आज़ादी के इतिहास को देखने पर यह पता चलता है कि तत्कालीन नेताओं ने आज़ादी को प्राप्त करने हेतु अपने-अपने मार्गों पर चलने का कार्य किया परंतु एक मार्ग पर चलने वाले ने दूसरे मार्ग पर चलने वाले नेताओं को कभी भी राष्ट्रद्रोही नहीं कहा.
पिछले कुछ वर्षों से राष्ट्रवाद पर समाज के प्रत्येक हिस्से में संवाद, बहस और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है. बहस और संवाद तक तो बात ठीक है लेकिन बात की तह तक न पहुंचकर आरोप-प्रत्यारोप निश्चित ही किसी भी समाज के लिए घातक होते हैं.
राष्ट्रवाद जोड़ने की एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे देश के नागरिकों का परस्पर प्रेम और आपसी सौहार्द बढ़ता है. राष्ट्रवाद सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक और धार्मिक आधार पर टकराव पैदा नहीं करता बल्कि राष्ट्र की प्रथम इकाई नागरिक के हितों का संरक्षण एवं संवर्धन करके राष्ट्र को उन्नति की राह पर उन्मुख करता है.
चाणक्य कहते हैं, सुखस्य मूलं अर्थ:, अर्थात सुख का मूल अर्थ है. इससे स्पष्ट होता है कि राष्ट्राध्यक्ष का कार्य अपने राज्य को अर्थ से परिपूर्ण करना है. क्या टकराव से या एक दूसरे को नीचा दिखाने से यह संभव हो पाएगा. किसी भी राज्य के सर्वस्य क्या है इसका भी चाणक्य ने निवारण किया है.
उनके अनुसार ‘अलब्धलाभादिचतुष्टयं राज्यत्रंम’ अर्थात अप्राप्त की प्राप्ति, प्राप्ति का संरक्षण, संरक्षित का संवर्द्धन और संवर्द्धित का वितरण ये चार ही राज्य के सर्वस्य होने चाहिए.
भारतवर्ष जो लंबे समय तक गुलाम रहा उसके बाद भी उसने अपनी आध्यात्मिक पहचान को हमेशा कायम रखा, एक ऐसी पहचान जिसमें विश्व बंधुत्व, प्रेम, अहिंसा, मानवता, करुणा और सत्य का समावेश है.
हमारे विशाल देश में अनेकों धर्म, जाति, संप्रदाय, संस्कृति और भाषाओं का बोलबाला है. उसके बाद भी पूरे देश ने एक सूत्र में रहकर गुलामी को नकारा और देश आज़ाद हुआ. ऐसी क्या बात थी कि भारत ने अपनी आज़ादी की लड़ाई भी अहिंसक तरीके से लड़ी.
हालांकि क्रांतिकारियों का भी उस आज़ादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान था.
शायद भारत के गुणसूत्र की संरचना में अहिंसा और सहिष्णुता का समावेश है. इतनी विभिन्नताओं का सम्मान करना ही राष्ट्र को एकसूत्र में रख सकता है. यदि भाषा, संप्रदाय, जाति, रंग, लिंग, धर्म और भौगोलिक आधार पर टकराव होंगे तो भारत छिन्न-भिन्न हो जाएगा.
देश के राष्ट्राध्यक्षों को भारतीय नागरिकों को बेहतर सुविधाएं प्रदान करने हेतु, मूलभूत ढांचे की संरचना को बेहतर बनाने हेतु और संसाधनों का समान वितरण हेतु कार्य करना चाहिए.
कोई व्यक्ति क्या पहनेगा, खाएगा, किस तरह की अपनी जीवन शैली रखेगा, किन परंपराओं में विश्वास रखेगा, कौन-सी भाषा का इस्तेमाल करेगा, यदि यह स्वतंत्रता है तो निश्चित ही हम टकराव मुक्त समाज एवं देश की रचना करेंगे.
इसका सबसे सुखद परिणाम यह होगा कि भारत-वर्ष प्रत्येक क्षेत्र में विश्व बिरादरी के साथ मज़बूती से खड़ा हो पाएगा.
पूर्व दिशा का पुरोधा होने के नाते भारत-वर्ष का यह कर्तव्य भी है कि उसके नागरिक अनेकता में एकता का संदेश देते हुए पूरे विश्व को एक बिरादरी के रूप में देखते हैं जिसमें दो ही जातियां हैं, एक पुरुष की और दूसरी स्त्री की.
