3000 करोड़ रुपये की मूर्ति, 1 लाख करोड़ रुपये की बुलेट ट्रेन उस देश की सबसे पहली ज़रूरतें हैं, जहां छह करोड़ बच्चे कुपोषित हैं, शिक्षकों के दस लाख पद ख़ाली हैं, सवा तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं और 20 करोड़ लोग रोज़ भूखे सोते हैं.
क़र्ज़दार सरकारें देश की आज़ादी को सुरक्षित नहीं रख सकती हैं, क्योंकि तब क़र्ज़ देने वाला नीतियों पर नियंत्रण रखता है. माध्यम वर्ग को आयकर में थोड़ी छूट और मिली, 12 करोड़ किसानों को हर रोज़ 16.50 रुपये मिलेंगे, क्योंकि वे पिछले दिनों कमर कस के बाहर निकल आए थे.
2030 तक नदियों को साफ़ करने का वायदा, 2030 में सबको पीनी का साफ़ पानी मिलने का सुखद स्वप्न; बहुत लोगों ने तालियां बजायीं और सोचा कि यह विकासवादी बजट आ गया है. हम सब अपने-अपने हित, अपने-अपने सुख पाल रहे हैं.
मुझे जो मिला, मैं उससे खुश हो गया और दाएं-बाएं देखना, यह सवाल पूछना छोड़ दिया कि सरकार का पैसा कहां से आ रहा है और कहां जा रहा है?
हम सब अर्थव्यवस्था के विध्वंस में भागीदार बन रहे हैं. सरकार ने 1 लाख करोड़ रुपये जनता को देकर, ख़ुद 7 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ लेने का अधिकार पा लिया और इससे भी ऊपर समाज की प्राथमिकताओं के क्रम को बिगाड़ने का भी; किसी को सरकार कभी नहीं बताती कि वह क्यों क़र्ज़ ले रही है और इसका आने वाली पीढ़ियों पर क्या असर पड़ेगा?
लोकतंत्र में चुनाव बहुत महत्वपूर्ण कारक होता है, परंतु भारत में चुनाव भविष्य की संभावनाओं को आज ही बंदी बना देने के काम आने लगे हैं. समाज को गुलाम बना लेने के लिए राजनीतिक विचारधारा को राज्य पर नियंत्रण चाहिए, यह नियंत्रण चुनाव से हासिल होता है.
सत्ता में आने के बाद राजनीतिक दल के काम के दो विभाग होते हैं- एक विभाग होता है समाज को अपनी विचारधारा और चरित्र के अनुरूप ढालने की प्रक्रिया चलाना और इससे होने वाले वाले नुकसान की राजनीतिक आर्थिक नीति से भरपाई करने की कोशिश करते रहना.
वर्ष 1991 से जनवरी 2019 तक 28 साल गुज़र गए हैं, हर साल नित नई चुनौतियों का सामना भारत कर रहा है. ज़रा सोचिये कि आर्थिक विकास के दावे के साथ लागू की गई उदारवादी-निजीकरण की नीतियों का आज परिणाम यह है कि भारत इस अवधि में सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी के संकट में फंस गया है आज 6 करोड़ लोग काम की तलाश में हैं.
आखिर क्या बदला है इन 28 सालों में? आर्थिक नीति का सबसे अहम पहलू होता है कि सरकार की आय और व्यय का स्वरूप क्या है? क्या वह वास्तव में आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ रहा रही या आर्थिक संसाधनों के लिए सरकार ख़ुद भी बाज़ार और निजी क्षेत्र पर निर्भर होती जा रही है?
सच तो यह है कि भारत की सरकार का विकास के गुब्बारे में लोक ऋण (यानी भारत सरकार द्वारा बाज़ार, प्रतिभूतियों, लोगों की जमा और बचत, विदेशी ऋण) की हवा भरी हुई है. अब हमें यह पूछना होगा कि भारत आर्थिक विकास कर रहा है, किन्तु क्या भारत आत्मनिर्भर हो रहा है?
क्या भारत सरकार आज लोक हित में कोई भी नीति बाज़ार के दबाव के बिना बना सकती है? बुलेट ट्रेन से लेकर शौचालय बनाने और शिक्षा तक सरकार निजी क्षेत्र और वित्तीय संस्थाओं पर निर्भर है.
