किसी आतंकी हमले के बाद निंदा और बदले के बजाय इंसाफ़ और समाधान की बात क्यों नहीं की जाती? अभी जिस बदले की हमारे सत्ताधीश बात कर रहे हैं, कभी उन्होंने इस बात पर ग़ौर किया है कि क्या उसका कोई सार्थक परिणाम निकलेगा?
यकीनन, यह देश के लिए बेहद रोष और क्षोभ का क्षण है, शोक का तो खैर है ही. लेकिन स्वार्थी व संकीर्ण राजनीति का एकदम से नहीं. इसलिए कि जम्मू कश्मीर में घाटी स्थित पुलवामा ज़िले में जैश-ए-मोहम्मद ने अपने भीषण आत्मघाती हमले में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के 40 जवानों को शहीद और इससे कहीं ज़्यादा लोगों को ज़िंदगी व मौत के बीच संघर्ष करने को अभिशप्त कर हमारे सामने जो गंभीर चुनौती पेश की है.
उसका उससे दोगुनी गंभीरता के साथ सामना करना ज़रूरी है. हां, इस गंभीरता के लिए यह समझना ज़रूरी है कि अपनी शक्ति और उसके स्रोतों में आश्वस्त हमारे जैसे विशाल देश ऐसी चुनौतियों के समक्ष विचलित होकर सिर्फ़ शोक मनाते नहीं रह जाते और न ही देशवासियों का खून खौलने की आड़ लेकर चुनौतियों से जुड़ी जटिलताओं को उनकी तार्किक परिणति तक पहुंचाने से जी चुराते हैं. ऐसे अवसरों को जनभावनाओं का बेवजह दोहन करने के लिए तो वे कतई इस्तेमाल नहीं करते.
हालांकि दुर्भाग्य कि आज़ादी के बाद से अब तक की सारी सत्ताएं, वे किसी भी दल या विचारधारा की रही हों, जम्मू कश्मीर की समस्याओं की जटिलताओं, और साथ ही संवेदनशीलता को ईमानदारी से समझे बिना उन्हें राष्ट्रवादी (पढ़ें: अंधराष्ट्रवादी) भावनाओं के मकड़जाल में उलझाती और उनसे जुड़े सवालों से सीधे टकराकर उन्हें समाधान तक ले जाने से भरसक कतराती रही हैं.
उनके द्वारा राज्य की ज़मीनी सच्चाइयों से मुंह मोड़े रहकर न सिर्फ़ ख़ुद को बल्कि देश को भी इस मकड़जाल में फंसाते जाने का ही नतीजा है कि जब हमारे ख़ुद को कुछ ज़्यादा ही राष्ट्रवादी कहने वाले वर्तमान सत्ताधीश विशुद्ध चुनावी लाभ के लिए अपनी ‘उपलब्धियों’ में यह दावा करते नहीं थक रहे थे कि उन्होंने नोटबंदी व सर्जिकल स्ट्राइक के मार्फत न सिर्फ़ आतंकवादियों की कमरतोड़ दी है.
इतना नहीं है यह भी दावा किया गया है कि आतंकियों को आर्थिक रूप से भी निरस्त्र कर दिया गया है, इस कदर कि अब वे कोई बड़ा हमला कर पाने की हालत में ही नहीं हैं और वहशी आतंकियों ने उन्हें छकाते हुए सेना के जवानों पर अब तक के सबसे बड़े हमलों में एक कर डाला है.
अब, सोते हुए पकड़ जाने के बाद ये सत्ताधीश ख़ुद को आईने या सवालों के सामने करने के बजाय चाहते हैं कि उनसे इससे जुड़े अप्रिय या असुविधाजनक सवाल पूछे ही न जाएं और उन्हें देशवासियों के रोष व क्षोभ की भेंट हो जाने दिया जाए.
उन्हें यह समझना भी गवारा नहीं कि असुविधाजनक व अप्रिय सवाल लगातार टाले जाते रहें, तो नई असुविधाओं व अप्रियताओं के वाहक तो बन ही जाते हैं, ऐसी नई उलझनें भी पैदा करते हैं, जिनसे पार पाना लगातार दुश्वार होता जाए.
ऐसे में सच पूछिए तो यही वह समय है, जब इन सत्ताधीशों को बताया जाना चाहिए कि अपने पांच सालों में वे न सिर्फ़ जम्मू कश्मीर बल्कि देश की प्रायः सारी समस्याओं का युवा पीढ़ी के अराजक अराजनीतिकरण के साथ सेना व सुरक्षाबलों के राजनीतिकरण के रास्ते जो समाधान ढूंढ़ते रहे हैं, वे अब उन्हीं पर औंधे मुंह आ गिरने लगे हैं.
जम्मू कश्मीर को लेकर तो ख़ैर उनका यह अंतर्विरोध जगजाहिर है कि उन्हें जितना उसकी स्वर्ग से सुंदर धरती या कि सत्ता से प्यार है, वहां के लोगों से उसका दसवां हिस्सा भी नहीं.
होता तो जैसे वे पिछले दिनों राज्य की सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाने की तैयारी में अपनी चुनावी जीत के लिए आतंकियों को शुक्रिया कहने वाली पीडीपी से गलबहियां के दौर में जा पहुंचे थे (यह और बात है कि इस गलबहियां को भी अल्पकालिक सिद्ध होने से नहीं रोक पाए).
