लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और प्रबुद्धजनों ने सरकार से मांग की है कि सामाजिक कार्यकर्ता आनंद तेलतुम्बड़े के ख़िलाफ़ लगाए गए सभी फ़र्ज़ी आरोपों को तत्काल ख़ारिज किया जाए.
जैसा कि हम जानते हैं, पुणे की स्थानीय अदालत द्वारा प्रोफेसर आनंद तेलतुम्बड़े की अग्रिम ज़मानत की अर्ज़ी को ख़ारिज किये जाने के बाद बीते दो फरवरी की सुबह 3:30 बजे उन्हें मुंबई एअरपोर्ट से गिरफ्तार कर लिया गया था जिसे अदालत ने ग़ैरक़ानूनी क़रार दिया और दोपहर बाद वे छोड़ दिए गए.
पुणे पुलिस की यह जल्दबाज़ी हैरान करने वाली थी क्योंकि प्रो. तेलतुम्बड़े को सर्वोच्च न्यायालय ने ज़मानत लेने के लिए 11 फरवरी तक का समय दिया था. इसी बिना पर दो फरवरी को उनकी गिरफ़्तारी अवैध ठहराई भी गई.
लेकिन यह भी स्पष्ट है कि प्रो. तेलतुम्बड़े के उत्पीड़न के लिए भारतीय राज्य कृतसंकल्प है. इस मामले में सुधा भारद्वाज, वर्नन गोंसाल्विस, वरवरा राव, गौतम नवलखा, अरुण फरेरा जैसे अनेक लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता सरकार के निशाने पर आ चुके हैं और इनमें से ज़्यादातर को गिरफ़्तार किया जा चुका है.
दलित खेत मज़दूर माता-पिता के घर जन्मे और अपनी प्रतिभा, लगन, समर्पण और प्रतिबद्धता के ज़रिये विद्वतजगत में ही नहीं बल्कि देश के ग़रीबों-मज़लूमों के हक़ों की आवाज़ बुलंद करते हुए नई ऊचाइयों तक पहुंचे आनंद तेलतुम्बड़े की यह आपबीती देश-दुनिया के प्रबुद्ध जनों में चिंता एवं क्षोभ का विषय बनी हुई है.
विश्वविख्यात विद्वानों नोम चोमस्की, प्रोफेसर कार्नेल वेस्ट, ज्यां द्रेज से लेकर देश दुनिया के अग्रणी विश्वविद्यालयों, संस्थानों से संबद्ध छात्र, कर्मचारियों एवं अध्यापकों ने और दुनिया भर में फैले आंबेडकरी संगठनों ने एक सुर में यह मांग की है कि पुणे पुलिस द्वारा प्रो. आनंद तेलतुम्बड़े, जो गोवा इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में बिग डाटा एनालिटिक्स के विभागाध्यक्ष हैं, के ख़िलाफ़ जो मनगढंत आरोप लगाए गए हैं, उन्हें तत्काल वापस लिया जाए.
जानी-मानी लेखिका अरुंधति रॉय ने कहा है, ‘उनकी आसन्न गिरफ़्तारी एक राजनीतिक कार्रवाई होगी. यह हमारे इतिहास का एक बेहद शर्मनाक और खौफ़नाक अवसर होगा.’
मालूम हो कि इस मामले में आनन्द तेलतुम्बड़े के ख़िलाफ़ प्रथम सूचना रिपोर्ट पुणे पुलिस ने पिछले साल दायर की थी और उन पर आरोप लगाए गए थे कि वह भीमा कोरेगांव संघर्ष के दो सौ साल पूरे होने पर आयोजित जनसभा के बाद हुई हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं (जनवरी 2018).
यह वही मामला है जिसमें सरकार ने देश के चंद अग्रणी बुद्धिजीवियों को ही निशाना बनाया है, जबकि इस प्रायोजित हिंसा को लेकर हिंदुत्ववादी संगठनों पर एवं उनके मास्टरमाइंडों पर हिंसा के पीड़ितों द्वारा दायर रिपोर्टों को लगभग ठंडे बस्ते में डाल दिया है.