अंतर्राष्ट्रीय संस्था ऑक्सफेम के मुतबिक असमानता को ख़त्म करने की प्रतिबद्धता रखने वाले 157 देशों की सूची में भारत का स्थान 147 है. स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा पर लोक व्यय के मामले में इसका स्थान 151 है.
मज़दूरों के हक़ों की सुरक्षा में भारत 141 वें स्थान पर है. ताज़ा हालात ये हैं कि वर्ष 2017-18 में भारत के अरबपतियों की कमाई में हर रोज़ 2200 करोड़ रुपये का इज़ाफ़ा हुआ. भारत के 13.6 करोड़ लोग वर्ष 2004 से लगातार क़र्ज़ में फंसे हुए हैं.
भारत की 77.4 प्रतिशत सम्पदा 10 प्रतिशत अमीर लोगों के हाथ में है. इतना ही नहीं इनमें भी ग़ज़ब की उठापटक है. भारत की 51.53 प्रतिशत संपदा पर भारत के 1 प्रतिशत सबसे अमीर लोगों का क़ब्ज़ा है जबकि आर्थिक स्थिति के आधार पर नीचे की पायदान पर रहने वाले 60 प्रतिशत लोगों के पास देश की केवल 4.8 प्रतिशत सम्पदा है.
थोड़ा और जानते हैं. भारत से 9 सबसे अमीर लोगों के पास जितनी सम्पत्ति है, वह भारत के निचले पायदान पर रहने वाले 50 प्रतिशत लोगों के बराबर है.
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए सरकार के इस कार्यकाल के आख़िरी बजट (जिसे अंतरिम बजट कहा गया) में अगले दशक के लिए दस सूत्रीय एजेंडा दिया गया, जिसमें नदी, आसमान, स्वास्थ्य, उद्योग आदि की बात कही गई है; लेकिन इसमें यह नहीं कहा गया कि सरकार पूंजी के केंद्रीयकरण और नव-उपनिवेशवादी कारनामों पर अंकुश लगाएगी.
एक जगह पर समता शब्द का भी उपयोग किया गया है, किन्तु क्या समानता के लिए कोई पहल की जा रही है?
अगले पांच साल में 5 ट्रिलियन और दस साल में दस ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था बनाने का सपना देखा गया है; अर्थव्यवस्था तो बढ़ ही जाएगी, परन्तु यह भी तय है कि इन नीतियों के चलते 10 ट्रिलियन डॉलर की उस अर्थव्यवस्था का संचालन संविधान, संसद, सरकार और लोक से नहीं, बल्कि 10 सबसे अमीर परिवारों से होगा; जो अर्थव्यवस्था पर इतना नियंत्रण जमा लेंगे कि कोई भी सरकार सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके मुताबिक काम करे.
ज़रा सोचिये एक तरफ तो कुछ परिवार अमीर से अमीर होते गए, परन्तु दूसरी तरफ भारत की सरकार ख़ुद भी क़र्ज़ के दलदल में फंसती चली गई.
वर्तमान स्थिति में भारत में कुल 119 खरबपति हैं, जिनकी कुल सम्पत्ति 28 लाख करोड़ रुपये है. ऑक्सफेम के मुताबिक भारत में सरकार पूरे देश के लिए चिकित्सा, स्वास्थ्य, स्वच्छता और जल आपूर्ति पर कुल 2.08 लाख करोड़ रुपये ख़र्च करती है; इसके उलट अकेले मुकेश अंबानी की सम्पदा का मूल्य 2.80 लाख करोड़ रुपये है.
हम सब लगातार आर्थिक विकास के पहलुओं से संदर्भ में सरकार के तरफ से एक वक्तव्य को बार-बार सुनते रहते हैं कि देश तरक्की कर रहा है. इसमें कोई शक नहीं है कि सड़कें बनी हैं, बिजली ज़्यादा मिल रही है, अस्पताल भी ज़्यादा बन गए हैं, इमारतें और भवन अब बहुतायत में हैं; सवाल यह है कि ये जो हासिल है, वह कैसे हासिल हुआ है?
यह सब कुछ कितना स्थायी है? क्या एक व्यक्ति और सामाजिक प्राणी होने के नाते हम यह मानते हैं कि क़र्ज़दार होकर सुविधाएं जुटा लेना एक अच्छी नीति है? कभी हमारी विकास दर 4 प्रतिशत हो जाती है, तो कभी 6 प्रतिशत, कभी 7 और 7.5 प्रतिशत. इसे ही वृद्धि दर (ग्रोथ रेट) भी कहा जाता है.