वैसे ये सत्ताधीश ऐसा कर सकते थे कि किसी भी हाल में ऐसी स्थितियां पैदा होने से रोकते, जिनके कारण जम्मू कश्मीर के लोग, ख़ासकर उद्वेलित युवा, अकस्मात सेना और सुरक्षाबलों के ख़िलाफ़ जा खड़े हुए.
ये सत्ताधीश इस बात से कैसे इनकार कर सकते हैं कि उनके द्वारा कश्मीरियों के जायज सवालों की लगातार अनसुनी के बीच वहां के ‘पत्थरबाज़ों’ को पैलेटगनों के सामने कर दिया और उनके दानवीकरण का कोई मौका न चूकने के चलते ही अनुकूल परिस्थितियों की तलाश कर रहे आतंकियों को कश्मीर में अपने सुनहरे दिनों की वापसी का हौसला मिला.
तभी तो देश में और कहीं किसी के अच्छे दिन आए हों या नहीं, जम्मू कश्मीर के आतंकियों के तो आ ही गए हैं और दुख की बात हैं कि सत्ताधीशों द्वारा पैदा किए गए उद्वेलन उनके बड़े मददगार सिद्ध हो रहे हैं.
देश का यह सबसे संवेदनशील राज्य फिलहाल, लोकप्रिय सरकार से तक से महरूम है, तो इन्हीं सत्ताधीशों की कृपा से.
तिस पर विडंबना यह कि इस चुनाव से उस चुनाव तक की ही सोचने वाले ये सत्ताधीश जम्मू कश्मीर में घटित होने वाले सारी घटनाओं को ऐसे अंदाज़ में पाक द्वारा पोषित या प्रेरित बताते हैं, जैसे पाकपोषित होने के कारण उनकी गंभीरता कम हो जाती है या सत्ताधीश उन्हें रोकने की ज़िम्मेदारी से छुट्टी पा जाते है.
कई बार तो लगता है कि इन सत्ताधीशों के पास कश्मीर या पाकिस्तान को लेकर कोई सुविचारित नीति ही नहीं है-पल में तोला, पल में माशा और पल में रत्ती की तर्ज पर वे अपने सत्ता स्वार्थों के लिहाज़ से कभी पाक के प्रति बेहद कड़े तो कभी मुलायम होने का दिखावा करते रहते हैं.
और तो और, वे अपने पूर्वज अटल बिहारी वाजपेयी का यह कथन भी याद नहीं रख पाते कि आप मित्र चुन या बदल सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं. वह जो भी और जैसा भी है, उसी के साथ निभाना और वक़्त की नज़ाक़त के अनुसार उसकी ज़मीन पर जाना या उसे अपनी ज़मीन पर लाना पड़ता है.
दुख की बात है कि इन सत्ताधीशों से इनमें से एक भी काम नहीं हो पाता. अलबत्ता, ऐसा न हो पाने के पीछे पाक के हुक्मरानों की भी बराबर की भूमिका है. उन साम्राज्यवादी शक्तियों की तो है ही, दोनों देशों के सत्ताधीश अपनी शांतिकामी जनता की पवित्र आंकाक्षाओं के विपरीत जिनके हाथों का खिलौना बने रहते हैं.
बहरहाल, हमारे सत्ताधीशों के पास तो इस सवाल का जवाब भी नहीं है कि क्यों जम्मू कश्मीर के आतंकी- वे चाहें पाकप्रेरित हों या स्वत:स्फूर्त-अपनी जान देकर भी हमें पस्त करके रख देना चाहते हैं और क्या इसका समाधान यही है कि हम उनके हर हमले के बाद कायरतापूर्ण कहकर उनकी निंदा और ‘हिंदुस्तान मांगे बदला’ जैसी बातें करते रहें?
अगर नहीं तो निंदा और बदले के बजाय इंसाफ और समाधान की बात क्यों नहीं की जाती? जिस बदले की बात अभी हमारे सत्ताधीश कर रहे हैं, कभी उन्होंने इस बात पर ग़ौर किया है कि क्या उसका कोई सार्थक परिणाम निकलेगा?
दुनिया का इतिहास गवाह है कि जिन समस्याओं को लेकर बड़े-बड़े युद्ध हुए, वे भी अंतत: युद्धों से नहीं वार्ताओं की मेज़ों पर ही हल हुईं.
ऐसे में जब हम जम्मू कश्मीर के आतंकवाद को पाकप्रेरित बताते हैं, तो इस बाबत उससे बात क्यों नहीं करते? क्यों नहीं समझते कि अपनी जितनी शक्ति उससे बात किए प्रदर्शित करते हैं, वार्ता में अपने रवैये पर दृढ़ रहकर उससे ज़्यादा प्रदर्शित कर सकते हैं.
यकीनन, पाक को उसके किए का सबक सिखाये जाने की ज़रूरत भी है, लेकिन इस होशमंदी के साथ कि यह सबक उससे युद्ध में नहीं, अपनी व्यवस्थाओं को इतना सक्षम बनाने में है कि आतंकवादी उन्हें भेदकर हमले न कर सके.
अभी तो हमारी व्यवस्था की हालत यह है कि वह द्वेष को कौन कहे, उस सड़क को भी आतंकी हमलों से निरापद नहीं बना पा रही, जिससे केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के ढाई हज़ार जवानों का काफिला निकल रहा हो. पाक को सबक सिखाना है तो ऐसी स्थिति के ज़िम्मेदारों को भी सबक सिखना होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)