इतिहास गवाह है कि मंदिर को लेकर माहौल बनाने से चुनावी वैतरणी पार नहीं होती.
आगामी लोकसभा चुनाव से ऐन पहले जहां भारतीय जनता पार्टी और उसकी नरेंद्र मोदी सरकार अयोध्या में ‘वहीं’ राम मंदिर निर्माण का वादा पूरा न कर पाने को लेकर बेतरह असुरक्षा की शिकार हैं, वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के तमाम आनुषंगिक संगठनों के बड़े हिस्से को लग रहा है कि इस मुद्दे पर किसी भी प्रत्याशित-अप्रत्याशित हड़बोंग या सब्जबाग से देश की सत्ता में अपनी वापसी न सिर्फ आसान बल्कि सुनिश्चित भी की जा सकती है.
ये संगठन ऐसा माहौल बनाने के फेर में हैं, जिसमें राम मंदिर संबंधी उनकी किसी भी हड़बोंग से लोकसभा में उन्हें फिर से बहुमत मिलने की गारंटी होने का भ्रम दूर-दूर तक फैलाना आसान हो जाये. लेकिन क्या वाकई उनके पास इस गारंटी जैसा कुछ है?
राम मंदिर आंदोलन के बाद का देश का लोकतांत्रिक अथवा चुनावी इतिहास इसका जवाब हां में नहीं देता. इस आंदोलन के सबसे सुनहरे दिनों में 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के ध्वंस का ‘शौर्य’ प्रदर्शित करने के बाद के चुनावों में भी भाजपा न केंद्र में बहुमत हासिल कर पाई थी, न ही उसके सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में.
उक्त ध्वंस के कारण बर्खास्त उसके बड़बोले मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, जो 1991 में पूर्ण बहुमत से उत्तर प्रदेश की सत्ता में आए थे और अपनी समूची कैबिनेट के साथ अयोध्या आकर रामलला का दर्शन कर गये थे, बाबरी-ध्वंस का श्रेय लेने में चाहे जितने आगे रहे हों, उसके बाद हुए 1993 के प्रदेश विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित भारी बहुमत से जीत का उनका दावा हवा हो गया था.
वे सपा-बसपा गठबंधन के हाथों बाजी हारकर नेपथ्य में चले गये थे. इसी तरह 1996 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को बहुमत नहीं मिल पाया था. तब उसके नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने जो अल्पमत सरकार बनाई, तमाम पापड़ बेलने के बाद भी उसके लिए लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करना संभव नहीं हुआ था. सो, तेरह दिनों में ही उसकी अकाल मौत हो गई थी.
भाजपा को ठीक से केंद्र की सत्ता का सुख तभी नसीब हुआ, जब उसने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बैनर तले राम मंदिर व समान नागरिक संहिता समेत अपने तीनों विवादास्पद मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल दिया.
बाद में लगातार घटते जनसमर्थन के बीच 2014 के लोकसभा चुनाव में उसने अपने बूते बहुमत पाया तो भी उसे राम मंदिर मुद्दे का नहीं, नरेंद्र मोदी के महानायकत्व का चमत्कार माना गया था.
यकीनन, उस वक्त मोदी ने कट्टरपंथी भाजपाई जमातों के साथ अनेक मतदाताओं की विकास कामना को खुद से जोड़ दिया और दोनों को साधने में सफल हो गये थे.
याद रखना चाहिए कि तब अयोध्या में भाजपा के बहुत से मतदाताओं को गिला था कि मोदी न प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने के बाद वहां विराजमान रामलला के दर्शन करने आए और न ही अपना चुनाव प्रचार अभियान भी अयोध्या से शुरू किया.
यहां तक कि वहां कोई ‘विजय संकल्प रैली’ भी नहीं की. जहां ये रैलियां कीं, वहां भी अपने भाषणों में राम मंदिर मुद्दे को छुआ तक नहीं.
अयोध्या को अपने में समेटने वाली फैजाबाद लोकसभा सीट पर चुनाव प्रचार खत्म होने से कुछ ही घंटे पहले भगवान राम व उनके मंदिर के चित्र वाले मंच से मतदाताओं को संबोधित किया तो भी भगवान राम, महात्मा गांधी और रामराज का ही जिक्र किया- राम मंदिर का नहीं.
अपने पांच सालों के कार्यकाल में वे भले ही दुनिया के अनेक देश घूम आए हों, अब तक एक बार भी अयोध्या नहीं आए. अलबत्ता, 2017 में उनके ही करिश्मे से उत्तर प्रदेश में बनी पूरे बहुमत वाली भाजपा सरकार के मुखिया योगी आदित्यनाथ बार-बार अयोध्या आकर अपने हिंदू एजेंडे को धार देने में लगे रहते हैं.
अब जहां योगी यह कहकर सर्वोच्च न्यायालय तक को चिढ़ा रहे हैं कि अगर वह अयोध्या विवाद को शीघ्र निपटाने में असमर्थ है तो उसे उनको सौंप दे. वे 24 घंटों में उसे हल कर देंगे. खुद को न्यायालय में बदल लेने की उनकी इस ‘हसरत’ के बीच प्रधानमंत्री भी इस मुद्दे पर मुखर हो चले हैं और कांग्रेस पर उस संबंधी फैसले की राह अवरुद्ध करने की तोहमत लगा रहे हैं.