वास्तव में यह वृद्धि दर होती क्या है? अर्थव्यवस्था के सालाना आकार और स्वरूप का आकलन उस राशि से किया जाता है, जितना वित्तीय लेन-देन उस साल में किया गया; इसमें उत्पादन शामिल है.
दूसरे रूप में कहें तो सभी तरह के सामानों और वस्तुओं की ख़रीद-बिक्री, सेवाओं के शुल्क (वकील, डाक्टर, नल सुधरवाने, परामर्श लेने आदि), परिवहन, कृषि, उद्योग, खनन, बैंकिंग सरीखे क्षेत्रों में जितना लेन-देन का व्यापार होता है, उस राशि को जोड़कर यह देखा जाता है कि देश में कुल कितनी राशि का आर्थिक व्यवहार हुआ!
यह उस साल का सकल घरेलू उत्पाद (यानी ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट- जीडीपी) माना जाता है. इसमें बीमारी का ज़्यादा महत्व है, स्वास्थ्य का नहीं. पहाड़ों को जितना ज़्यादा छीला जाएगा, नदियों का जितना दोहन किया जाएगा, जितने ज़्यादा दरख़्त काटे जाएंगे; सकल घरेलू उत्पाद उतना ही तो बढ़ेगा.
वृद्धि दर केवल अर्थव्यवस्था के आकार को सांकेतिक रूप में प्रस्तुत करने के लिए गढ़ी गई अवधारणा है; जबकि विकास को मापने के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक-आर्थिक-लैंगिक बराबरी, सामाजिक समरसता, शांति, संसाधनों का समान वितरण सरीखे पहलुओं का संज्ञान लिया जाना अनिवार्यता होती है.
हम किसी भी स्तर पर उस अनिवार्यता का पालन नहीं करते हैं. हमारे पिछड़ेपन का स्तर यह है कि अब तक इन मानकों के आधार पर मानवीय विकास को हर साल मापने का कोई पैमाना हम विकसित ही नहीं कर पाए हैं.
यही कारण है कि भारत में पोषण और स्वास्थ्य से संबंधित अखिल-भारतीय आंकड़े 8 से 10 साल में एक बार जारी होते है. मातृत्व मृत्यु के स्तर को 5 से 6 साल में एक बार जांचा जाता है. शिशु मृत्यु दर के आंकड़े 2 से साल देरी से आते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मानवीय विकास के इन सूचकों का कोई खास महत्व वृद्धि दर में होता नहीं है.
एक फरवरी 2019 को जब भारत के आम बजट के दस्तावेज़ जारी हुए, तो ज़रूरी था, उन पन्नों को पलटना, जिन्हें आम भारतीय पलटते नहीं हैं. यह देखना कि संसद में विकास की क्रांति की घोषणा को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन हैं कहां? क्या वास्तव में सरकार ज़िम्मेदारी और जवाबदेही के साथ आय-व्यय पर नियंत्रण रख रही है?
क़र्ज़दार सरकार
वर्ष 2003 में भारत सरकार ने वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन क़ानून लाया गया, जिसमें सकल घरेलू उत्पाद के मुक़ाबले लोक ऋण को सीमित रखने की मानक तय किए गए.
वर्ष 2001-02 में भारत सरकार पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 61.4 प्रतिशत के बराबर का था. जो मार्च 2018 में घटकर 50.5 प्रतिशत पर आ गया. जब सकल घरेलू उत्पाद की अवधारणा की खोखली और भ्रमित करने वाली है, तो वित्तीय घाटे और लोक ऋण के मानकों को किस हद तक विश्वसनीय मान जा सकता है?
जीडीपी के आंकड़ों में लगातार हेर-फेर हो रहे हैं, कोई नहीं जानता कि वास्तव में भारत की सही जीडीपी है कितनी; किन्तु लोक ऋण एक भौतिक सच्चाई है; क़र्ज़ लिया गया है और क़र्ज़ चुकाया जाना है और ब्याज चुकाया जा रहा है… ये सब प्रत्यक्ष है, किन्तु जीडीपी मृगतृष्णा है.
आधुनिक आर्थिक नीतियों को अपनाए जाने के ठीक पहले यानी वर्ष 1990-91 में भारत सरकार का ख़र्च 94,535 करोड़ रुपये का था. उस समय लोक ऋण 1.20 लाख करोड़ रुपये था. जिसमें से 20,850 करोड़ रुपये का व्यय ब्याज भुगतान के रूप में किया जाता था.