यदि देश में एक संप्रदाय या जाति द्वारा दूसरे संप्रदाय या जाति को सीमाओं में बांधने की कोशिश की जाएगी तो इसके भयावह परिणाम होंगे. समूहों द्वारा सीमाएं निर्धारण करने से बंधन बढ़ता है और बंधन तोड़ने की चेष्टा मनुष्य हमेशा करता ही है. अत: जिस राष्ट्रवाद में बंधन होगा वह कभी भी राष्ट्र को अक्षुण्ण नहीं रख पाएगा.
भारत जैसे विशाल देश में सिर्फ संविधान की सीमाओं में रहकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं. आज जिस तरह से श्रेष्ठता का भाव, नारों की एकरूपता पर बल और अहंकार के भाव के बीज प्रस्फुटित हो रहे हैं उससे राष्ट्र को नुकसान ही हो रहा है.
याद रखिए हिटलर ने भी जातीय श्रेष्ठता रूपी हथियार को इस्तेमाल करके जर्मनी पर अपना क़ब्ज़ा जमाया था और जर्मनी किस अधोगति को प्राप्त हुआ यह किसी से छिपा हुआ नहीं है. विभिन्नताओं के देश में थोपने की मनोदशा राष्ट्रीय एकता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है.
कौन व्यक्ति ‘भारत माता की जय’, ‘वंदे मातरम्’, ‘जय हिंद, जय भारत’ और ‘हिंदुस्तान ज़िंदाबाद’ बोलेगा यह व्यक्तियों को स्वयं तय करने दीजिए. इन सभी शब्दों में भाव एक ही है.
भारत की सच्ची सेवा यदि एक आम नागरिक संविधान सम्मत तरीकों से कर रहा हैं तो उसे यह स्वतंत्रता ज़रूर मिलनी चाहिए कि वह राष्ट्र के प्रति अपना आदर, प्रेम और सद्भाव को किस तरह से प्रकट करना चाहता है.
यदि आम नागरिक राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक निभा रहा है तो प्रश्न यह उठता है कि राजनीतिक दल एवं नेता अपने कर्तव्यों को बेहतर तरीके से अंजाम दे रहे हैं या नहीं?
सरकारों का कार्य नागरिकों के भलाई करना होना चाहिए न कि नागरिकों को नारों में उलझाकर मूल मुद्दों से ध्यान भटकाना. यदि सरकारें विकास, कानून-व्यवस्था, मूलभूत संरचना, सीमाओं की सुरक्षा, अपने घोषणापत्र और देश की एकता और अखंडता का कार्य बेहतर तरीके से नहीं कर पाती है तो यह राष्ट्रवाद या राष्ट्रसेवा कदापि नहीं हो सकती.
देश के नौजवानों को रोज़गार, किसानों को बेहतर दाम, व्यापारियों को बेहतर कर संरचना, महिलाओं की पूर्ण सुरक्षा, जातीय एवं धार्मिक विद्वेष को बढ़ावा न देना, प्रेस की स्वतंत्रता, भौगोलिक सीमाओं की रक्षा करना और संविधान की रक्षा करना ही सच्चा राष्ट्रवाद है.
अत: राजनीतिक दलों एवं नेताओं को राष्ट्रवाद की इसी कसौटी पर कसा जाना चाहिए. क्या राष्ट्रवाद या राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को बढ़ाना सिर्फ आम नागरिक का कर्तव्य है या फिर राजनीतिक दल और उसके नेतागण भी इसी परिधि में आते हैं.
आज यह सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है.
देश में आज जिस तरह से खेल, सिनेमा (भाषा के अनुवाद के साथ), संचार क्रांति, आवागमन के साधन, विभिन्न तरह के परिधानों की उपलब्धता ने देश को एकीकृत किया है, ठीक उसी तरह से देश के एक भौगोलिक क्षेत्र के खानपान का दूसरे क्षेत्र में उपलब्ध होने से भी राष्ट्र एकीकृत हुआ है.
विद्यालय एवं विभिन्न विश्वविद्यालयों में जिस तरह से एक क्षेत्र का विद्यार्थी दूसरे भौगोलिक क्षेत्र में शिक्षा हेतु आ-जा रहे हैं उससे भी राष्ट्र की भावना और मज़बूत हो रही है.
