुई थी. शादी होते ही काम शुरू कर दिया था. पहले खेतों में बेलदारी करती थीं, पर पिछले चार महीनों से उन्होंने बरौली अहीर गांव में की विभव विहार और हरिअंत नाम की दो कॉलोनियों में सफाई का काम शुरू किया है.
राधा के पति खेतों में बेलदारी करते हैं और इससे हुई कमाई से शराब पीकर उससे मारपीट भी. घर में पढ़ाई सिर्फ केवल बड़े बेटे ने की है और बाकी दो छोटे बच्चों को वह पैसों की कमी के कारण नहीं पढ़ा पा रही हैं.
राधा के पास राशन कार्ड और आधार कार्ड है, जिसके चलते उन्हें राशन भी मिल जाता था, पर बच्चों का आधार कार्ड नहीं होने के चलते उनके लिए राशन नहीं मिल पाता है.
राधा और उनके पति को पांच-पांच किलो राशन मिलता है, जिसमें ढाई किलो चावल और ढाई किलो गेहूं होते हैं. बच्चों के आधार-कार्ड बनवाने के लिए वह सौ रुपये दे चुकी हैं पर अब तक कार्ड बना नहीं है. बाकी सफाईकर्मियों की तरह उनके घर में भी शौचालय और बाथरूम तक नहीं हैं.
भगवान देवी
सोनागढ़ी गांव की भगवान देवी की उम्र चालीस साल है. शादी अठारह साल में हुई थी. भगवान देवी पहले खेतों में मजदूरी करती थीं, अब पिछले चार साल से भगवान सिंह गर्ल्स कॉलेज में सफाई का काम कर रही हैं, जहां पहले दो हजार रुपये प्रतिमाह मिलते थे, जो समय के साथ बढ़ते हुए चार हजार हुए.
लेकिन इस साल वेतन नहीं बढ़ा. भगवान देवी कहती हैं कि यदि उनका वेतन नहीं बढ़ा तो यह काम छोड़ कर दूसरा काम ढूंढेगीं. भगवान देवी केवल बड़े बेटे को दसवीं क्लास तक पढ़ा सकीं, फिर पति बीमार हो गए.
पैसों की कमी के कारण बाकी बच्चों को नहीं पढ़ा सकीं. एक बेटी को पास की एक चर्च की संस्था ने दसवीं क्लास तक पढ़ा दिया. वह बताती हैं कि ज्यादा गरीब घर के बच्चों को चर्च की यह संस्था पढ़ा देती है.
उनके पास घर के नाम पर एक कमरा है, जिस पर सीमेंट की चादर पड़ी है. सरकार से शौचालय बनवाने के लिए मिले बारह हजार रुपयों से उन्होंने शौचालय बनवाना तो शुरू किया था, लेकिन यह पूरा नहीं बन सका.
समाधान की तलाश में महिला सफाई कर्मचारी
यह बहुत साधारण-सी बात हो सकती है कि किसी कॉलोनी में कोई सफाई कर्मचारी हर रोज़ नियम से सभी घरों का कूड़ा लेने या सफाई करने आती हैं. सफाई कर्मचारी के एक दिन न आने से लोग परेशान हो जाते हैं लेकिन उसके काम के महत्व को कभी समझा नहीं जाता.
इन सभी महिला सफाईकर्मियों से मिलकर बात करने, साक्षात्कार लेने से कुछ मुख्य बातें सामने आती हैं. इनमें से अधिकांश महिलाओं के पति शराब में अपनी कमाई उड़ा देते हैं. सामान्यत: सभी के बच्चे अधिक हैं जिनकी पढ़ाई पैसों की कमी के कारण कम ही हो पाती.
जब तक किसी को कोई काम नहीं मिलता, तब तक पति-पत्नी दोनों खेतों में मजदूरी करते हैं, पर वहां मेहनत अधिक है और मजदूरी कम, इसलिए वे किसी कॉलोनी में सफाई का काम करना अधिक पसंद करती हैं जहां एक निश्चित वेतन मिल जाता है.
हालांकि वेतन में आसानी से बढ़ोतरी नहीं होती है, साथ ही यह काम मिलना आसान नहीं है. इस बीच विडंबना यह है कि सफाई का काम करने वाली इन सफाईकर्मियों के खुद के घरों में शौचालय तक नहीं हैं.
इन महिलाओं को इन सब समस्याओं का समाधान जल्द मिलने की कोई आशा नहीं है, फिर भी वह सभी परेशानियों को सहन करती हुई भी वे अपने काम में लगी रहती हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
यह रिपोर्ट मैनुअल स्कैवेंजिंग और स्वच्छता के लिए के लिए दी जाने वाली ग्रिट फेलोशिप (#Grit fellowship) का हिस्सा है.
#Grit मैनुअल स्कैवेंजिंग, स्वच्छता व इससे जुड़े जातिगत, लैंगिक, नीतिगत मुद्दों और इस विषय के प्रति उदासीनता को रिपोर्ट करने के लिए द वायर की पहल है.