हाल ही में पेश किया गए वित्तीय वर्ष 2019-20 के बजट का आकार 27.33 लाख करोड़ रुपये हो गया है यानी बजट का आकार 28 गुना बढ़ गया है. इसी अवधि में भारत सरकार पर लोक ऋण 82 गुना बढ़कर 97,97,818 करोड़ रुपये हो गया है.
इसके साथ ही सरकार के कुल बजट में से 24 प्रतिशत का हिस्सा यानी 6,65,061 करोड़ रुपये केवल ब्याज के भुगतान में ख़र्च किए जाने लगे.
लोक ऋण का तेज़ी से बढ़ता तूफ़ान
वर्ष 1950-51 में भारत सरकार पर कुल 3059 करोड़ रुपये का लोक ऋण था, जो वर्ष 2019-20 में बढ़कर 97.98 लाख करोड़ रुपये हुआ जा रहा है, यानी 320 गुना वृद्धि हुई है.
इसी तरह आज़ादी के बाद उस वर्ष में ब्याज के रूप में 39 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया था. वर्ष 2019-20 में भारत सरकार क़र्ज़ के एवज में 6.65 लाख करोड़ रुपये के ब्याज का भुगतान करेगी.
इस साल भारत सरकार का कुल व्यय 27.84 लाख करोड़ रुपये का है, जिसमें से 6.65 लाख करोड़ रुपये यानी 24 प्रतिशत राशि केवल ब्याज में जाएगी.
एक तरफ तो राजस्व बढ़ाने के लिए भारत सरकार वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) लगा रही है, नोटबंदी कर रही है, पर फिर भी वर्ष 2019-20 के लिए उसे 7.03 लाख करोड़ रुपये का नया क़र्ज़ लेना होगा.
वर्ष 1997-98 में भारत सरकार पर कुल लोक ऋण 7.78 लाख करोड़ रुपये था, जो 13 गुना बढ़कर 97.98 लाख करोड़ रुपये तक पंहुच गया है. इसी तरह क़र्ज़ के एवज में चुकाया जाने वाला ब्याज दस गुना बढ़ा है, जो 65,637 करोड़ से बढ़कर 6.65 लाख करोड़ रुपये हो गया. इन 23 सालों में भारत सरकार ने केवल ब्याज के रूप में 59.75 लाख करोड़ रुपये का भुगतान किया है.
राजग सरकार का कार्यकाल
वर्ष 1999 से वर्ष 2019 तक प्रस्तुत हुए बजटों के आधार पर अब तक यह माना जा सकता है कि चार सरकारों ने अपने कार्यकाल पूरे किए हैं. इन चार सरकारों में लोक ऋण बढ़ाने में सभी सरकारों ने भूमिका निभाई है.
1999 से 2003 तक अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 7.16 लाख करोड़ रुपये, फिर यूपीए (एक) ने 11.65 लाख करोड़ रुपये, यूपीए (दो) ने 21.39 लाख करोड़ रुपये और फिर वर्तमान एनडीए की सरकार ने लोक ऋण में 35.55 लाख करोड़ रुपये का भार बढ़ाया है.
जब नरेंद्र मोदी की सरकार ने कार्यभार लिया था तब 65.42 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ सरकार पर था, जो उनके हालिया बजट प्रावधानों के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2019 में 97.98 लाख करोड़ रुपये तक पंहुच रहा है. लोक ऋण से आर्थिक विकास की नीति आज़ाद भारत के नागरिकों की आज़ादी को छीन लेगी.
सच तो यह है कि भारत और लोकतंत्र, दोनों की ही प्राथमिकताएं बेठिकाने-बेठौर कर दी गई हैं. 3000 करोड़ रुपये की मूर्ति, 5000 करोड़ रुपये की धार्मिक योजना, 1 लाख करोड़ रुपये की बुलेट ट्रेन; क्या ये उस देश की सबसे पहली ज़रूरतें हैं, जहां छह करोड़ बच्चे कुपोषित हैं, शिक्षकों के दस लाख पद ख़ाली हैं, सवा तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं और 20 करोड़ लोग रोज़ भूखे सोते हैं?
जिस तरह का व्यय भारत की पूंजीखोर-फासीवादी सरकारें कर रही हैं, वहां विकास से बड़ा विनाश कुछ और हो ही नहीं सकता.
(लेखक सामाजिक शोधकर्ता और कार्यकर्ता हैं.)