इस मामले में दर्ज पहली प्रथम सूचना रिपोर्ट (8 जनवरी 2018) में आनंद तेलतुम्बड़े का नाम भी नहीं था, जिसे बिना कोई कारण स्पष्ट किए 21 अगस्त 2018 को शामिल किया गया और इसके बाद उनकी गैरमौजूदगी में उनके घर पर छापा भी डाला गया, जिसकी चारों ओर भर्त्सना हुई थी.
गौरतलब है कि जिस जनसभा के बाद हुई हिंसा के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है, उसका आयोजन सेवानिवृत्त न्यायाधीश पीबी सावंत और जस्टिस बीजी कोलसे पाटिल ने किया था, जिसमें खुद आनंद तेलतुम्बड़े शामिल भी नहीं हुए थे बल्कि अपने एक लेख में उन्होंने ऐसे प्रयासों की सीमाओं की बात की थी.
उन्होंने स्पष्ट लिखा था, ‘भीमा कोरेगांव का मिथक उन्हीं पहचानों को मज़बूत करता है, जिन्हें लांघने का वह दावा करता है. हिंदुत्ववादी शक्तियों से लड़ने का संकल्प निश्चित ही काबिलेतारीफ है, मगर इसके लिए जिस मिथक का प्रयोग किया जा रहा है वह कुल मिला कर अनुत्पादक होगा.’
मालूम हो कि पिछले साल इस गिरफ़्तारी को औचित्य प्रदान करने के ‘सबूत’ के तौर पर पुणे पुलिस ने आनंद तेलतुम्बड़े को संबोधित कई फर्जी पत्र जारी किए.
पुणे पुलिस द्वारा लगाए गए उन सभी आरोपों को आनंद तेलतुम्बड़े ने सप्रमाण, दस्तावेजी सबूतों के साथ खारिज किया है. इसके बावजूद ये झूठे आरोप तेलतुम्बड़े को आतंकित करने एवं खामोश करने के लिए लगाए जाते रहे हैं.
जैसा कि स्पष्ट है यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन एक्ट) की धाराओं के तहत महज़ इन आरोपों के बलबूते आनंद तेलतुम्बड़े को सालों तक सलाखों के पीछे रखा जा सकता है.
आनंद तेलतुम्बड़े की संभावित गिरफ़्तारी कई ज़रूरी मसलों को उठाती है.
दरअसल रफ़्ता-रफ़्ता दमनकारी भारतीय राज्य ने अपने-आप को निर्दोष साबित करने की बात ख़ुद पीड़ित पर ही डाल दी है, ‘हम सभी दोषी हैं जब तक हम प्रमाणित न करें कि हम निर्दोष हैं. हमारी जुबां हमसे छीन ली गयी है.’
आज हम उस विरोधाभासपूर्ण स्थिति से गुजर रहे हैं कि आला अदालत को रफाल डील में कोई आपराधिकता नज़र नहीं आती जबकि उसके सामने तमाम सबूत पेश किए जा चुके हैं, वहीं दूसरी तरफ वह तेलतुम्बड़े के मामले में गढ़ी हुई आपराधिकता पर मुहर लगा रही हैं. न्याय का पलड़ा फिलवक्त दूसरी तरफ झुकता दिखता है.
इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कि अदालत ने जनतंत्र में असहमति की भूमिका को रेखांकित किया है, आखिर वह मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों के लिए दूसरा पैमाना अपनाने की बात कैसे कर सकती है.
लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, प्रबुद्धजनों की यह सभा इस समूचे घटनाक्रम पर गहरी चिंता प्रकट करती है और सरकार से यह मांग करती है कि उनके ख़िलाफ़ लगाए गए सभी फ़र्जी आरोपों को तत्काल ख़ारिज किया जाए.
इस लोगों में अशोक भौमिक, हीरालाल राजस्थानी, सुभाष गाताडे, रमणिका गुप्ता, प्रेम सिंह, अली जावेद, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह आदि शामिल हैं.