उनकी सरकार ने भी सर्वोच्च न्यायालय में यह चालाकी भरी याचना करके खुद को विवाद में लपेट लिया है कि उसे 1993 में अयोध्या विवाद के सौहार्दपूर्ण हल के लिए अधिग्रहीत की गई भूमि का अविवादित हिस्सा उनके मूल स्वामियों को वापस करने की अनुमति दी जाये, तो लोग याद दिला रहे हैं, अब तक जिस भी सरकार ने चुनावी लाभ की आंकांक्षा से इस विवाद में लिप्त होने की कोशिश की, वह वापसी नहीं कर पाई.
यहां तक कि जिस भी पार्टी ने अयोध्या से अपना चुनाव प्रचार अभियान शुरू किया, वह भी सत्ता में नहीं आ सकी. उल्टे सत्ता उसके पास थी तो उसको भी गंवा बैठी.
थोड़ा पीछे पलट कर देखें तो अयोध्या आकर चुनाव प्रचार का अभियान शुरू करने का सिलसिला 1989 के लोकसभा चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शुरू किया था. जानकारों के अनुसार शाहबानो और बोफोर्स जैसे पेंचीदा मामलों में तमाम आरोपों से घिर जाने के बाद उन्होंने अपने कुछ मित्रों की सलाह पर भाजपा से उसका कथित हिंदू कार्ड छीनने के लिए ऐसा किया था.
उन दिनों कांग्रेसी राम जन्मभूमि का ताला खुलवाने से लेकर राम मंदिर का शिलान्यास कराने का श्रेय लेते नहीं अघा रहे थे. तब राजीव कांग्रेस के प्रचार अभियान के क्रम में सबसे पहले फैजाबाद (अब अयोध्या) आए और उस सीट के कांग्रेस प्रत्याशी निर्मल खत्री के समर्थन में रैली को संबोधित करके फिर सत्ता में आने पर रामराज्य लाने का वादा किया था.
लेकिन न उनकी सरकार फिर से सत्ता में आ सकी और न ही निर्मल खत्री फैजाबाद लोकसभा सीट जीत सके. उनसे नाराज फैजाबाद के मतदाताओं ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मित्रसेन यादव को अपना सांसद चुन लिया.
वाममोर्चे की सदस्य भाकपा केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार की समर्थक थी, जिसका भाजपा भी बाहर से समर्थन कर रही थी. लेकिन वीपी की सरकार लंबी उम्र नहीं पा सकी और उसके बाद कांग्रेस ने अपने समर्थन से बनी चंद्रशेखर की सरकार को भी चलता कर दिया.
उसके बाद लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हुए तो उनके बीच में ही तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदूर में आत्मघाती मानव बम विस्फोट से राजीव गांधी की निर्मम हत्या कर दी गई.
इससे पहले भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या रथयात्रा रोकने व उन्हें गिरफ्तार करने को लेकर भाजपा ने वीपी सरकार से समर्थन वापस लिया तो स्पष्ट तौर पर अल्पमत में आ जाने के बावजूद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने घोषणा कर दी कि वे लोकसभा में शक्ति परीक्षण में पराजित होने के बाद ही इस्तीफा देंगे.
आम तौर पर इस्तीफा जेब में रखकर घूमने वाले वीपी ने ऐसा एक सुविचारित रणनीति के तहत किया. उन्हें उम्मीद थी कि इस मामले में विपक्षियों को ‘निर्वसन’ करने के बाद चुनाव में जायेंगे तो इसका भरपूर लाभ पायेंगे. लेकिन उनकी सिर्फ सरकार ही नहीं गिरी, उनके जनता दल के भी इतने टुकड़े हो गये कि उसकी फिर से सरकार में वापसी की कोई संभावना नहीं रह गई.
गौरतलब है कि 1990 में अयोध्या के विवादित ढांचे को बचाने का दावा करने वाली वीपी सरकार वापस नहीं आई तो 6 दिसंबर, 1992 को उसे ढह जाने देने वाली पीवी नरसिम्हा राव की सरकार भी चुनाव में गई तो बस चली ही गई.
अयोध्या से चुनाव प्रचार शुरू करने की एक और नजीर 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बनायी. वे सरयू नदी पर बने रेल पुल के उद्घाटन के बहाने अयोध्या आए और एक रैली को संबोधित करके अपना अभियान शुरू किया.
वे ‘भारत उदय’ के दिन थे और लोगों को पूरी उम्मीद थी कि अटल जी लोकसभा चुनाव जीतकर फिर से प्रधानमंत्री बनेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और राजीव गांधी की ही तरह अटल सरकार भी लौट कर नहीं आई.
भाजपा के फैजाबाद सीट के प्रत्याशी लल्लू सिंह को भी जीत नसीब नहीं हुई. उसके बाद तो जैसे अटल युग का अंत ही हो गया. हालांकि इससे पहले के चुनावों में उनकी भाजपा तेजी से बढ़ती हुई पार्टी थी और उसने अटल को तीन बार प्रधानमंत्री पद पर पहुंचाया था.
इन तथ्यों के आईने में समझा जा सकता है कि 2014 में ‘विकास के महानायक’ और ‘गुजरात के आर्थिक माॅडल के प्रणेता’ का रूप धरकर सत्ता में आए नरेंद्र मोदी का उस ऊंचे आसन से उतरकर खुद को अयोध्या विवाद में लथपथ करना आगामी लोकसभा चुनाव में उनके काम आएगा या उन्हें कीमत चुकाने को मजबूर करेगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)