1985 के पश्चात देश में जिस तरह से संचार क्रांति और दूरदर्शन के क्षेत्र में क्रांति हुई है उससे भी भारत की एकता को बल मिल रहा है. हालांकि देश के हरेक नागरिक एवं संस्था को सबसे पहले अपने ऊपर स्वशासन करके अनुशासनबद्ध रहना होगा जिससे कि राष्ट्र के प्रति, प्रत्येक नागरिक एवं संस्था बेहतर तरीके से अपने कर्तव्य को निभा पाए.
भारत-वर्ष को अपने पुराने स्वरूप में रहकर ही आगे बढ़ाया जा सकता है जिसमें ‘प्राणादपि प्रत्ययो रक्षितव्य:’ का सिद्धांत ही चलेगा अर्थात अपने प्राणों का बलिदान दे करके भी अपने विश्वास की रक्षा करनी चाहिए.
यदि देश के दो प्रमुख धर्मों की बात की जाए तो सनातन धर्म में प्रत्येक सनातनी को यह स्वतंत्रता आदि काल से है कि वह शैव, वैष्णव,शाक्य और गणपति संप्रदायों में से किसी भी एक परंपरा को मान सकता है. सनातनी मूर्ति पूजा या निराकार की उपासना के लिए स्वतंत्र है. सनातन धर्म में व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर सबसे ज़्यादा ज़ोर है.
दूसरी तरफ़ इस्लाम के मानने वालों की यदि बात करें तो इस्लाम सबको बराबरी का दर्जा देता है. अल्लामा इक़बाल का एक मशहूर शेर है जो स्पष्ट करता है कि समानता का सिद्धांत ही हम सबको ईश्वर के नज़दीक ले जाने में एवं अहंकार को त्यागने में सबसे बड़ा सहायक है.
एक ही सफ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़
न कोई बंदा रहा और न कोई बंदा नवाज़…
शायद इन्ही सनातनी परंपराओं की वजह से भारत-वर्ष व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सबसे बड़ा अलंबरदार है.
आज़ादी के इतिहास को देखने पर यह पता चलता है कि तत्कालीन नेताओं ने आज़ादी को प्राप्त करने हेतु अपने-अपने मार्गों पर चलने का कार्य किया परंतु एक मार्ग पर चलने वाले ने दूसरे मार्ग पर चलने वाले नेताओं को कभी भी राष्ट्रद्रोही नहीं कहा. उनको भी नहीं जिन्होंने आज़ादी के इतिहास में अपना कोई योगदान नहीं दिया.
आज तो राष्ट्रवाद के नाम पर प्रमाण पत्र बांटने की होड़ मची हुई है और जो प्रमाण पत्र बांट रहे हैं, क्या वह अपने आप को राष्ट्र सेवा की सच्ची कसौटी पर कस रहे हैं, यह एक सौ टके का सवाल है?
यह साक्षात सत्य है कि आज़ादी के समय के नेता आज के राजनीतिक चरित्रों से ज़्यादा राष्ट्रवादी और सच्चे देशभक्त थे. चरित्रों से मेरा अभिप्राय स्पष्ट है कि आज के नेता अपनी छवि को चमकाने हेतु विपणन की तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं. राजनीति और राजनेता, सिद्धांतों के जुनून से प्रेरित होने चाहिए न की व्यवसाय या विपणन के सिद्धांत से.
अत: भारत-वर्ष के नागरिकों को टैगोर और गांधी दोनों के राष्ट्रवाद से प्रेरित होना चाहिए. दोनों के राष्ट्रवाद का अध्ययन करने के पश्चात यह पता चलता है कि जिस राष्ट्रवाद में मानवता और करुणा का समावेश नहीं है वह निश्चित ही हमें विनाश की ओर धकेलता है.
अत: देश के राजनेताओं के लिए एक आम नागरिक के हित को साधना और भयमुक्त समाज की रचना करना ही सच्चा राष्ट्रवाद है. जो इन विचारों से सहमत हैं वह भी राष्ट्रवादी हैं और जो असहमत हैं वह भी राष्ट्रवादी.
(लेखक कांग्रेस प्रवक्ता हैं.)